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कितने मोरचेव् पं. विद्यानिवास मिश्र के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित चौंतीस निबंधों का संकलन है। ये निबंध पाठक को समाज और संस्कृति के अनेक प्रश्नों से साक्षात्कार कराते हैं। इन निबंधों में देश, काल, परम्परा और भारतीय मानस के प्रति सहज व्याख्या तो है ही और ये निबंध आत्मनिरीक्षण हेतु अभिप्रेरित भी करते हैं।अध्याय “गंगा: आविर्भाव और निरोभावव् में गंगा की कल्याणकारिणी शक्ति का बखान है तो उसकी दुर्दशा तथा उस पर आए संकट की ओर संकेत भी। और यह संकट है “टिहरी बांधव्। कृतिकार ने गंगा की धारा को मोड़ने, रोकने के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत किया है कि इससे तो गंगा अर्थात् जाग्रत देश की प्राण-नाड़ी ही समाप्त हो जाएगी। कृतिकार की मार्मिक पंक्ति बरबस हमारा ध्यान आकर्षित करती है, “मनुष्य का एक तप वह था जिसने धाराओं के द्वार खोले और उसकी लिप्सा का एक आयाम यह है कि उसके द्वार बंद किए जा रहे हैं।व् भगीरथ ने गंगा की उलझी-भटकती धाराओं को एक नयी दिशा दी, जिसका मूल्य कभी नहीं चुकाया जा सकता। और आज मानव स्वार्थ हेतु गंगा के प्रवाह को ही अवरुद्ध कर रहा है।वर्तमान इतिहास-लेखन को अप्रासंगिक मानते हुए पं. विद्यानिवास मिश्र ने पुनराकलन का सुझाव दिया है और इतिहास को राजनीति का खेल बनाये जाने से परहेज करने का मंत्र भी बताया है। इतिहास के उद्देश्य को निरूपित करते हुए वे कहते हैं, “एक स्वस्थ देश-काल की ऐसी चेतना उपजाना है जो कार्य-कारण में बांधे नहीं बल्कि मनुष्य को उसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करती रहे।व् (पृ.सं.79)वैश्वीकरण के बढ़ते खतरे के विषय में लेखक का मत है “ये विचार वस्तुत: विज्ञापन को ही सही सूचना मानने वाली नासमझी का परिणाम है।व् इस कृति का महत्वपूर्ण अध्याय है “कितने मोरचेव्। निबंधकार ने विभिन्न मोरचों को विश्लेषित करते हुए उनसे मोरचा लेने की बात कही है उन्होंने पहला मोरचा हिन्दी के लिए उच्चतम न्यायालय और संसद में लड़ने को माना है। दूसरा मोरचा शिक्षा के माध्यम के रूप में प्राथमिक कक्षा से ही अंग्रेजी को हटाने का है। तीसरा मोरचा उच्च अध्ययन क्षेत्र में अंग्रेजी माध्यम में शोध का विरोध कर हिन्दी में शोध, हिन्दी में कार्य को प्रोत्साहित करना है। व्यवसाय के क्षेत्र में बड़ी तेजी से हिन्दी और देवनागरी का विस्थापन का विरोध चौथे मोरचे की लड़ाई है। अंतिम मोरचा है, हिन्दी को रोमनलिपि में लिखने की हिमाकत करने का विरोध। लेखक ने सभी मोरचों पर लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा है, “देशहित से बढ़कर कोई अन्य हित श्रेयस्कर नहीं होता।व् राष्ट्रभाषा के लिए मिश्र जी कहते हैं- “हिन्दी तो देश की है। देश अंग्रेजी के कारण आंखों से ओझल हो रहा है। इस देश को तो बचाना हैं।व्पुस्तक : कितने मोरचे लेखक : विद्यानिवास मिश्र संपादक : गिरीश्वर मिश्र प्रकाशक : विद्या विहार, 1660 कूचा दखनीरा, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ : 176 – मूल्य : 175 रुपए22
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