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और कितने प्रमाण चाहिएडा. रमानाथ त्रिपाठीअन्यवामपंथियों की तरह श्री कमलेश्वर भी निरन्तर हिन्दुत्व का विरोध करते रहे थे, यहां तक कि मृत्यु से कुछ महीने पहले तक उन्होंने निर्दोष हिन्दू संगठनों को कोसा था। उनका चर्चित उपन्यास “कितने पाकिस्तान” उनकी सोच का परिचायक है। ऐसे घनघोर वामपंथी लेखक ने बाबरी ढांचे के विषय में जो वक्तव्य दिया है वह विचारणीय है। उन्होंने बाबरी ढांचे के स्थापत्य के विषय में अपनी पुस्तक सुलगते शहर का सफरनामा में जो कुछ कहा है उसे मैं लगभग ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूं-बाबरी मस्जिद की पूरी इमारत को सूक्ष्मता से देखने के बाद यह स्पष्ट है कि यह इमारत निश्चय ही किसी पहले की इमारत को तोड़कर बनायी गयी है।इस मस्जिद के दरवाजों के स्तंभों के रूप में कसौटी पत्थर के बारह स्तंभ लगे हुए हैं … वैसे ही स्तंभ कुछ मुस्लिम मकबरों में भी लगे हुए हैं, इससे स्पष्ट होता है कि ये 12 स्तंभ मस्जिद के लिए नहीं बनवाए गये थे, यह यहीं पर तोड़ी गयी इमारत में से निकले हैं।इन स्तंभों पर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। ये बहुत स्पष्ट तो नहीं हैं, परन्तु हैं मानवीय आकृतियां…. जो इस्लाम में निषिद्ध हैं।इस मस्जिद में मीनारें नहीं हैं … यह एक विचित्र तथ्य है, क्योंकि मीनारें अजान देने के लिए बनायी जाती हैं। अजान देने के लिए इसमें और कोई ऊ‚ंची जगह भी नहीं है।किसी भी मस्जिद में वजू के लिए बाबड़ी, कुआं या पानी का इन्तजाम होना जरूरी है, किन्तु इस मस्जिद में ऐसा कोई इन्तजाम या स्थान नहीं है।मस्जिद की मुख्य बड़ी मेहराव के साथ की दोनों दीवारों में झरोखे बने हुए हैं, जैसे कि राजस्थान के स्थापत्य में मूलत: होते हैं। मस्जिदों में इस प्रकार का प्रावधान नहीं होता। …इन झरोखों के ऊ‚पर गोलाकार कमल के फूलों की मोटिफ है जो मस्जिदों में कहीं दिखायी नहीं देते।मुसलमानों ने बताया कि उनके मजहब के तहत मस्जिद में लकड़ी का इस्तेमाल मना है। मस्जिद के मुख्य गुम्बद में लकड़ी लगी है जो लोहे के दो गर्टरों पर सधी है। कहा जाता है कि यह लकड़ी चन्दन की है।मस्जिदों में परिक्रमा नहीं होती, पर इस मस्जिद के चारों ओर परिक्रमा स्थापित हैं।मस्जिद के बाहरी सिंहद्वार पर शेरों के दो आकार स्थापित हैं- वे भी राजस्थानी शैली में हैं और मस्जिद की प्रकृति से मेल नहीं खाते।पुरातत्ववेत्ता डा. स्वराज प्रकाश गुप्त ने भी मस्जिद में लगे काले खम्भों के बारे में कहा था- “मैंने 22 देशों की मस्जिदें देखी हैं, किसी में भी ऐसे (चित्रित) स्तम्भ देखने को नहीं मिले। इनका सादृश्य उन मन्दिरों के स्तंभों से था जो 11-12वीं शती में निर्मित उत्तर प्रतिहार शैली के अन्तर्गत हैं। कन्नौज के गहड़वाल राजाओं ने भी इसी शैली का प्रयोग किया था।”