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दिल्ली ब्यूरोकहा जाता है कि इस देश में कभी दूध-दही की नदियां बहती थीं। यह देश कभी सोने की चिड़िया कहलाता था। यहां के लोग सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक व आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध थे। इसका मूल कारण यह था कि यहां के लोगों का मुख्य कार्य खेती था और इसके लिए उनके अपने संसाधन थे, जिनमें गोवंश प्रमुख था। पर जैसे-जैसे खेती आधुनिक होती गई, गोवंश को छोड़कर किसान खेती हर के आधुनिक ट्रैक्टर उपकरणों का प्रयोग करने लगे, गोबर की खाद के स्थान पर उवर्रकों का प्रयोग बढ़ा, परिणामस्वरूप किसानों की परनिर्भरता बढ़ी, वे कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या को मजबूर हुए और देश की आर्थिक स्थिति भले ही आंकड़ों में मजबूत दिखे, पर आम आदमी भीतर से खोखला हुआ। जब दूध-घी के स्थान पर मांस और चमड़े के व्यापार को प्राथमिकता मिले, गाय के दूध के स्थान पर यांत्रिक कत्लखानों में उनके रक्त की नदियां बहें, नई गोशालाओं के स्थान पर नए कत्लखाने खोले जाएं, तो उसका दुष्परिणाम सामने आएगा ही। इस सबका विश्लेषण कर अनेक व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं ने कहा कि इस देश के मूल आर्थिक स्रोत खेती और किसान को बचाना है तो गोवंश को बचाना ही होगा। इसके लिए अनेक संस्थाएं व संगठन गैरसरकारी तौर पर प्रयास कर भी रहे हैं। पर उत्तराखण्ड देश का पहला ऐसा राज्य होगा जहां शासकीय दृष्टि से गोवंश के संरक्षण और संवर्धन का कार्य प्रारंभ किया जा रहा है। उत्तराखण्ड के कृषि एवं पशुपालन मंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने निर्णय किया है कि प्रदेश में गोविज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान खोला जाएगा।श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत का कहना है कि उत्तराखण्ड में देशी गोवंश (पर्वतीय गाय-जो लाल, काले व सफेद रंग की होती है व आकार में छोटी होती है। इसका गोमूत्र चिकित्सकीय उपयोग के लिए सर्वश्रेष्ठ पाया गया है।) सर्वाधिक संख्या में उपलब्ध है, जिसका सदुपयोग किया जा सकता है। देशी गाय के पंचगव्य (दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोमय) के एकल या समग्र रूप में अनेकों प्रयोग मानव-हितकारी व स्वास्थ्यकारी हुए हैं। पिछले कई वर्षों से पंचगव्य (गो-चिकित्सा) पद्धति पर अनुसंधान कार्य किया गया है, जिससे सिद्ध हुआ है कि यह चिकित्सा प्रणाली मानव रोगों में प्रभावी रूप से कार्य करती है व कई असाध्य रोगों के उपचार, रोगथाम व बचाव में उपयोगी पायी गयी है। सन् 2002 व सन् 2005 में गोमूत्र पर इसकी औषधीय उपयोगिता के लिए पेटेन्ट भी लिया गया व कई अन्य पेटेन्ट प्रक्रिया में हैं। ऐसे में पंचगव्य चिकित्सा एक वरदान सिद्ध हो सकती है। किन्तु इसके विस्तृत ज्ञान व वैज्ञानिक प्रमाणीकरण के लिए देश में किसी संस्थान का होना आवश्यक है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऋषिकेश में “गोविज्ञान एवं प्रौद्योगिक संस्थान” की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया है।