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असम का स्वतंत्रता संग्राम-देवेन्द्र चन्द्र दासभारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के डेढ़ सौ वर्ष पूर्ण होने पर देशभर में विभिन्न प्रकार के आयोजन जोर-शोर से हो रहे हैं। गत 10 मई को मेरठ से इनका शुभारंभ हुआ है। शहीदों के प्रति श्रद्धा निवेदन के साथ ही देश की युवा पीढ़ी को अपने देश के लिए समर्पित भाव से काम करने का आह्वान भी किया जा रहा है। सन् 1857 में मंगल पाण्डे ने एक अंग्रेज सेना अधिकारी को गोली मार दी थी। उस समय तक मंगल पाण्डे अंग्रेजी सेना में थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम इस बगावत की घटना से शुरू हुआ, ऐसी प्रचलित मान्यता है। परंतु क्या यह वास्तव में ऐतिहासिक सत्य है?अंग्रेजों के विरुद्ध अपने अधिकारों के लिए संघर्ष और उसमें बलिदान देने वालों का संदर्भ जब आता है तब हम पाते हैं कि सन् 1828 ई. में इस संग्राम की शुरुआत असम में हो गई थी। उल्लेखनीय है कि सन् 1826 ई. में तत्कालीन वर्मा (वर्तमान म्यांमार) के राजा के साथ हुए समझौते के कारण असम अंग्रेजों के आधीन हो गया था। पर अंग्रेजों की करतूत देखकर दो वर्ष बाद अर्थात सन् 1828 में धनंजय बरगोहांई के नेतृत्व में अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए आन्दोलन प्रारंभ हुआ। धनंजय का मुख्य सहयोगी था आहोम राजकुमार गोमधर कोंवर। इन दोनों ने असम के मैदानी इलाकों में ही नहीं अपितु पूर्वोत्तर भारत के गिरिवासियों, वनवासियों को भी सम्मिलित कर अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत की। धनंजय के प्रयासों से आहोम राजवंश ने अपना राज्य वापस अपने हाथों में लेने के लिए गोमधर कोंवर को राजा बनाया। ठीक उसी तरह जिस तरह सन् 1857 के विद्रोह में बहादुर शाह जफर को राजा बनाया गया था। जोरहाट के पास बाचा नामक स्थान पर गोमधर का अभिषेक किया गया। उन्होंने विभिन्न जाति, उपजाति, गिरिवासी, वनवासी युवकों को एकत्रित कर एक सेना दल का गठन किया और सन् 1828 में अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। अंग्रेजी सिपहसलार लेफ्टिनेंट रूथार फोर्ड की सेना के साथ उनका घमासान युद्ध हुआ। उस युद्ध में धनंजय को बन्दी बना लिया गया। गोमधर किसी प्रकार भाग निकले और नागा पहाड़ी पर चले गये। अंग्रेजों ने धनंजय और उनके साथियों पर न्याय का नाटक करते हुए मुकदमा चलाया। फिर धनंजय को प्रमुख अपराधी मानकर मृत्युदण्ड का आदेश दिया। परंतु धनंजय किसी प्रकार जेल से निकल भागे।इस बीच गोमधर नागा पहाड़ से वापस आकर अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए फिर से तैयारी करने लगे। धनंजय भी आकर उनके साथ मिल गए। फिर से लोगों को एकत्र कर सेना दल का गठन किया गया। धनंजय के दो पुत्र हरकांत व हेमनाथ के साथ ही उनके मामा जिउराम दुबलिया बरुवा भी शामिल हुए। बदल बरफूकन का पुत्र पियलि फूकन भी सेना दल में शामिल हो गया। अंग्रेज पहले से सतर्क थे। रंगपुर नामक स्थान पर अंग्रेजों ने शस्त्रों का बड़ा भण्डार बनाया था। स्वतंत्रता सेनानी अत्यंत उत्साह के साथ तैयार थे, पर अंग्रेज सेनाधिकारी सतर्क होकर विद्रोहियों पर नजर रखे हुए थे।आखिर सेना दल ने 25 मार्च, सन् 1830 को रंगपुर पर आक्रमण कर दिया। पियलि फूकन के नेतृत्व में अंग्रेजों के शस्त्र भण्डार पर कब्जा करने की योजना थी। शस्त्र भण्डार पर कब्जा न कर पाने की स्थिति में उसे आग के हवाले कर दिया गया। पर इस आक्रमण के समय अंग्रेजों ने पियलि फूकन को बन्दी बना लिया। उधर जिउराम दुबलिया बरुवा के नेतृत्व में दूसरी ओर से आक्रमण हुआ। वहां भी घमासान लड़ाई के बाद जिउराम बन्दी बना लिए गए। पियलि फूकन और जिउराम दुबलिया बरुवा को पकड़ कर शिवसागर लाया गया और दोनों को देशद्रोही ठहरा कर एक साथ फांसी पर लटका दिया गया। इस आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत सन् 1828 में असम से हुई थी और पियलि फूकन तथा जिउराम दुबलिया बरुवा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रथम शहीद थे।सन् 1857 में बड़े पैमाने पर, देशभर में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन हुआ, इसलिए उसे ही प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन माना जाता है। पर उससे पूर्व ही असम या देश के अन्यत्र भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने, बलिदान देने वालों का स्मरण करना भी बहुत जरूरी है। इस दृष्टि से भारत के इतिहासकारों और विद्वानों के साथ ही भारत की सरकार को भी चाहिए कि वह इन भूले-बिसरे क्रांतिकारियों, आंदोलनकारियों, बलिदानियों का इतिहास एकत्र कर प्रकाशित करे।15
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