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नई पीढ़ी क्या पढ़ रही है, क्या है उसकी साहित्यिक समझ- इस संदर्भ में हमने युवा वर्ग से भी बात की, यहां प्रस्तुत हैं उनके विचार :-दीपशिखा नैनानी, टीवी पत्रकारवास्तव में साहित्य पढ़ने के लिए काफी समय चाहिए जो कि आज के “यूथ” के पास नहीं है। अब वह या तो साहित्य ही पढ़े या फिर “कोर्स” की किताबें। मैंने हाल ही में चेतन भगत की “5. समवन” पढ़ी है। हिन्दी साहित्य तो मैंने अपने स्कूल के दिनों में ही पढ़ा था। एक बार हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला पढ़ी थी, जो बहुत पसन्द आयी थी। यह भी बात है कि युवा इतनी महंगी किताबें खरीदकर पढ़ नहीं सकता है इसलिए वह “इंटरनेट” पर पढ़ना पसंद करता है।नूपुर शर्मा अध्यक्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघआज का युवा वर्ग हिन्दी फिल्मों के माध्यम से साहित्य को जानता व समझता है। विशाल भारद्वाज की मकबूल व ओमकारा फिल्में शेक्सपीयर के नाटकों के कथानक को समझने का माध्यम बनीं। बचपन में मैंने रामायण और महाभारत पढ़ी थी जो आज तक याद है।विकास दहिया, पूर्व उपाध्यक्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघसाहित्य हमारे जीवन को एक दिशा देता है। यह आज के “यूथ” के लिए बहुत जरूरी है। वास्तव में “इंटरनेट” एवं किताब- दोनों में “कन्फ्यूज” होकर आज का युवा अधकचरा जानकारी रखता है। मैंने पं. दीनदयाल उपाध्याय का साहित्य पढ़ा है, जिसमें एकात्म मानववाद की व्याख्या की गयी है। मेरे विचार से आज के हर एक युवा को यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए।कपिल आरम्बम कॉपी एडिटर, नॉलेज, कम्युनिकेशन सर्विस गुड़गांवयह गलत है कि टी.वी., इंटरनेट ने साहित्य को नुकसान पहुंचाया है। आज का युवा साहित्य पढ़ना चाहता है लेकिन उसे वह बहुत महंगे दामों पर मिलता है। फिर वह “इंटरनेट” पर साहित्य पढ़ता है तो इसमें गलत क्या है। वास्तव में “इंटरनेट” साहित्य को बचाने का काम कर रहा है न कि नष्ट करने का।विवेक विश्वकर्मा, पत्रकारआज का युवा डिस्को-पब से छुट्टी पाये तो वह साहित्य पढ़े। जहां तक साहित्य के अवमूल्यन का सवाल है तो वह समाज के हर क्षेत्र में आये गिरावट के कारण ही है। मैं तो पुस्तकें भी पढ़ता हूं और “इंटरनेट” भी “यूज” करता हूं। ऐसी बहुत किताबें हैं जो आसानी से उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें हम “नेट” के माध्यम से पढ़ लेते हैं। दसाहित्य के अध्ययन मेंरुचि घटी है, महत्व नहींमहीप सिंह, वरिष्ठ साहित्यकारकटु सत्य तो यही है कि समाज में साहित्य की प्रासंगिकता अनुभव करने वाले लोग बहुत कम हैं, पर इससे साहित्य की प्रासंगिकता कम नहीं होती, उसकी उपयोगिता और महत्व बना रहता है। इसका कारण यह है कि वह समाज जो संस्कृति-जीवी नहीं है, अधूरा है। सब प्रकार की भौतिक और आर्थिक प्रगति के बावजूद यदि समाज सांस्कृतिक दृष्टि से प्रगति नहीं करता तो देश की प्रगति अधूरी है। समाज को संस्कार चाहिए, समाज को एक दिशा चाहिए, समाज के चिंतन की परिधि का विकास होना चाहिए, साहित्य यही कार्य करता है।समाज में साहित्य की प्रासंगिकता कभी-कभी बहुत स्पष्ट होकर सामने आए, लेकिन वह परोक्ष रूप से समाज के चिंतन में परिवर्तन लाने का काम करता रहता है। समाज के साहित्य की वर्तमान स्थिति और इसके पहले के काल में रही स्थिति में बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। हां, साहित्य पढ़ने में रुचि पहले से कम जरूर हुई है। इसका कारण है कि टेलीविजन और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सर्वव्यापक प्रभाव छोड़ा है। इसके कारण से पाठकों की रुचि घटी है। हमारे घर की पढ़ी-लिखी महिलाएं घरेलू कामकाज से फुर्सत पाकर कोई अच्छी पुस्तक या उपन्यास पढ़ती थीं। अब वे भी अपने मनोरंजन के लिए टेलीविजन के धारावाहिकों का सहारा लेती हैं। जहां भी टेलीविजन की पहुंच है वहां पाठकों के साहित्य पढ़ने की संख्या में कुछ न कुछ कमी अवश्य दिखती है।