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सन् 1917 की बात है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की सहधर्मिणी मां शारदा देवी जयरामवादी (पश्चिम बंगाल) में श्रद्धालुओं को उपदेश कर रही थीं। अचानक उन्हें पता चला कि एक अनाथ विधवा महिला के शरीर का कोई अंग सड़ गया है। दुर्गन्ध के कारण कोई भी उसके पास तक नहीं फटकता।मां ने ठाकुरजी की पूजा बीच में छोड़ दी। नीम के पत्ते उबलवाए तथा अपनी एक भक्त महिला को साथ लेकर रोगी महिला के पास जा पहुंचीं। उन्होंने अपने हाथों से उसका घाव नीम के पानी से धोया। घाव से कीड़े बाहर निकाले तथा अपने भक्तों से कहा- “इसे तुरन्त आश्रम में ले चलो। अनाथ रोगी की सेवा करोगे तो सबको ठाकुर की पूजा से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसका कई गुना पुण्य मिलेगा।” मां के आदेश से अनाथ महिला रोगी को को आलपाड़ा के आश्रम में लाया गया। वहां मां स्वयं उसकी सेवा करतीं, उसे गरम दूध पिलातीं तो वे परम सन्तोष का अनुभव करती थीं। मां ने भक्तजनों के बीच कहा “ठाकुर (रामकृष्ण परमहंस) तथा नरेन्द्र (विवेकानंद) के मिशन का सार यही है कि रोगियों व गरीबों की सेवा मानव का सर्वोपरि कर्तव्य है, परमधर्म है।” प्रतिनिधि15
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