अपने कुतर्कों के लिए कुख्यात वामपंथी विचारक डा. रामशरण शर्मा बाबरी ढांचे के खंभों में हिन्दू स्थापत्य की उपस्थिति देखकर परेशानी में पड़ गये थे। वे हिन्दू स्थापत्य को नकार नहीं सकते थे। उन्होंने जो मुख्य बात कही वह बहुत महत्वपूर्ण है कि “पुराने खण्डहरों की सामग्री से नये भवन बनाये जाते रहे हैं। यहां भी बहुत पहले के टूटे पड़े किसी मन्दिर के खण्डहर की सामग्री से बाबरी मस्जिद बनायी गयी होगी?”यहां कमलेश्वर और रामशरण शर्मा के विचारों में साम्य है।बाबरी ढांचे के ध्वंस के लगभग छह मास पूर्व इस परिसर की भूमि को लोक निर्माण विभाग द्वारा समतल किया गया था। इस दौरान 18 जून, 1992 को 18 खण्डित प्रस्तर अवशेष मिले थे। इनका अध्ययन अवध विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर विजय कुमार पाण्डेय और प्रो. बांके बिहारी मणि त्रिपाठी ने किया था। इन अवशेषों में एक खण्डित आमलक है, जिसे नागर शैली के मन्दिरों के शिखर पर लगाया जाता था। एक शिलापट्ट भी है जिस पर ब्रााहृी लिपि में कुछ लिखा है। इन दोनों विद्वानों ने प्रचीन मन्दिर की खिल्ली उड़ाने वाले डा. रामशरण शर्मा और डा. रोमिला थापर आदि को चुनौती देते हुए कहा कि इस खोज के बाद इन इतिहासकारों की मान्यता खण्डित हो गयी है कि मस्जिद में कसौटी पत्थर के खम्भे बाहर से लाकर लगाये गये हैं और यहां कोई प्राचीन मन्दिर नहीं था।भारतीय पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक श्री के.एम. श्रीवास्तव, प्रो. वी.आर. ग्रोवर आदि के एक और भी दल ने इस स्थल के आसपास अनेक प्राचीन अवशेषों का पता लगाया था।6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढांचा तोड़ दिया गया था। पुरातत्ववेत्ता डा. सुधा मलैया (भोपाल) भी वहां उपस्थित थीं। उन्होंने देखा था कि मलवे से लाल-पीले बलुआ पत्थर के अनेक अलंकृत अवशेष, कई मूर्तियां और दो अभिलेखों सहित बहुत सारी सामग्री प्राप्त हुई थी। काले कसौटी के पत्थर के अलंकृत स्तंभ का आधा भाग भी मिला था जो मस्जिद में लगे 14 स्तंभों जैसा ही था। इस पर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां भी अंकित हैं। सुधा जी ने दावा किया कि संगमरमर की बनी काले रंग की एक मूर्ति भी मिली है जो श्रीराम की है। डा. स्वराज प्रकाश गुप्त ने बताया कि 5 फुट लम्बे और दो फुट चौड़े बलुआ पत्थर पर 20 पंक्तियों का अभिलेख है। इसकी कई पंक्तियां खण्डित हैं। इसे मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय उत्कीर्ण किया गया होगा। इसकी भाषा प्राचीन शास्त्रीय संस्कृत और लिपि नागरी है। अभिलेख से पता लगता है कि यहां पत्थर का बना अत्यन्त भव्य मन्दिर था, जिस पर सोने का कलश बना हुआ था। यह भगवान विष्णु हरि को समर्पित था, जिन्होंने बाली का घमण्ड चूर किया था और दशानन को परास्त किया था। इसको बनवाने वाला कन्नौज क्षेत्र का गहड़वाल वंशीय शासक रहा होगा, जिसने 11वीं शती में इस मन्दिर का निर्माण कराया होगा। मस्जिद के मलबे से लगभग 400 वस्तुएं प्राप्त हुई थीं, जो कि कुबेर के टीले पर स्थित राम कथा-कुंज में रखी गयी हैं।इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ए.एस.आई. (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) को निर्देश दिया कि वह विवादित ढांचे की खुदाई कर वस्तुस्थिति का पता लगाये। इस संस्था ने कई मास की खुदाई के बाद 25 अगस्त, 2003 को 574 पृष्ठों की रपट प्रस्तुत की थी। इस रपट के अनुसार बाबरी ढांचे के नीचे एक व्यापक और व्यवस्थित ढांचा होने का पर्याप्त पुरातात्विक सबूत है। इस ढांचे में जो कुछ मिला है वह 10वीं शती में बनने वाले मन्दिरों से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। खुदाई में देवी-देवताओं की मूर्तियां, ईटें, बर्तन, कमल की आकृति से युक्त काले पत्थर के 50 स्तंभ आदि अवशेष प्राप्त हुए हैं। मन्दिर का निर्माण काल 11वीं शती का रहा होगा।बाबरी ढांचे के ध्वंस के पश्चात् वामपंथियों और सेकुलरों ने जबरदस्त हो हल्ला मचाया था। इस घटना के केवल छह वर्ष पहले 1986 से 1992 के बीच केवल कश्मीर घाटी में मुसलमानों ने 93 मन्दिरों को नुकसान पहुंचाया था। ये भारत सरकार के आंकड़े हैं। नवभारत टाइम्स (18 फरवरी, 93) ने क्षतिग्रस्त 93 मन्दिरों का विस्तृत विवरण प्रकाशित किया था। ढांचे के ध्वंस के पश्चात् भी पूरे भारत, बंगलादेश और पाकिस्तान में असंख्य मन्दिर तोड़े गये थे। किसी भी वामपंथी ने मुसलमानों के कृत्य के विरोध में एक शब्द तक नहीं कहा था।इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि बाबरी ढांचे के निर्माण के पूर्व 11वीं शती का कोई विशाल भव्य वैष्णव मन्दिर था। इसमें विष्णु के अवतार राम की मूर्ति रही होगी।गोस्वामी तुलसीदास के “रामचरितमानस” की रचना के पहले ही कई स्थानों पर राम-मन्दिर थे। कई स्थानों की खुदाई के फलस्वरूप राम मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जो कि छठी से लेकर 12वीं शती की हो सकती हैं। ये मूर्तियां ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं गढ़ी गयी थीं। ये किसी तोड़े गये मन्दिर या स्वयं विनष्ट मन्दिरों की रही होंगी। बाबर के भारत में आने से पहले ही स्वामी रामानन्द ने धनुर्धर राम की भक्ति का प्रबल प्रचार किया था। इस क्षेत्र में अध्यात्म रामायण की देन भी महत्वपूर्ण है।यदि मुसलमानों ने आन्दोलन और कानूनी लड़ाई के बजाय यह स्थल हिन्दुओं को सौप दिया होता तो उन्होंने युग-युग तक के लिए हिन्दुओं का दिल जीत लिया होता। उनके पूर्वजों ने हजारों मन्दिरों के तोड़ने का जो महापाप किया उसका भी प्रक्षालन हो जाता। उन्हें यह सद्बुद्धि कौन दे? बिकाऊ‚ बुद्धिजीवी और वोट बैंकी पाखण्डी सेकुलरवादी उन्हें मुख्यधारा से नहीं जुड़ने देंगे।राम मन्दिर था, इसे ध्वस्त किया गया था। इसका पुनर्निर्माण होना चाहिए। यह राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है। इसका निर्माण राष्ट्र के समक्ष चुनौती है। यदि राष्ट्र भीतर से खोखला नहीं है तो निश्चिय ही यह चुनौती चरितार्थ होगी।21
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