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सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में देश में पुलिस सुधार के लिए लगभग 10 वर्ष पूर्व याचिका दायर की थी, जिस पर न्यायालय ने कार्रवाई करते हुए राज्यों को पुलिस बल में कुछ उपचारात्मक कदम उठाने के निर्देश दिए हैं। श्री सिंह का कहना है कि अगर इन आदेशों का सभी राज्य सरकारें ठीक से पालन करें तो देश में पुलिस की तस्वीर बदल सकती है मगर ज्यादातर राज्य इस विषय की अनदेखी कर रहे हैं। पुलिस सुधार पर श्री सिंह ने 30 मई, 2007 को नई दिल्ली के इंडिया इन्टरनेशनल सेन्टर में व्याख्यान दिया था। यहां हम उनके उसी व्याख्यान को आलेख के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सं.–प्रकाश सिंह, पूर्व महानिदेशक, सीमा सुरक्षा बलपुलिस सुधार एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है जिस पर आजादी के 60 साल बीत जाने पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। एक पूर्व पुलिस अधिकारी के नाते मेरा मानना है कि भारत में पुलिस सुधार अविलम्ब होना चाहिए ताकि विश्व का दूसरा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश आंतरिक सुरक्षा में भी सुदृढ़ हो। हमने काफी समय पहले यह बीड़ा उठाया था कि देश के पुलिस तंत्र में ऊपर से नीचे तक पुनर्संयोजन हो और इसके लिए जब राजनीतिक नेतृत्व ने आना-कानी की तो हमें देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। सौभाग्य से न्यायालय ने इस विषय पर गंभीरता दिखाई है और काफी हद तक विभिन्न राज्यों में पुलिस तंत्र के सुधार हेतु आवश्यक दिशानिर्देश जारी किए हैं। मगर खेद है कि अधिकांश राज्यों ने इस मुद्दे पर नकारात्मक रवैया ही दर्शाया है। राजनीतिक दल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस दिशा में बढ़ना ही नहीं चाहते। साथ ही, देश में अब तक जितनी भी सरकारें आई हैं, सबने इस विषय में ढिलाई ही दिखाई है। कोई भी राजनीतिक दल आगे नहीं आना चाहता। राजनीतिक नेतृत्व की इस कमजोरी पर दु:ख होता है।हमने जो सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की हुई है उसमें भी समय-समय पर नई-नई चीजें जोड़ी हैं। 1996 में हमने जो मूल याचिका दायर की थी, आज तक की स्थिति में उसमें काफी बदलाव आ चुका है। सरकार ने पुलिस सुधार पर सोराबजी कमेटी गठित की थी, उसने जो काम किया है उसके अनुसार भी याचिका में सुधार किए जाते रहे। मेरा उद्देश्य यही रहा कि सर्वोच्च न्यायालय को अपना निर्देश देने में कोई समस्या आड़े न आए। और यही हुआ भी। सर्वोच्च न्यायालय ने हमारी याचिका में वही-वही बिन्दु पाए जो राष्ट्रीय पुलिस आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, रिबैरो कमेटी, पद्मनाभैया कमेटी, मालिमथ कमेटी ने अपनी रपट में लिखे थे और जिन पर सोराबजी कमेटी काम कर रही है। इसके कारण सर्वोच्च न्यायालय के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना आसान हो गया था। अब 10 साल बाद अदालत ने फैसला सुनाया है।