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जनरल का नया पैंतरा!-मुजफ्फर हुसैनन्यायपालिका और मीडिया से छेड़छाड़ के पश्चात् पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने निर्वाचन आयोग के माध्यम से अपना सत्ता कायम करने का खेल प्रारम्भ किया है। मुशर्रफ को समय के साथ इस बात का अहसास होता जा रहा है कि अब सेना के घोड़े पर सवार होकर वे पाकिस्तान पर राज नहीं कर सकते। राष्ट्रपति अथवा सेनापति के रूप में सेना उनके आदेश का पालन कर सकती है, लेकिन अब सेना निहत्थी जनता पर न तो गोली चला सकती है और न ही उन्हें उनका विरोध करने से रोक सकती है। इसलिए मुशर्रफ को अब सेना की नहीं बल्कि जनता की मान्यता की आवश्यकता है। मगर जनता मुशर्रफ को चुनती है या नहीं, यह अभी नहीं कहा जा सकता। उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग को संसद में बहुमत मिलता है या नहीं, यह भी भविष्य के गर्भ में है।मुशर्रफ इस तथ्य से भली प्रकार परिचित हैं कि जो सत्ता में आता है वह पिछली सरकार को कटघरे में खड़ा कर देता है। प्रतिशोध का ऐसा सिलसिला प्रारम्भ होता है कि या तो वह व्यक्ति जिसे निशाना बनाया जा रहा है देश से पलायन कर जाता है या फिर भुट्टो बनाकर उसे फांसी पर लटका दिया जाता है। यही भय मुशर्रफ को पाकिस्तान में चुनाव कराने से रोक रहा है। पाकिस्तान के वर्तमान स्थिति से उबरने के तीन ही सम्भावित रास्ते हैं। एक, मुशर्रफ के स्थान पर कोई नया जनरल आ जाए। दो, पाकिस्तान का तालिबानीकरण करने के लिए मुशर्रफ तैयार हो जाएं और स्वयं को ओसामा या मुल्ला उमर की श्रेणी का खलीफा घोषित कर दें। तीसरा यह कि मुशर्रफ अपने वायदे के अनुसार, 2007 के नवम्बर में चुनाव करवाकर सत्ता जनता को सौंप दें। तब तक मुशर्रफ को अमरीका कुछ और दिनों के लिए राज करने का लायसेंस दे दे। लेकिन समस्या यह है कि अब अमरीका को भी मुशर्रफ पर पहले की तरह भरोसा नहीं रहा है।अमरीका ने न्यायमूर्ति इफ्तिखार चौधरी को समझाने के लिए अपना एक दूत भेजा था, लेकिन मामला पटरी पर नहीं आ सका। अमरीका को जन आन्दोलन का आभास हो गया और उसने मुशर्रफ के लिए कोई समझौता करने से इनकार कर दिया।जहां तक पाकिस्तान को तालिबानों की कृपा पर छोड़ने का सवाल है, यह केवल एक काल्पनिक बात है, क्योंकि अफगानिस्तान में जो स्थिति थी वह पाकिस्तान में नहीं है। पाकिस्तान की जनता न तो पाकिस्तान को इराक बनने देगी और न ही अफगानिस्तान। भारत को शिकंजे में कसने के लिए और यहां की सरकार को अस्थिर करने के लिए पाकिस्तान के मुजाहिद्दीन जिहादी बनकर भारत में घुस सकते हैं लेकिन उनमें न तो ऐसी शक्ति है और न ही पाकिस्तान की जनता स्वयं को आतंकवादियों का देश बनाने के लिए तैयार है।