|
श्रद्धेय आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री (जन्म-2 मई, 1929 अवसान-16 अप्रैल, 2005) एक बहुश्रुत मनीषी और आदर्शव्रती राजनीतिज्ञ तो थे ही, एक अति प्रभावी कवि भी थे। उनके निबन्धों, संस्मरणों और आध्यात्मिक प्रवचनों की पर्याप्त चर्चा हुई है किन्तु उनका कवि-रूप अपेक्षाकृत कम चर्चित हुआ है। अपनी सहज गुणग्राही प्रवृत्ति के कारण वह उचित अवसर प्राप्त होते ही प्रख्यात अथवा अल्पख्यात रचनाकारों की मार्मिक पंक्तियों को समग्र प्रभावात्मकता के साथ उद्धृत किया करते थे किन्तु उनका शील, उनका साधु स्वभाव और सहज संकोच उन्हें अपनी रचनाएं सुनाने से विरत रखता था। उनके प्रातिभ शिष्य डा. प्रेमशंकर त्रिपाठी के प्रबल आग्रह से उनकी कुछ कविताएं प्रकाश में आ सकीं। अपनी अनेक विदेश यात्राओं के मध्य उनका मन अपनी इन पंक्तियों को गुनगुनाकर सजग बना रहा-तूफानी गति से चलता है नूतन युग का जीवन पल भर का विश्राम न पाता स्पर्धा-चिन्ता से मन, भले लगें फेरों पर फेरे लन्दन-वाशिंगटन के रहना है यदि स्वस्थ न भूलो चित्रकूट-वृन्दावन।मुझे उनके साथ विविध साहित्यिक गोष्ठियों में रहने का सौभाग्य मिला है। अध्यक्ष पद से दिए गए उनके तमाम सम्बोधन आज भी स्मृति में स्वर्ण-सूत्रों की तरह जगमगाते हैं। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की कुछ कविताओं का उन्होंने भावानुवाद किया था। उनके लगभग सभी शिष्यों को उनकी यह चतुष्पदी कंठस्थ है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ के द्वारा प्रस्तुत लघु दीप की कर्तव्य-निष्ठा शास्त्री जी के प्राञ्जल शब्दों में इस प्रकार निरूपित है-सान्ध्य रवि बोला कि लेगा काम अब यह कौन सुन निरुन्तर छवि लिखित सा रह गया जग मौन, मृत्तिका का दीप बोला तब झुकाकर माथ शक्ति मुझमें है जहां तक मैं करूंगा नाथ।श्रीराम उनके इष्टदेव थे और जीवन के हर प्रसंग में प्रभु के करुणामय संस्पर्श का अनुभव करना उनके व्यक्तित्व को दिव्यता प्रदान करता था। उनका जीवन मंत्र था- “राम जी की कृपा और राम जी की इच्छा”। यदि हमारे मन के अनुकूल हो रहा है तो यह राम जी की कृपा है और यदि हमारे मन के अनुकूल नहीं हो पा रहा है तो यह राम जी की इच्छा है। और राम जी की इच्छा भी उनकी कृपा का थोड़ा परिवर्तित रूप ही है! उन्हें अपने प्रभु की इस कृपा पर परिपूर्ण निष्ठा थी-तू अमंगल वेष में मंगलमयी है क्रोध की तो भूमिका करुणामयी है, तू कराती तप रुला उर द्रवित करती प्रभु कृपा तू सच बड़ी क्रीड़ामयी है।तुलसी-साहित्य के मर्मद्रष्टा और प्रभविष्णु व्याख्याता शास्त्री जी के लिए श्रीराम का जो रूप-ध्यान का विषय रहा वह हमारे आज के सभी प्रज्ज्वलित प्रश्नों के समाधान जैसा है। अपने राम के साथ उन्हें प्रवंचिता अहल्या, उपेक्षित केवट और पग बींधने में निपुण दण्डकारण्य के कांटों की याद आती है-तरी अहल्या जिनके पावन मृदुल स्पर्श से प्रेम-हठीले केवट से जो गए पखारे, जो जग का दु:ख हरने कांटों से क्षत-विक्षत राम! तुम्हारे चरण प्रेरणारुस्रोत हमारे।शास्त्री जी के रामजी के ये चरण हमारे लिए भी प्रेरणारुस्रोत बन सकें-आज यही कामना करता हूं। दअभिव्यक्ति मुद्राएंहम लेके अपना माल जो मेले में आ गए, सारे दुकानदार दुकानें बढ़ा गए। पण्डित उलझ के रह गए पोथी के जाल में, क्या चीज है ये जिन्दगी बच्चे बता गए।-हस्तीमल हस्तीबाप का दिल दुखाया था मैंने, मेरे बच्चे मुझे सताते हैं।-नागेन्द्र अनुजपुराने वक्तों की तहजीब को बचा रखना, कि सर पे पल्ला औ आंखों में तुम हया रखना अदब का हाथ से हरगिज न छोड़ना दामन, बड़ों से गुफ्तगू करना तो सर झुका रखना।-सागर होशियारपुरी18
टिप्पणियाँ