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भारत की राजनीतिअल्पतंत्र में बदलता लोकतंत्रपुस्तक का नाम : भारत की राजनीतिलेखक : बिमल जालानअनुवादक : रजनीश कुमार सिन्हाप्रकाशक : पेंगु11, कम्युनिटी सेन्टर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली-17, पृष्ठ : 218 – मूल्य : 175 रुपएदेश के प्रख्यात अर्थशास्त्री, रिजर्व बैंक आफ इंडिया के पूर्व गवर्नर एवं राज्यसभा सदस्य श्री बिमल जालान ने भारतीय राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं उसकी कमियों को नजदीक से देखा है। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के रूप में उन्होंने भारतीय राजनीति में जो कुछ देखा है उनकी एक झलक इस पुस्तक में मिलती है। भूमिका में स्वयं बिमल जालान लिखते हैं, “मुझे संसद के एक मनोनीत सदस्य के तौर पर राज्यसभा में तीन से अधिक वर्षों तक भारतीय राजनीति के कामकाज को देखने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यहां रहकर मुझे पता चला कि भारतीय राजनीति की मेरी समझ कितनी उथली थी। यों तो, राज्यसभा में आने से पहले एक बड़े अधिकारी की तरह मुझे सरकार में और संसद की समितियों में मौजूद प्रतिष्ठित राजनीतिक नेताओं के साथ बारम्बार मिलने-जुलने और इस तरह के काम करने का अवसर मिल चुका था। फिर भी, संसद के भीतर रहकर संसद के कार्य में भाग लेना एक अलग ही अनुभव रहा है, कभी-कभी काफी सुकूनदायी और आनंद प्रदान करने वाला तो अक्सर उद्विग्न कर देने वाला। भारतीय राजनीति के तल के नीचे काफी कुछ चल रहा है जो एक बाहरी व्यक्ति के संज्ञान में नहीं है, लेकिन जिनका हमारे देश के भविष्य पर ठोस प्रभाव पड़ सकता है। इस पुस्तक का पहला उद्देश्य तो यह बताना है कि संसद में रहते हुए मैंने देश की राजनीति के बारे में कितना कुछ जाना है। यह पुस्तक देश के लोकतंत्र को अधिक स्थिर, पारदर्शी और जवाबदेह बनाने वाले सुझावों को सामने रखती है। ये प्रस्ताव व्यावहारिक हैं और सरकार के संसदीय स्वरूप के अनुरूप हैं। ये प्रस्ताव संविधान में किए गए कुछेक हालिया संशोधनों की भावना से भी अनुकूलता रखते हैं। मैं जानता हूं कि इस पुस्तक में राजनीतिक सुधारों के लिए जो सुझाव दिए गए हैं, उन्हें लागू करना आसान नहीं होगा क्योंकि ये कुछ स्थापित हितों को प्रभावित करते हैं। फिर भी मुझे उम्मीद है कि ये चिंतनशील नागरिकों, राजनीतिक नेताओं, विशेषज्ञों, मीडिया और नानाविध संस्थानों के बीच व्यापक सार्वजनिक बहस को प्रेरित करेंगे।” छठे अध्याय “पुनरुत्थानशील भारत में राजनीतिक सुधार” में राजनीति में सुधार के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं। लेखक का मानना है कि यदि लोकतंत्र को इसी तरह हांका जाता रहा तो वह अल्पतंत्र में बदल जाएगा। समीक्षक17
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