|
प्रेमचंद के अप्राप्य साहित्य की खोज में अनेक ऐसी रचनाएं मिलीं जो प्रेमचंद के ऐसे विचारों को उद्घाटित करती हैं जिनकी हमें जानकारी नहीं है। “साम्यवादव् एक ऐसा ही विषय है जिसके संबंध में उनका पूर्ण चिंतन हिन्दी संसार के सम्मुख कभी नहीं आ सका। इसके कई कारण रहे हैं-हिन्दी के वामपंथी आलोचकों ने “साम्यवादव् के अपने विवेचन में केवल उन्हीं विचारों को उद्धृत किया जो “साम्यवादव् के समर्थन में थे। यहां तक कि “प्रेमाश्रमव् उपन्यास में एक चरित्र बलराम की तीन-चार पंक्तियों को, जिसमें वह यूरोप के कुछ देशों में किसान-मजदूरों के राज्य होने का उल्लेख करता है, उपन्यास का प्रतिपाद्य बनाकर पाठकों के साथ छल किया गया। इन वामपंथी आलोचकों ने प्रेमचंद के उन लेखों, कहानियों तथा उपन्यासों के उन अंशों को नहीं देखा जिनमें रूसी क्रांति तथा साम्यवाद की कटु आलोचना की गयी है। दूसरा कारण यह है कि प्रेमचंद के वे लेख अदृश्य हो गये या कर दिये गए, जिनमें साम्यवाद को पूंजीवाद से भी अधिक भयंकर बताया गया है।यहां ऐसा ही एक अप्राप्य लेख प्रस्तुत है जो गोरखपुर की पत्रिका “स्वदेशव् के 18 मार्च, 1928 के अंक में छपा था। इस लेख में प्रेमचंद ने कुछ ऐसे विचार प्रकट किए हैं, जिन्हें आज के दौर में समझना आवश्यक है। आज हम जिसे भूमंडलीकरण कहते हैं, प्रेमचंद उसे व्यापारियों और मजदूरों का साƒााज्यवाद कहते हैं। इस तरह प्रेमचंद भूमंडलीकरण के संबंध में उस समय के चिंतन को हमारे सामने रखते हैं। प्रेमचंद इस लेख में “साम्यवादव् को परिभाषित करते हैं। वे “साम्यवादव् में व्यापारियों और मजदूरों की विजय देखते हैं, सामान्य जनता की नहीं, इस कारण रूसी क्रांति की विजय से साधारण जनता को अन्याय पर न्याय की तथा मिथ्या जीवन पर सत्य की विजय नहीं मिलेगी। साधारण जनता “साम्यवादव् में भी न्याय के लिए तरसती रहेगी और पूंजीवाद की बुराइयों-विषमता, अन्याय तथा स्वार्थपरता-को उन्हें पूर्ववत् रूप में झेलना होगा। प्रेमचंद का विचार तो यह है कि साम्यवाद में ये बुराइयां और भी बढ़ जाएंगी। ध्यान रहे, यह लेख प्रेमचंद ने सन् 1928 में लिखा था जब उनका चिंतन प्रौढ़ता प्राप्तकर चुका था। प्रस्तुति: कमल किशोर गोयनका15
टिप्पणियाँ