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रा.स्व.संघ के निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुप.सी.सुदर्शन ने राजद के अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादव द्वारा श्रीराम जन्मभूमि के संदर्भ में जो भ्रामक बातें कही गयीं उनका निवारण करते हुए वस्तुस्थिति की सही-सही जानकारी देने हेतु विशेष रूप से विस्तृत आलेख लिखा है। आवरण से आरंभ इस आलेख का शेष अंश इस प्रकार है-द कुप.सी. सुदर्शन निवर्तमान सरसंघचालक, रा.स्व.संघइस शपथ-पत्र पर कि जब तक न्यायालय का भूमि-अधिग्रहण के संबंध में निर्णय नहीं आ जाता, तब तक 2.77 एकड़ जमीन पर कोई निर्माण नहीं किया जाएगा, विश्वास कर लिया और मान लिया कि वे उस पर ईमानदारी से अमल करेंगे। वस्तुस्थिति कुछ और ही है। रा.स्व.संघ के तत्कालीन सहसरकार्यवाह के रूप में अयोध्या में दि. 3 दिसम्बर से 6 दिसम्बर 1992 तक के घटनाक्रम का मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। 30 अक्तूबर 1992 को दिल्ली में हुई पांचवीं धर्म-संसद ने 6 दिसम्बर 1992 से, जिस दिन गीता जयंती थी, रामजन्मभूमि मंदिर के निर्माण का कार्य प्रारंभ करने का निश्चय किया। रामजन्मभूमि मंदिर के लिए पत्थर गढ़ने का कार्य गुजरात और अयोध्या के कारसेवकपुरम् में 3 वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हो चुका था और उन्हें अस्थायी रूप से जोड़कर तब तक बने मंदिर के हिस्से को दर्शनार्थियों के दर्शन के लिए कारसेवकपुरम् में रखा गया था। इसके पूर्व जुलाई मास में भी कारसेवकों का अयोध्या में एकत्रीकरण हुआ था और उस चबूतरे का निर्माण किया गया था जिस पर मंदिर के नृत्यमंडप के खंभे और दीवारें खड़ी की जाने वाली थीं। तभी सर्वोच्च न्यायालय के इस आश्वासन पर, कि यदि कारसेवा रोक दी जाती है तो अधिग्रहण संबंधी सब विवाद वापस लिये जाएंगे और उनका अति-तत्परता से निपटारा किया जाएगा, कारसेवा रोक दी गई थी।जिस 2.77 एकड़ भूमि का उत्तर प्रदेश की सरकार ने 10 अक्तूबर, 1991 को अधिग्रहण किया था उसमें से 0.73 एकड़ भूमि पर बाबरी मस्जिद कहा जाने वाला ढांचा खड़ा था और शेष 2.04 एकड़ जमीन विश्व हिंदू परिषद् की थी। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस भूमि का अधिग्रहण किये जाते समय विश्व हिंदू परिषद् ने कहा भी था कि “हमारी जमीन हमारे पास ही रहने दी जाय”, किंतु उत्तर प्रदेश की सरकार ने आश्वासन दिया कि पूरे 2.77 एकड़ पर रामजन्मभूमि न्यास को मंदिर बनाने की अनुमति दी जाएगी। इस अधिग्रहण को चुनौती दी गई और उच्च न्यायालय ने यह निषेधाज्ञा जारी कर दी कि कोई स्थायी निर्माण न किया जाय, किंतु अस्थायी तौर पर निर्माण की अनुमति दे दी। सर्वोच्च न्यायालय को आशा थी कि अधिक से अधिक 6 सप्ताह में अधिग्रहण प्रकरण निपटा दिया जाएगा। वह तो हुआ नहीं, उल्टे 15 जुलाई, 1992 को अस्थायी निर्माण को भी निरस्त कर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दे दिया। पांचवीं धर्म संसद के 6 दिसम्बर से निर्माण कार्य प्रारंभ करने के निर्णयानुसार, 30 नवम्बर से ही कारसेवकों का अयोध्या आना प्रारंभ हो चुका था। 