दूसरी बात यह भी है कि दैनिक पत्रों के पठन-पाठन में लोगों की रुचि बढ़ी है। क्षेत्रीय और भाषाई पत्रों की संख्या भी बढ़ रही है। दैनिक पत्रों का पाठक समाज के सब वर्गों में, निचले स्तर तक मिल जाता है। मजदूरी करने वाला भी अखबार पढ़ना चाहता है। पर समाचार पत्रों में साहित्य की चर्चा बहुत कम होती है, अनेक पत्रों में तो न के बराबर। सारे पत्र समाचारों और “गॉसिप” से भरे रहते हैं। उनमें कविता, कहानी, साहित्यिक स्तंभ या साहित्य की चर्चा नहीं होती। समाचारों में भी उन समाचारों की प्रमुखता बढ़ती चली जा रही है जो सनसनीखेज हों।निश्चित रूप से पुस्तकों के प्रकाशकों और उनके प्रकाशनों की संख्या बढ़ रही है, पर यह बढ़ी हुई साक्षरता दर का परिणाम है। प्रकाशन अब शुद्ध व्यवसाय हो गया है। पुस्तक मेलों में देखें तो पता चलेगा कि बहुत सी पुस्तकें ऐसी हैं जो साहित्येत्तर विषयक होती हैं। उन्हें साहित्यिक कृति नहीं कहा जा सकता। पर यह भी अच्छा रुझान है कि साहित्येत्तर पुस्तकों की पाठक संख्या बढ़े। पढ़ने में रुचि बनी रहेगी तो व्यक्ति अच्छी पुस्तकें भी ढूंढकर पढ़ेगा।अब आनन्द मठ जैसी कोई पुस्तक लिखी जाए और उसका कोई गीत आजादी का मंत्र बन जाए, समाज में ऐसा वातावरण दिखता नहीं है। क्योंकि लोग धारावाहिकों, फिल्मों और क्रिकेट खिलाड़ियों की चर्चा में लीन रहते हैं। जहां तक रामायण, महाभारत या उपनिषदों के पठन-पाठन का प्रश्न है तो उसका कारण यह है कि अभी भी हमारे देश में धार्मिक आस्था बहुत प्रबल है। इसलिए रामायण, महाभारत या उपनिषद धार्मिक आस्था के कारण अधिक बिकते हैं। हालांकि बहुत से लेखक सामने आ रहे हैं जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं। भक्तिकाल या मध्यकाल या आधुनिक काल में कबीर, रहीम, रसखान, भारतेन्दु, निराला या अन्य बहुत से महान लेखक और कवियों, साहित्यकारों के दोहे या बातें लोगों के जीवन में समाविष्ट हो जाती थीं, प्रेरित करती थीं, वैसे साहित्यकार या वैसा साहित्य आज कहीं नहीं दिखता। आज उर्दू शायरी का प्रभाव जरूर दिखता है। लोग उर्दू शेरो-शायरी पढ़ने में रुचि लेते हैं और बातचीत में उनका उल्लेख भी करते हैं।मैं प्राय: लोगों से पूछता हूं कि आपके घर में फ्रिज, एसी, सोफा, टी.वी. आदि प्राय: सभी आधुनिक सुविधाएं हैं। क्या आपके घर में कोई ऐसा स्थान है जहां पुस्तकें सलीके से रखी हों? बहुत कम घरों में ऐसा मिलेगा। कुछ घरों के “ड्रार्इंग रूम” में कुछ बड़े लेखकों की पुस्तकें जरूर सजा दी जाती हैं, पर पढ़ी नहीं जाती हैं। धीरे-धीरे नगरों-कस्बों से पुस्तकालय कम होते जा रहे हैं। जो हैं वे खस्ताहाल हैं, उनमें नई किताबें नहीं हैं, हैं भी तो लोग वहां पढ़ने नहीं जा रहे हैं। पहले दिल्ली पुस्तक लाइब्रोरी के सचल पुस्तकालय मोहल्लों में जाते थे, अब उसका चलन भी कम हुआ है। कारण सिर्फ एक है कि हमने मनोरंजन के नाम पर सिर्फ टेलीविजन को अपना लिया है, जिसे “ईडियट बाक्स” भी कहा जाता है। पश्चिम के लोग अब इस “ईडियट बाक्स” को छोड़कर छपे हुए शब्दों की ओर फिर से ध्यान देने लगे हैं। हमारे देश में अभी तो टेलीविजन, सिनेमा आदि का प्रभाव बढ़ेगा, पर एक समय जरूर आएगा कि लोग इससे उब जाएंगे और फिर से पुस्तकों में जीवन का सार खोजने लगेंगे। इस दृष्टि से कुछ प्रयास समाज और सरकार को करने होंगे। जैसे नई बन रही किसी भी बस्ती में जैसे पानी, बिजली या शौचालय, समुदाय भवन आदि की व्यवस्था किए बिना उसे मान्यता नहीं दी जाती। वैसे ही बस्तियों में वाचनालय-पुस्तकालय की अनिवार्यता कर दी जानी चाहिए। इसके साथ ही हम इस बात को बढ़ावा दें कि जब हम किसी आयोजन में किसी को उपहार दें तो उसमें अच्छी पुस्तकें उपहार में दें। घर में पुस्तक पहुंचेगी तो लोगों का ध्यान उन पर जाएगा। एक बार एक अच्छी पुस्तक पूरी पढ़ ली तो फिर कोई व्यक्ति अच्छे साहित्य से दूर नहीं होगा। द (वार्ताधारित)9
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