|
कहां पिछड़े हैं अल्पसंख्यक ?-मुजफ्फर हुसैनदेश में इन दिनों सच्चर कमेटी की रपट की बहुत चर्चा है। कहा जा रहा है कि भारत सरकार सच्चर कमेटी की सिफारिशों को अक्षरश: लागू करने जा रही है। इस रपट पर जगह-जगह गोष्ठियां हो रही हैं, जहां मुसलमानों की “गरीबी”, “बेबसी” और “लाचारी” पर आंसू बहाए जा रहे हैं। कांग्रेस के लिए तो यह मुसलमानों के वोट प्राप्त करने का एक चुनावी घोषणा पत्र बन गया है। साम्यवादी और समाजवादी भी मुसलमानों के पिछड़ेपन पर मगरमच्छी आंसू बहाकर सत्ता को सरलतापूर्वक हथिया सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया है। उसका कहना है कि सच्चर कमेटी की रपट झूठ के पुलिंदे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मुसलमानों की बदहाली पर छाती पीटने के लिए कांग्रेस सच्चर कमेटी से पहले भी इसी प्रकार के दो बार प्रयास कर चुकी है। मुसलमान उसके झांसे में आ जाते हैं, क्योंकि कुछ ऐसे नेता और बुद्धिजीवी कांग्रेस के पास हैं जो मुसलमानों से झूठे वादे करके उनके वोटों का सौदा कर लेते हैं। पर सच्चाई यह है कि सच्चर रपट का भांडा अब फूटता जा रहा है। देश में कुछ बुद्धिजीवी और खोजबीन करने वाली एजेंसियों ने ऐसे तथ्य एकत्रित किये हैं, जिनसे सच्चर कमेटी की पोल खुल जाती है।भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए यहां भूमि सबसे महत्वपूर्ण सम्पत्ति मानी जाती है। इस देश पर मुसलमानों का लगभग सात सौ वर्षों तक राज रहा। दिल्ली की सरकार के अतिरिक्त नवाब और मुस्लिम जागीरदारों की संख्या भी कम नहीं रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, गुजरात और आंध्र प्रदेश में मुस्लिम जागीरदारों का बोलबाला रहा है। सिंध में तो आज भी अनेक जमींदारों के पास इतनी कृषि योग्य भूमि है कि वे वहां के “वुडेरे” कहलाते हैं। उनके खेत मजदूरों को “हारी” की संज्ञा दी जाती है। गुलाम मुस्तफा जितोई, जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे हैं, के पास इतनी जमीन है कि उस पर से किसी रेल को गुजरने में कम से कम 6 घंटे का समय लगता है। वास्तविकता तो यह है कि इन्हीं भूपतियों के कारण पाकिस्तान बना।सच्चर कमेटी ने मुसलमानों की गरीबी और पिछड़ेपन के अनेक आधार दिये हैं। लेकिन यह नहीं बताया कि बहुसंख्यक समाज की तुलना में मुसलमानों के पास कितनी कम या अधिक जमीन है? बंटवारे के समय पाकिस्तान को उसकी जनसंख्या की तुलना में 6 गुना अधिक जमीन मिली। यानी भारत इस मामले में पाकिस्तान की तुलना में गरीब और अभावग्रस्त रहा। मुस्लिम समाज को सच्चर कमेटी बहुसंख्यक समाज की तुलना में गरीब और साधन-विहीन बताती है जबकि सच्चाई यह है मुस्लिम भारत के अनेक राज्यों में बहुसंख्यक समाज की तुलना में भूमि के मामले में अग्रणी हैं। गुजरात और राजस्थान के आंकड़े देख लीजिए। वामपंथियों की सरकार का कहना है कि बंगाल में भी यह अंतर बहुत कम है। राजस्थान में एक मुस्लिम परिवार के पास औसतन 3.33 हेक्टेयर जमीन है जबकि एक हिन्दू परिवार के पास औसतन 2.73 हेक्टेयर भूमि हैं। गुजरात में एक मुस्लिम परिवार के हिस्से में औसतन 1.46 हेक्टेयर भूमि हैं जबकि एक हिन्दू परिवार के पास औसतन 1.41 हेक्टेयर जमीन है। बंगाल विभाजन के पश्चात् मुस्लिम बड़ी संख्या में आज के बंगलादेश में पलायन कर गये थे इसलिए यहां भी हिन्दुओं के पास भूमि अधिक होनी चाहिए थी। लेकिन वामपंथी सरकार के अधिकृत प्रकाशन “पीपुल्स डेमोक्रेसी” के अनुसार मुस्लिमों के पास 0.30 हेक्टेयर भूमि है जबकि हिन्दुओं के पास 0.46 हेक्टेयर। केरल में लगभग दोनों समुदायों के पास समान भूमि है। कश्मीर में, जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, मुस्लिमों के पास 0.59 हेक्टेयर भूमि है, वहीं हिन्दुओं के पास 1.52 हेक्टेयर भूमि। हिन्दुओं के पलायन के पश्चात् उनकी जमीन के मालिक मुसलमान बन गए हैं। इसलिए आज नहीं तो कल, यह तथ्य सामने आएगा कि मुसलमानों के पास तुलनात्मक रूप में जमीन अधिक होगी। कश्मीर से हिन्दुओं को भगाए जाने के पीछे यही मुख्य कारण है। सच्चर कमेटी ने भूमि के मामले में सच्चाई जानने की कोशिश की होती तो वह एक न्यायिक बात हो सकती थी। इस आधार पर गरीबी को रेखांकित किया जा सकता था। जहां मुसलमानों के पास भूमि कम है वहां उनकी गरीबी समझ में आ सकती है, लेकिन सच्चर कमेटी ने जहां मुस्लिमों के पास अधिक भूमि है उसके आंकड़े प्रस्तुत कर दूध का दूध और पानी का पानी क्यों नहीं किया? उपरोक्त खोज और जांच-पड़ताल के आंकड़े साम्यवादी पत्रिका ने प्रस्तुत किए हैं इसलिए मुस्लिम नेता उसे न स्वीकार करें, यह असम्भव है।