30 नवम्बर को डेढ़ लाख कारसेवक व जनता अयोध्या पहुंच चुकी थी। दि. 4 दिसम्बर की रात्रि को रामजन्मभूमि के न्यासियों, धर्माचार्यों, विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ पदाधिकारियों तथा स्थानीय व्यवस्थापकों की बैठक हुई थी जिसमें मुख्य चिंता इस बात पर व्यक्त की गई थी कि कारसेवकों के अतिरिक्त बहुत बड़ी संख्या में आसपास के ग्रामों से वहां आई महिलाओं में से हजारों अपने नवजात शिशुओं के साथ आई हुई हैं, कहीं कुछ अनहोनी हुई तो भगदड़ मच सकती है। उस स्थिति में महिलाओं और बच्चों का क्या होगा? विचारोपरान्त निश्चय हुआ कि “राममंदिर के निर्माण में हमारा भी योगदान हुआ”, यह समाधान वहां समवेत हुए लक्षावधि लोगों को हो सके इसलिए जहां सिंहद्वार बनाया जाना संकल्पित था और जिसकी नींव के लिए एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदा गया था, उसमें सब लोग एक-एक मुट्ठी रेत डालें और उसके पश्चात् वे अपने-अपने ग्रामों और नगरों की ओर प्रस्थान करें। केवल 40-50 हजार नौजवान कारसेवक रह जाएं जिससे केन्द्र सरकार को मंदिर निर्माण को रोकने की हिम्मत न हो। वैसी सूचना दि. 5 दिसम्बर को रामकथा कुंज के विशाल मैदान में आयोजित जनसभा में दी गई थी।इस बीच श्री लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी क्रमश: काशी और मथुरा से जनजागरण करते हुए दि. 5 दिसम्बर की शाम को लखनऊ पहुंचे और एक विशाल जनसभा को संबोधित किया, इसके बाद वे रात्रि 11 बजे तक अयोध्या पहुंच गए। मैंने दोनों से भेंट कर दि. 5 दिसम्बर की बैठक में लिए गये निर्णयों की जानकारी दी। सर्वसाधारण जनता सरयू की रेत से सिंहद्वार हेतु बनाए गये गड्ढे को भरे और अपने-अपने ग्रामों-नगरों की ओर प्रस्थान करे, इस निर्णय के साथ-साथ उस दिन के लिए निर्धारित कार्यक्रम की जानकारी दी। तय यह हुआ था कि जुलाई में एकत्रीकरण के समय बने चबूतरे पर यज्ञ किया जायेगा जिसकी पूर्णाहुति सवा बारह बजे के शुभ मुहूर्त पर की जाएगी तथा उसके पश्चात् उस स्थान से निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाएगा जो 2.77 एकड़ के बाहर पड़ता था। उस स्थान को तद्नुसार चिन्हित भी किया गया था। अपेक्षा यह थी कि ऐसा करने से अदालत की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होगा।इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन के संदर्भ में चल रहे विवाद के संबंध में दोनों ओर की गवाहियां और बहस दि. 4 नवम्बर तक पूरी हो चुकी थी और अपेक्षा थी कि 30 नवम्बर तक निर्णय सुना दिया जाएगा। किन्तु 30 नवम्बर को अदालत ने निर्णय की तारीख 4 दिसम्बर तक बढ़ा दी। दि. 