पाकिस्तान के राजनीतिक दल इसके लिए तैयार नहीं हैं कि परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व में चुनाव हों। इसलिए उनकी मांग है कि मुशर्रफ सेना की वर्दी उतार दें, जनता के प्रतिनिधि बनकर चुनाव लड़ें और फिर नई संसद एवं विधानसभाओं के लिए निर्वाचन का आदेश दें। एक बार जनतंत्र की स्थापना और चुनाव कराने का निर्णय हो भी जाए तब भी क्या किसी को यह विश्वास होगा कि पाकिस्तान में मुशर्रफ के रहते जो चुनाव होंगे वे निष्पक्ष ही होंगे? पाकिस्तान में स्वायत्त एवं स्वतंत्र निर्वाचन आयोग है फिर भी जनता को उस पर विश्वास नहीं है। इस सम्बंध में दैनिक डान ने जो सम्पादकीय लिखा है वह स्थिति को भली प्रकार स्पष्ट कर देता है- “यह बात हैरानी में डालने वाली है कि अगले आम चुनाव में मतदाताओं की संख्या पिछले आम चुनावों से कम होने जा रही है। यह बात तब और भी हैरान करती है कि जब सारा देश जानता है कि मुल्क की आबादी में इन पांच सालों के दौरान बड़ी मात्रा में बढ़ोत्तरी हुई है।”देश के इतिहास में पहली बार कम्प्यूटरीकृत मतदाता सूची तैयार की गई है। सम्पूर्ण पाकिस्तान में 45,403 केन्द्रों पर इन्हें प्रदर्शित किया गया है। खबरों में कहा गया है कि सन् 2002 की सूची की तुलना में इस बार एक करोड़ 20 लाख मतदाता कम हैं। पिछली बार पाकिस्तान में सात करोड़ 20 लाख मतदाता थे और इस बार इनकी संख्या छह करोड़ ही रह गई है! चुनाव आयोग का कहना है कि केवल उन्हीं मतदाताओं के नाम सूची में शामिल किए हैं जिनके पास मतदाता परिचय पत्र थे। इसका उद्देश्य बोगस मतदाताओं को बाहर करना था। लेकिन चुनाव आयोग के इस तर्क पर कोई विश्वास करने के लिए तैयार नहीं है। लोगों का मानना है कि इस सारी कवायद का मतलब चुनाव नतीजों को प्रभावित करना है। स्पष्ट है कि इसका लाभ सत्ता पक्ष को ही मिलने वाला है। बोगस मतदान तो सभी जगह होता है लेकिन मतदाताओं के नाम सूची से निकालने के पीछे अनेक कारण हैं। इसी सूची के अनुसार चुनाव हुए तो वे कभी निष्पक्ष नहीं हो सकते हैं। सत्ता में बैठे लोगों ने बिना चुनाव के ही आधा मैदान जीत लिया है। कई स्थानों पर तो अनेक प्रभावशाली विपक्षी नेताओं के नाम भी गायब हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग अपने प्रत्याशियों को कहां से चुनाव लड़ाएगी और उनके सामने कौन खड़ा होगा, इस रणनीति के अंतर्गत यह सारा खेल खेला गया है। फिलहाल पाकिस्तान की प्रमुख पार्टियों के सामने सम्पूर्ण सूची नहीं आई है। लेकिन चुनाव घोषित होते ही यह मसला तेजी से उठेगा। इसके विरुद्ध जनाक्रोश पैदा होगा। तब परवेज मुशर्रफ और उनके साथियों को चुनाव को आगे टाल देने का एक और बहाना मिल जाएगा। पाकिस्तान के सत्ताधीश स्वयं को लोकतांत्रिक बाने में प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन भीतर से उनका इरादा कुछ और है। चुनाव में धांधली पाकिस्तान में कोई नई बात नहीं है।सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान की सेना निष्पक्ष चुनाव में सबसे बड़ा रोड़ा है। यदि ऐसा नहीं होता तो 1969 के आम चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और जुल्फिकार अली भुट्टो की बेईमानी न चलती और पाकिस्तान नहीं टूटता। उक्त चुनाव में मुजीबुर्रहमान की पार्टी आवामी लीग सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, मगर पश्चिमी पाकिस्तान के स्वार्थी नेताओं ने मुजीब को सत्ता नहीं सौंपी। चुनाव की धांधली एक बार पाकिस्तान को तोड़ चुकी है। भविष्य में मुशर्रफ और उनकी सेना का क्या इरादा है, यह कह पाना कठिन है।29
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