अब एक नजर शिक्षा जगत में मुस्लिमों की स्थिति पर डालें। आंध्र प्रदेश में 69.5 प्रतिशत हिन्दू पढ़े-लिखे हैं, जबकि शिक्षित मुस्लिमों की संख्या 76.5 प्रतिशत है। गुजरात में मुस्लिमों की शिक्षा का प्रतिशत 82.9 है जबकि हिन्दू 79.1 प्रतिशत पढ़े-लिखे हैं। यदि महिला शिक्षण के आंकड़े देखें तो वहां भी बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों की तुलना में पिछड़े हैं। आंध्र में 59.1 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं शिक्षित हैं जबकि 49.2 प्रतिशत हिन्दू महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं। इसी प्रकार गुजरात में अल्पसंख्यक महिलाओं का पढ़ा लिखा वर्ग 63.5 प्रतिशत है, इसकी तुलना में बहुसंख्यक महिलाएं 56.7 प्रतिशत ही शिक्षित हैं। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि मध्य प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और तमिलनाडु की भी यही कहानी है। जहां यह कहा जाता है कि अशिक्षित होने के कारण मुस्लिम महिलाएं पिछड़ी हुई हैं और तलाक तथा बहुविवाह जैसी कुप्रथा की शिकार हैं, तब इस बात पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि यदि शिक्षा ही जागरूकता का सबसे बड़ा पैमाना है तो फिर इन प्रदेशों में मुस्लिम महिलाओं को उदारवादी और प्रगतिशील होना था। क्या शिक्षा से भी अधिक प्रभावी वे मौलाना हैं जो अपने मजहब की आधारहीन व्याख्या के बूते इन शिक्षित अल्पसंख्यक महिलाओं को भी गुलामी का जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करते हैं। केरल के आंकड़े दर्शाते हैं कि वहां 93.7 प्रतिशत मुस्लिम पुरुष साक्षर हैं, जब कि पढ़े-लिखे हिन्दू पुरुष 93.8 प्रतिशत हैं।दोनों वर्गों में समान साक्षरता है इसके बावजूद केरल में भी तलाक का वही प्रतिशत है जो उत्तर प्रदेश में है। वहां भी मजहब के नाम पर मुस्लिम परिवार नियोजन से परहेज करते हैं। नि:संदेह कोई पूछ सकता है कि इन आंकड़ों की विश्वसनीयता क्या है?उत्तर है 2001 की जनगणना के आंकड़े। पहली बार पंथ के आधार पर महिलाओं और पुरुषों के आंकड़े हमारी जनगणना के दस्तावेज में प्रस्तुत किए गए हैं। महेन्द्र के. प्रेमी ने अपनी पुस्तक “पापुलेशन आफ इंडिया इन न्यू मिलेनियम सेन्सेस 2001” में उक्त रहस्यों को उजागर किया है। श्री प्रेमी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के डेमोग्रेफी विभाग में प्राध्यापक रह चुके हैं। प्रसिद्ध जनसांख्यिकी विशेषज्ञ आशीष बोस का कहना है कि उक्त पुस्तक में जो जानकारी है उससे सिद्ध हो जाता है कि मुसलमानों की स्थिति इतनी खराब नहीं है जितनी कि सरकार और हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी बताते हैं। इन विद्वानों का कहना है कि जनगणना जैसे राष्ट्रीय दस्तावेज को अपना वोट बैंक बना कर पेश करना ठीक नहीं है। इससे उन लोगों का भला नहीं होगा जिन्हें कमजोर और पिछड़ा बता कर वे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं। जनगणना के स्पष्ट आंकड़ों को राजनीतिक अखाड़ा बनाना बेशर्मी की हद है। सवाल उठता है कि जो लोग मुसलमानों की हमदर्दी में उनके अशिक्षित और गरीब होने का रोना रोते हैं उन्हें इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि बहुसंख्यक भी इस मामले में कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं। यदि बहुसंख्यक समाज कर्मठ और आत्मनिर्भर बनकर अपने जीवन को सुचारू रूप से चला सकता है और उसे प्रगतिशील बना सकता है तो फिर अल्पसंख्यक समाज क्यों नहीं? हिन्दुओं को आज दोष दिया जाता है मगर जिस समय मुगल बादशाहों का राज था उस समय तो मुस्लिम समाज की स्थिति आज से भी बदतर थी।23
टिप्पणियाँ