6 दिसम्बर के पूर्व ही निर्णय आ जाय तो बिना किसी विघ्न-बाधा के कारसेवा शुरू हो सकती थी। इसे पक्का करने के लिए तत्कालीन सरकार्यवाह मा. रज्जूभैया ने दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री से भेंट की। इस भेंट के संबंध में मा. रज्जूभैया के ही शब्दों में -“मैं तीन दिसम्बर को प्रधानमंत्री नरसिंहराव से मिला था और उनसे आग्रह किया था कि वे न्यायालय के निर्णय की तिथि कुछ दिन पहले करवा लें। इस प्रकार की व्यवस्था हो कि अधिक से अधिक 7 तारीख तक न्यायालय का निर्णय मिल जाय। मैंने प्रधानमंत्री को यह समझाने का प्रयत्न किया था कि ऐसा न होने पर लाखों कारसेवकों को नियंत्रित रखने में कठिनाई होगी। दो-एक दिनों के लिए हम कारसेवकों को धुलाई और तराशे हुए पत्थरों को निर्माण स्थल पर लाने के काम में लगा सकते हैं।” (दि इंडियन एक्सप्रेस, दि. 17 जनवरी)दि. 4 दिसम्बर को अदालत के निर्णय की उत्सुकता से प्रतीक्षा हो रही थी, किंतु उस दिन अदालत ने निर्णय की तारीख 11 दिसम्बर तक बढ़ा दी। मा. रज्जूभैया पुन: प्रधानमंत्री से मिले और उन्हें समझाने का प्रयास किया कि वे प्रयत्न करें और उच्च न्यायालय का निर्णय जल्दी दिलवाएं। उन्होंने कहा- “मैं क्या कर सकता हूं? मैं निर्णय समय से पूर्व कैसे करा सकता हूं?” मा. रज्जूभैया ने सुझाव दिया कि- “आप उच्चतम न्यायालय में एक आवेदन देकर उसके माध्यम से उच्च न्यायालय को यह निर्देश दिलवा सकते हैं कि वह शीघ्र निर्णय दे।” उस समय श्री नरसिंहराव के दूत श्री रंगराजन कुमारमंगलम् ने मा. रज्जूभैया को बताया भी था कि वे ऐसा करेंगे। किंतु श्री नरसिंहराव ने कुछ नहीं किया। वास्तव में वे चाहते थे कि ढांचा टूटे।मेरे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के पीछे कुछ तथ्य हैं। श्री नरसिंहराव जी के पत्रकार मित्र श्री वेदप्रताप वैदिक ने, जो इन्दौर निवासी होने के कारण मेरे भी मित्र थे, मुझे बताया था कि “दि. 6 दिसम्बर को वे (श्री वैदिक) श्री नरसिंहराव से निरन्तर संपर्क में थे। जब मैंने (श्री वैदिक ने) उन्हें बताया कि ढांचा पूरी तरह टूट गया तो उन्होंने (श्री राव ने) कहा कि- “अरे, बड़ा धोखा हो गया। मैं उसी स्थान पर फिर से मस्जिद बनाने के लिए कहता हूं।” तब मैंने कहा कि आप वहां मस्जिद कैसे बनवाएंगे? उस ढांचे के अन्दर तो श्रीरामलला विराजमान हैं जिनकी सन् 1949 से नित्य पूजा, अर्चना व दर्शन हो रहे हैं और अदालत ने भी उस संबंध में अन्तिम निर्णय नहीं लिया है। तब उन्होंने कहा- “मैं 10 दिसम्बर को पत्रकार परिषद में इस संबंध में कहूंगा।”असली बात तब पता चली जब ढांचा टूटने के पश्चात् दि. 10 दिसंबर को रा.स्व.संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। दि. 10 दिसम्बर को ही महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने श्री नरसिंहराव को एक फैक्स भेजा जो मराठी में निम्नानुसार था -“आमच्या किचन केबिनेट मधे काय चालत असतं याची माहिती मला असते हे आपल्याला माहित आहे. 6 डिसेंबरला अयोध्ये मधे जी घटना घडली त्यांत आमच्या किचेन केबिनेटच्या एक मंत्र्यांचा पण हात होता. त्या घटने साठी विश्व हिंदू परिषद्, बजरंग दल आणि शिवसेनेवरती काही कार्यवाही केली तर जनते मधे त्याची विपरीत प्रतिक्रिया होणार नाहीं. किंतु त्या घटने साठी रा.स्व.