मोटे तौर पर सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधार की मेरी याचिका पर फैसला दिया है जो तीन संस्थागत बदलावों के संदर्भ में है। पहला है, हर प्रदेश में राज्य सुरक्षा आयोग का गठन, जो एक ओर तो यह सुनिश्चित करेगा कि पुलिस कानून के तहत ही काम करे और से दूसरी ओर, यह भी देखेगा कि सरकार की ओर से पुलिस पर कोई बाहरी दबाव न हो। दूसरा, पुलिस संस्थापन बोर्ड गठित हो, जिसमें पुलिस महानिदेशक के अतिरिक्त चार वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होंगे। यह पुलिस विभाग को पूरी तरह स्वायत्तता प्रदान करेगा। क्योंकि इस बोर्ड के पास ही उप पुलिस महानिरीक्षक पद तक के स्थानांतरण और तैनाती के अधिकार होंगे। तीसरा, पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन, राज्य और जिला स्तर पर। राज्य स्तर पर इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश करेंगे, और जिला स्तर पर पूर्व जिला व सत्र न्यायायाधीश अध्यक्ष होंगे। इनको 3-4 लोगों को दल सहयोग करेगा।सर्वोच्च न्यायालय के इन दिशानिर्देशों के बाद अनेक राज्य सरकारों ने तर्क देना शुरु कर दिया कि उनके यहां पुलिस के खिलाफ शिकायतों को देखने के लिए अपनी व्यवस्थाएं हैं। मगर सवाल यह है कि क्या ये व्यवस्थाएं कारगर रही हैं? क्या पुलिस के खिलाफ शिकायतें कम हुई हैं? क्या उन शिकायतों पर सही प्रकार से ध्यान दिया गया है? यह भी महसूस किया गया कि पुलिस महकमे का न्यायिक पर्यवेक्षण शायद पुलिस तंत्र के कार्य में ज्यादा पारदर्शिता ला सकता है।इन तीन बदलावों के आदेश के अलावा चौथा बिन्दु था पुलिस महानिदेशक के चयन का। अब तक यह मुख्यमंत्री के ही विशेषाधिकार के अंतर्गत था। मगर आगे भी यह मुख्यमंत्री के ही विशेषाधिकार में रहेगा, अंतर केवल इतना आएगा कि चयन का कैनवास जरा सीमित हो जाएगा। यानी मुख्यमंत्री को तीन नामों का एक पैनल सुझाया जाएगा, जो संघ लोक सेवा आयोग द्वारा तैयार किया जाएगा। इन तीन अधिकारियों में से ही किसी एक का नाम मुख्यमंत्री को तय करना होगा। इस प्रक्रिया से जो अधिकारी पुलिस महानिदेशक बनाया जाएगा उसका कम से कम दो साल का कार्यकाल रहेगा। लेकिन इस दौरान अगर उस व्यक्ति के खिलाफ किसी तरह के आरोप लगें तो उसे हटाने का भी प्रावधान है। आई.जी., डी.आई.जी, एस.पी., एस.एच.ओ.स्तर के अधिकारियों के कार्यकाल भी कम से कम दो साल के होंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश भी दिया है कि जांच और शांति व्यवस्था, दोनों तरह के कार्य अलग-अलग किए जाएं। इससे जांच पक्ष में आती जा रही गिरावट थमेगी।राज्य सरकारों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्यत: ये छह दिशानिर्देश हैं। केन्द्र सरकार के लिए भी आदेश है कि राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए, जिसमें गृहमंत्री, गृहसचिव तथा केन्द्रीय पुलिस संगठनों के प्रमुख शामिल हों। साथ ही इसमें कुछ रक्षा विशेषज्ञ भी हों। यह आयोग अद्र्धसैनिक बलों में बेहतर समन्वय देखेगा तथा उनके उचित संचालन के लिए सुझाव भी देगा। सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट निर्देश था कि 31 दिसम्बर, 2006 तक इन आदेशों का पालन हो। मगर कुछ राज्यों ने तो ना-नुकुर करते हुए अंतिम तिथि 31 मार्च, 2007 तक बढ़वा दी। 31 मार्च के बाद इस मामले की हाल ही में पुन: समीक्षा की गई। ताजा स्थिति के अनुसार आश्चर्यचकित बातें सामने आई हैं। इन दिशानिर्देशों का पूरी तरह पालन करने वाले राज्य उत्तर-पूर्व के हैं। आप भले वहां अलगाववाद या पृथकतावाद की भावना की बातें करें पर उन राज्यों ने पुलिस सुधार की ओर तेजी से कदम बढ़ाए हैं। 9 राज्यों ने अदालत के निर्णय का पूरी तरह या कहें अधिकाशत: पालन किया। 4 राज्यों ने आंशिक पालन किया, 7 राज्यों ने बहुत कम अंश में इस निर्देश पर काम किया। 