उल्लेखनीय है कि भारत में देशी गोवंश की 26 नस्लें है। इन नस्लों की विशेषता यह है कि यह दूध देने के साथ ही भार ढोने, खाद के साथ पंचगव्य दवा बनाने में उपयोगी होती हैं। पंचगव्य अर्थात् दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर-गाय द्वारा प्रदत्त यह सभी अवयव कृषि एवं मानव के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। देशभर में अनेक गोशालाएं हैं जिनमें पंचगव्य पर शोध चल रहे हैं और वहां न केवल औषधियों का निर्माण हो रहा है बल्कि दैनिक उपयोग की अनेक सामग्री भी निर्मित की जा रही है। गोमय से निर्मित साबुन व उबटन जहां अनेक प्रकार के चर्मरोगों में लाभदायक सिद्ध हुआ है। वहीं मच्छर भगाने की अगरबत्ती भी शोध के उपरांत उत्पादन की प्रक्रिया में है। इस दृष्टि से देश की दो प्रमुख गोशालाएं- कानपुर और देवलापार (नागपुर) निरंतर प्रयासरत हैं। इन प्रयासों के प्रेरक तथा मार्गदर्शक हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य श्री ओम प्रकाश।भारत में लगभग 4 हजार गोशालाएं हैं, जिनमें से लगभग 100 गोशालाएं पंचगव्य औषिधियां बनाती हैं। हर व्यक्ति इन औषधियों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखना चाहता है। अत: यह आवश्यक है कि पंचगव्य (गो-चिकित्सा) पर आधुनिक तकनीकी की सहायता से अनुसंधान हों व ये औषधियों वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित सिद्ध हों।देश भर में आयोजित कई गोष्ठियों, परिचर्चाओं व बैठकों में इस बात की आवश्यकता महसूस की गयी कि पंचगव्य औषधियों का मानकीकरण किया जाए। क्योंकि मुक्त अर्थव्यवस्था व प्रतिस्पर्धा के चलते इन औषधियों पर विस्तृत अध्ययन व मानकीकरण करने के बाद ही आम आदमी को इसके प्रयोग के लिए प्रेरित किया जा सकेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन है कि सन् 2020 तक प्रतिजैविक दवाओं (एन्टीबायोटिक्स) की क्रियाशीलता खत्म हो जाएगी। उसके पश्चात संक्रमणों को रोकने के लिए वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली की आवश्यकता होगी।गोमूत्र के कुछ अनुसंधानों के परिणामस्वरूप निम्नलिखित वैज्ञानिक तथ्य सामने आए हैं-थ् यह शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाता है, अत: रोगों से बचा जा सकता है।थ् इसका प्रभाव कैन्सर को ठीक करने में सहायक हो सकता है।थ् इससे प्रजनन क्षमता बढ़ती है। शरीर में किसी कारण बिगड़े डी.एन.ए. अवयव को सुधारा जा सकता है।थ् यह कोशिकाओं का क्षरण रोकता है।थ् इससे मुर्गियों की जनन क्षमता बढ़ जाती है।थ् यह प्रतिजैविक (एन्टीबायोटिक) दवाओं की क्रियाशीलता बढ़ा देता है।थ् देशी गाय के मूत्र में रसायन तत्व बहुतायत में पाए जाते हैं, जो शरीर को पुष्ट करते हैं।इस सब पर विचार करने के बाद उत्तराखण्ड के कृषि एवं पशुपालन विभाग ने गोविज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने का निर्णय लिया है। इस प्रस्तावित संस्थान के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित होंगे-थ् पंचगव्य औषधियों पर अनुसंधान कार्य कर उन्हें वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करना।थ् पंचगव्य अथवा गो-चिकित्सा प्रणाली में प्रयुक्त औषधियों का मानकीकरण करना व इन मानकीकरणों का राष्ट्रीय मानक ब्यूरो का मानक प्रदान कराना।