संघला जबाबदार मानून त्याच्यावरती पण प्रतिबंध लावण्याचा विचार चालू आहे. जिथ पर्यंत नागपूरचा प्रश्न आहे श्री बाळासाहेब देवरस आमचे विरोधी नाहीं. त्यांची इच्छा आहे की आमची सरकार पाँच वर्ष चालावं. म्हणून संघावरती जर बंदी आणली तर आमच्याशी सहानभूति ठेवणारा हा वर्ग आमचा विरोधी होऊन जाईल म्हणून संघावरती बंदी लावू नये.”(अपनी किचेन केबिनेट में क्या कुछ चलता रहता है इसकी जानकारी मुझे रहती है, यह आप जानते हैं। दि. 6 दिसम्बर को अयोध्या में जो घटना घटी उसमें अपने किचेन केबिनेट के एक मंत्री का भी हाथ था। उस घटना के लिए यदि विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल व शिवसेना पर कोई कार्रवाई की गई तो जनता में उसकी विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होगी। किंतु उस घटना के लिए रा.स्व.संघ को भी जवाबदार माना जा रहा है और उस पर प्रतिबंध लगाने का विचार चल रहा है। जहां तक नागपुर का सवाल है श्री बालासाहेब देवरस हमारे विरोधी नहीं हैं। वे चाहते हैं कि अपनी सरकार पांच साल चले। किंतु यदि उस पर प्रतिबंध लगाया गया तो हमारे साथ सहानुभूति रखने वाला यह वर्ग हमारा विरोधी हो जाएगा अत: संघ पर प्रतिबंध न लगाया जाय।)किंतु उसी दिन संघ पर भी प्रतिबंध लगाकर संघ कार्यालयों पर ताला लगा दिया गया। बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को अवैध घोषित कर दिया। उसके बाद जब हमारे प्रचारक प्रमुख श्री आबाजी थत्ते से मैं मिला था तो मुझे वह फैक्स देखने को मिला था। किंतु बाद में उसे नष्ट कर दिया गया था। बाद में दिल्ली में उन कांग्रेसी नेता से श्री केवलरतन मलकानी के घर भेंट हो गई। श्री मलकानी जी उस समय राज्यसभा के सदस्य थे। वहां मैंने उन कांग्रेसी नेता से उस फैक्स के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि- “मैंने एक नहीं दो फैक्स भेजे थे। एक 12 दिसम्बर को भी भेजा था जिसमें मैंने प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि उत्तर प्रदेश सरकार तो भंग हो चुकी है, किंतु अन्य भाजपा शासित प्रदेशों की सरकारों को भंग न करें। किंतु मेरी दोनों बातें नहीं मानी गर्इं।”इस पृष्ठभूमि में दि. 6 दिसम्बर के घटनाक्रम को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ढांचे का टूटना केवल कारसेवकों के उत्तेजित होने का परिणाम मात्र नहीं था, बल्कि सरकार की भी उसमें भूमिका रही थी। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समवेत जनता बड़े सवेरे ही सरयू स्नान कर वहां से मुट्ठी भर रेत ला-ला कर सिंहद्वार के गड्ढे में भर रही थी तथा अनेक लोग जाने भी लगे थे। पर साथ ही आसपास के गांवों में “ठहरे हुए कारसेवकों व जनता की नई लहरें आती जा रही थीं। अयोध्या के सारे रास्ते अवरुद्ध हो गये थे। चारों ओर जनमेदिनी ही दिखाई दे रही थी। इधर चबूतरे पर यज्ञ की तैयारी चल रही थी। सवा बारह बजे यज्ञ की पूर्णाहुति होकर कारसेवा प्रारंभ करने का मुहूर्त था। सीता रसोई के पास सिंहद्वार से लेकर ढांचे तक का पूरा परिसर बल्लियों से घेर लिया गया था ताकि उस क्षेत्र