4 राज्य तो बहुत चालाकी से इन निर्देशों से किनारा कर गए। उन्होंने जल्दी में अध्यादेश लाकर या कानून पारित करके लागू कर दिए क्योंकि न्यायालय ने कहा था कि ये निर्देश तब तक कारगर रहेंगे जब तक कि राज्य / केन्द्र सरकार अपने कानून नहीं बना लेते। ऐसी “समझदारी” करने वाले राज्य थे- कर्नाटक, केरल, हरियाणा और बिहार। इन राज्यों की जल्दबाजी में कानून बनाने के पीछे मंशा अदालत के निर्णय को लागू करने की नहीं बल्कि उन निर्देशों से बचकर निकल जाने की थी। बिहार के पुलिस एक्ट के बारे में तो कहा जाता है कि यह 1861 के कानून से भी बदतर है। राज्यों द्वारा बनाए इन कानूनों की संवैधानिकता को तो मैं चुनौती दूंगा। वे चार राज्य, जिन्होंने अदालत के फैसले को बिल्कुल ही अनदेखा कर दिया, हैं- गुजरात, महाराष्ट्र, उ.प्र. और राजस्थान। गुजरात का कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश संविधान के संघीय स्वरूप के विरुद्ध है। उ.प्र. ने मुलायम सरकार के समय 100 पृष्ठ का शपथ पत्र भेजकर आदेश के हर बिन्दु का विरोध किया और इसे प्रशासन के स्थापित सिद्धान्तों के विरुद्ध बताया। मुझे उम्मीद है कि आगामी अगस्त के पहले सप्ताह में सुनवाई से पूर्व इस मामले पर उ.प्र. सरकार जो नया शपथ पत्र दाखिल करने वाली है उसमें कुछ सकारात्मक रूख होगा।मेरी याचिका पर कुल मिलाकर जो देश की तस्वीर बनी है वह बहुत नकारात्मक नहीं है। मुझे पहले से मालूम था कि सत्ता अधिष्ठान सुधार में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेगा, इसका बहुत विरोध होगा और यह भी मालूम था कि अंतिम समय तक इससे बचने के रास्ते खोजे जाएंगे। याचिका पर पिछली सुनवाई के समय मैंने उन 4 राज्यों के खिलाफ अवमानना की याचिका भी दायर की थी जिन्होंने अदालत के आदेशों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है।बड़े आश्चर्य की बात है कि पुलिस सुधारों का विरोध सरकारों के साथ-साथ कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा भी किया जा रहा है। ये वही अधिकारी हैं जो नेताओं से अपनी नजदीकी के कारण ऊंचे पद पाते हैं। मगर संतोष की बात है कि आम जनता यह समझने लगी है कि पुलिस सुधार एक अच्छा काम है और विरोध करने वाले अपने स्वार्थों के कारण इसका विरोध कर रहे हैं।पुलिस सुधार क्यों?पुलिस सुधार देश में सुशासन में योगदान देगा। जनता का पुलिस से निरंतर वास्ता पड़ता है। कोई भी समस्या कानून-व्यवस्था से जुड़ी हो सकती है और अंतत: जिम्मेदारी पुलिस के कंधों पर आ सकती है। राजस्थान में हाल ही में हुआ आरक्षण आंदोलन देख लीजिए। आतंकवाद और उग्रवाद के अलावा अन्य समस्याओं में भी पुलिस का दखल होता ही है। दिन-प्रतिदिन समस्याओं का स्वरूप गहन होता जा रहा है। इसलिए हमें एक ऐसे पुलिस बल की जरूरत है जो देश के कानूनों के प्रति जवाबदेह हो न कि नेताओं से दिशानिर्देश प्राप्त करे। वह संविधान के अनुसार काम करे। पुलिस सुधार से लोगों के मानवाधिकारों की भी बेहतर तरीके से रक्षा हो पाएगी। लोगों को यह समझना होगा कि अगर हमें इस देश में लोकतंत्र, जिसके प्रति हम बहुत गर्व करते हैं, की रक्षा करना चाहते हैं, उसे फलता-फूलता देखना चाहते हैं तो इसके लिए निष्पक्ष और जवाबदेह पुलिसबल बहुत जरूरी है। अन्यथा लोकतांत्रिक ढांचे को अपराधी और माफिया तत्वों से खतरा पैदा हो जाएगा। आर्थिक प्रगति के लिए भी बेहतर पुलिस बल जरूरी है जो हमारे आर्थिक केन्द्रों के आस-पास कानून-व्यवस्था बनाए रखे।13
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