थ् भारतीय मानक ब्यूरो को पंचगव्य औषधियों की गुणवत्ता बनाए रखने में सलाहकार का कार्य करना।थ् पंचगव्य औषधियों के मानकीकरण, शोध आदि से सम्बधित विषयों पर सभी सरकारी, गैरसरकारी व निजी संस्थाओं से संवाद स्थापित करना व अनुसंधान एवं विकास कार्य को गति देना।इस संस्थान की विस्तृत रूपरेखा बताते हुए कृषि एवं पशुपालन विभाग के मंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कहा कि इसमें प्रमुख रूप से चार विभाग होंगे (क) जैव रसायन व आण्विक जैविकी विज्ञान विभाग। (ख) भेषजगुण व विष विज्ञान विभाग। (ग) प्रतिरोधी क्षमता व विकृति विज्ञान विभाग। (घ) औषधि, कृषि एवं विस्तार विभाग। श्री रावत के अनुसार प्रत्येक विभाग के कार्यों को भी निर्धारित कर दिया गया है। यह निम्न प्रकार से होंगे-(अ) जैव रसायन व आण्विक जैविकी विज्ञान विभागक. गोमूत्र, गोमय आदि का रासायनिक विश्लेषणख. रासायनिक फिंगर प्रिन्ट बनाना।ग. गुणवत्ता बढ़ाना व उसका रासायनिक फिंगर प्रिन्ट बनाना।च. मानक तैयार करना।(आ) भेषजगुण व विष विज्ञान विभागक. पंचगव्य पदार्थों का शरीर व भेषजगुण देखना।ख. औषधि की मात्रा का विषैला प्रभाव देखनाग. नये-नये उत्पाद बनाना तथा उनमें गुणवत्ता सुधार करना।घ. नए उत्पादों का शरीर पर प्रभाव देखना।च. गोमूत्र का विष निष्प्रभावीकरण प्रभाव देखना।(इ) प्रतिरोधी क्षमता व विकृति विज्ञान विभागक. रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने सम्बंधी अध्ययन करना।ख. पंचगव्य पदार्थों का जीन पर प्रभाव देखनाग. पंचगव्य पदार्थों का प्रयोगशाला में जीवों पर अध्ययन करनाघ. पंचगव्य पदार्थों का प्रतिरोधी क्षमता विकृति में प्रभाव देखनाच. पंचगव्य पदार्थों से शरीर में स्थूल व सूक्ष्म परिवर्तन का अध्ययन(ई) औषधि, कृषि एवं विस्तार विभागक. पंचगव्य औषधियों के चिकित्सकीय परीक्षण करनाख. आंकड़ों का संग्रह व विश्लेषण करना।ग. औषधालय विकसित कर जन सामान्य का उपचार करना।घ. पंचगव्य चिकित्सा पद्धति का दूरदर्शन, रेडियो व अन्य माध्यमों द्वारा प्रसार-प्रचार करनाच. कृषि में महत्व स्थापित करना व खेतों पर किसानों को दिखाना।छ. जन सामान्य से सुझाव व परामर्श लेनाज. युवक, विशेषकर खेती से जुड़े लोगों को प्रशिक्षण देना।झ. देशी गोवंश के संरक्षण, संवर्धन हेतु अनुसंधान करना।प्रस्ताव में इस संस्थान के प्रशासनिक तथा वैज्ञानिक रूप की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इस संस्थान का एक निदेशक होगा। चारों विभागों में प्रत्येक में एक प्रधान वैज्ञानिक व अध्यक्ष के साथ 2-2 वरिष्ठ वैज्ञानिक, 4-4 अध्येताओं की नियुक्ति की जाएगी। इस संस्थान की स्थापना में पांच वर्ष के लिए लगभग 20 करोड़ रूपए खर्च होंगे, जिसमें भूमि, भवन, उपकरण, वेतन आदि सभी आवश्यकताएं पूरी हो जाएंगी। यह चरणबद्ध तरीके से संस्थान की स्थापना के बाद किया जाएगा। इस प्रस्तावित संस्थान के लिए भूमि पशुलोक (ऋषिकेश) में आवंटित की जा सकती है। वहां पशुपालन विभाग के पास लगभग 60 एकड़ भूमि है, जिसमें से 40 एकड़ भूमि इस संस्थान के लिए उपलब्ध कराए जाने की संभावना है।34
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