को भीड़ से मुक्त रखा जा सके। मा. आडवाणी जी व जोशी जी को 10 बजे प्रात: आने के लिए कहा गया। वे आए और उनके घिरे क्षेत्र में पहुंचते ही नये आए कारसेवकों की भीड़ भी अन्दर आने के लिए मचलने लगी। पुलिस उन्हें रोकने में असमर्थ हो रही थी। मैंने भी उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, पर कुछ लोग कूदकर अन्दर आ गए। एक संत श्री धर्मदास डंडा लेकर दौड़े और उन सबको चबूतरे के एक किनारे बैठाया। दूसरी ओर उन महिलाओं को बैठाया गया जो बल्लियों के घेरे के पास भीड़ में दबी जा रही थीं।इस सम्पूर्ण व्यवस्था में परिसर के पीछे चूंकि सुरक्षाबल लगे थे अत: वहां स्वयंसेवकों की व्यवस्था नहीं की गई थी। उसके पीछे परकोटा था, किंतु साथ ही एक विशाल वटवृक्ष भी था। उसकी शाखाओं पर चढ़कर कुछ कारसेवक पीछे की दीवार लांघ कर सुरक्षाबलों से नजर बचाते हुए कटघरे तक पहुंच गये और उनमें से दो-तीन गुंबद पर भी चढ़ गये। उन्हें देखते ही चबूतरे पर बैठे कारसेवक भी उत्तेजित हो गये और लोहे के सींखचों का कटघरा, जो ढांचे के आसपास लगा था, लांघ कर गुंबद पर चढ़ गए, निर्माण कार्य में लगे कुछ गेंती, सब्बल, घन आदि से गुंबद पर प्रहार करने लगे किंतु गुंबद इतना मजबूत था कि वे सब उछल जाते थे। इतने में सवा ग्यारह बजे के आस-पास एक विस्फोट सुनाई दिया और ढांचे के पीछे की ओर एक बहुत बड़ा छेद हो गया। फिर क्या था, आजू-बाजू के सरियों को उखाड़कर कारसेवक उस छेद को बड़ा करने लगे और 1.50 बजे के आस-पास पश्चिम का ढांचा हरहराकर नीचे गिरा। 3.30 के आस पास पूर्व का गुंबद टूटा और 5.15 के आसपास बीच का गुंबद नीचे आ गया।यह सब जब हो रहा था तब कुछ पुजारी व कारसेवक रामलला की मूर्ति को बाहर निकाल लाए थे। पूरा ढांचा ढहने के बाद बीच का गुंबद जहां धराशायी हुआ था उसी पर एक अस्थायी कटघरा बनाकर रात्रि नौ बजे रामलला का सिंहासन रखा गया और मंत्रों के बीच विधिवत् स्थापना की गई। उसके बाद दर्शनों के लिए तांता लग गया, जो रातभर चलता रहा। सारे अयोध्या में दीपावली मनाई गई।ढांचे पर जब कारसेवक चढ़ गए तो रामकथा कुंज से, स्थानिक रामभवन से मा. शेषाद्रि जी, सुश्री उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा, आडवाणी जी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया बार-बार अपीलें कर रहे थे और समझा रहे थे कि वे सब उतर आएं, तोड़-फोड़ अपनी योजना में नहीं है। किंतु उत्तेजित कारसेवकों में से किसी ने ये नहीं सुना। रोष का एक कारण यह भी था कि दि. 4 दिसम्बर को दिया जाने वाला निर्णय दि. 11 तक बढ़ा दिया गया था। अनेक कारसेवकों ने दि. 5 की रात से ही कहना चालू कर दिया था कि “बार-बार हमें बुलाया जाता है। पिछली जुलाई को तो हम चले गये। इस बार केवल रेत डालने नहीं आए। हम कुछ करके जाएंगे।” मा. रज्जूभैया का श्री नरसिंहराव से यह कहना कितना सही था कि आप निर्णय दि. 7 तक दिलवा दीजिए। पर उन्होंने कुछ नहीं किया। सुप्रसिद्ध स्तंभकार श्री एम.जे.अकबर ने भी अपने स्तंभ में लिखा है-“सच्चा दोष तो उन पर है जिन्होंने मस्जिद की रक्षा करने का अभिवचन दिया था और बाद में जान-बूझकर ढहाने में सहयोगी बन गये। घोर पाखण्डी थे प्रधानमंत्री नरसिंहराव और उनके निकट अनुचर गृहमंत्री एस.बी.चव्हाण। ढांचे की रक्षा के लिए केन्द्रीय बल वहां उपस्थित था, पर उसे एक किनारे खड़ा कर दिया गया। बाद में जब श्री नरसिंहराव से पूछा तब उन्होंने सफाई देते हुए कहा कि वे उस दिन दिनभर सोते रहे। राव निष्क्रिय रहे और शंकरराव चव्हाण खर्राटे लेते रहे। उनके खर्राटे इतने प्रभावी थे कि उनके पुत्र को पुरस्कार स्वरूप महाराष्ट्र का नेतृत्व मिल गया। मंत्रिमंडल और कांग्रेस राव की इस ठगी में सहायक हुए।” (टाइम्स आफ इंडिया, दि. 8 फरवरी 2009)श्री आडवाणी जी रामभवन में खिन्न से बैठे हुए थे। तभी विचार हुआ कि एक वक्तव्य तैयार किया जाना चाहिए। जो प्रथम प्रारूप तैयार किया गया उसमें ढांचा टूटने के लिए “Regret” (खेद) शब्द का उपयोग किया गया था। आडवाणी जी को दिखाने पर उन्होंने कहा कि- ” Regret” नहीं, unfortunate (दुर्भाग्यपूर्ण) लिखना चाहिए। मंदिर बनाने के लिए ढांचे को तोड़ना ही पड़ता। किंतु उसे हम कानून के दायरे में रखकर करना चाहते थे। किंतु जिस प्रकार वह किया गया उसके कारण अब मंदिर का निर्माण 10-12 साल पिछड़ गया।” आज हम देखते हैं कि 17 वर्ष होने के बाद भी अभी तक भव्य मंदिर निर्माण के लिए मुहूर्त नहीं आया है। इस बीच सरयू में बहुत पानी बह चुका है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार उस पूरे क्षेत्र की पुरातत्व विभाग से खुदाई कराई गई और उत्खनन के लिए जापान के कारीगर आए। खुदाई करने पर पांच स्तरों पर केवल मंदिर के अवशेष ही मिले हैं। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के श्री शहाबुद्दीन ने कहा था कि- “यदि नीचे मंदिर के अवशेष मिले तो मैं मुकदमा वापस ले लूंगा।” किंतु आज तक भी उन्होंने मुकदमा वापस नहीं लिया है।श्री एम.जे.अकबर ने अपने स्तम्भ के अंत में ठीक ही लिखा है- “इस तर्क में दम है कि इस मामले में केवल तकनीकी और कानूनी पहलू का विचार कर मंदिर की कार्यवाही को रोकने का प्रयत्न भीषण साम्प्रदायिक संघर्षों को जन्म देगा और इसलिए ऐसे तथ्यों की अनदेखी की जानी चाहिए। यदि यह सही है तो प्रत्येक पार्टी, फिर वह अपने आपको सेकुलर कहने का कितना भी दावा क्यों न करें, लाउडस्पीकर के सामने भाजपा की इस बात से व्यवहारत: सहमत दिखती है कि मस्जिद की जगह पर मंदिर निर्माण की अनुमति दी जानी चाहिए। कानून कोई रास्ता अपनाए या न भी अपनाए, अंत में जनभावना की ही जीत होगी। फिर अकेले कल्याण सिंह को क्यों दोष दिया जाय?” 6 दिसम्बर की घटना के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि मंदिर समर्थक संगठन कानून के दायरे में रहकर ही मंदिर निर्माण की प्रक्रिया सिंहद्वार से प्रारंभ कर अंत में गर्भगृह तक पहुंचना चाहते थे। किंतु इतिहास किसी से निर्देशित नहीं होता, वह घट जाता है और जब वह घटता है तो इस तरह की उथल-पुथल होती ही है।द9
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