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अब मुफ्ती भी बोलने लगे अलगाव की भाषा-विशेष संवाददाताअलगाववादी भावनाएं भड़काने की होड़ में पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद तथा उनकी पार्टी (पी.डी.पी.) नेशनल कांफ्रेन्स से आगे निकलती दिखाई देने लगी है। यद्यपि पी.डी.पी. जम्मू-कश्मीर की गठबंधन सरकार में कांग्रेस के साथ पूरी तरह से भागीदार है। राज्य के राष्ट्रवादी अब यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता का आनंद भोगने वाली पी.डी.पी. स्वप्रशासन तथा पाकिस्तान के सैनिक राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के अन्य सुझावों का न केवल समर्थन कर रही है अपितु इन विवादित मांगों को अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की घोषणाएं भी कर रही है।राज्य में इससे पूर्व सत्तारूढ़ रही नेशनल कांफ्रेन्स पहले ही स्वायत्तता के नारों के साथ 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने की मांग करती चली आ रही है। उल्लेखनीय है कि 1953 से पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य में उच्चतम न्यायालय, चुनाव आयोग तथा भारत के महालेखाकार का अधिकार क्षेत्र नहीं था। जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक प्रमुख को सदर-ए-रियासत और प्रशासनिक प्रमुख को प्रधानमंत्री कहा जाता था। कई केन्द्रीय कानून इस राज्य में लागू नहीं होते थे। समाचार पत्रों को प्रकाशित करना कठिन काम था, प्रेस की स्वतंत्रता सीमित थी। रेडियो पर राज्य का नियंत्रण था और उस पर राज्य को भारतीय गणतंत्र के अन्दर एक अलग गणतंत्र बनाने जैसे नारे लगाए जा रहे थे।जहां नेशनल कांफ्रेन्स जम्मू-कश्मीर को 53 वर्ष पीछे ले जाने की बात कर रही थी वहीं अब पी.डी.पी. ने कश्मीर में पुन: यूसुफ शाह चक के दौर को वापस लाने का नारा लगाया है अर्थात् 400 वर्ष पूर्व की स्थिति बहाल करने की बात शुरु कर दी है। इस प्रकार अलगाववाद की दौड़ में पी.डी.पी.अपनी प्रतिद्वन्द्वी नेशनल कांफ्रेन्स से काफी आगे निकल चुकी है।जम्मू-कश्मीर में देश के अन्य भागों के समान कानून लागू करने की इच्छा रखने वाले आश्चर्यचकित हैं कि यह सब हो क्या रहा है। उनका कहना है कि इतनी गंभीर स्थिति तो 1953 में भी नहीं थी। पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद तथा उनकी पार्टी ने स्वशासन के साथ-साथ यह मांग भी करनी शुरू कर दी है कि जम्मू-कश्मीर के लिए राज्यपाल के स्थान पर इसी राज्य का चुना हुआ संवैधानिक प्रमुख होना चाहिए तथा नई दिल्ली को इस राज्य की सरकार को बनाने या हटाने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।उल्लेखनीय है कि मार्च, 1965 में जी.एम.सादिक के शासनकाल में जम्मू- कश्मीर के चुने हुए संवैधानिक प्रमुख अर्थात सदर-ए-रियासत के स्थान पर केन्द्र द्वारा राज्यपाल नियुक्त किए जाने सम्बंधी संशोधन जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान में किया गया। इस समय तत्कालीन कानून मंत्री डी.पी.दर के साथ संशोधन की वकालत करने वालों में मुफ्ती मोहम्मद सईद तथा उनके सहयोगी तत्कालीन विद्युत मंत्री श्री गुलाम रसूल कार प्रमुख थे। विधानसभा के इसी अधिवेशन में सदर-ए-रियासत का नाम बदलकर राज्यपाल करने के साथ ही जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री पद का नाम बदलकर मुख्यमंत्री किया गया था। उसके पश्चात् 1975 तक मुफ्ती मोहम्मद सईद राज्य मंत्रिमण्डल में एक वरिष्ठ सदस्य थे तथा उसके साथ ही कई वर्ष तक जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।अब मुफ्ती तथा उनकी पार्टी पी.डी.पी.की पैंतरेबाजी चर्चा का विषय बनी है। किन्तु कई राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि कश्मीर के नेताओं के लिए यह कोई नई बात नहीं। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला से लेकर अब तक के सभी नेता सत्ता से बाहर होने के पश्चात् इसी प्रकार की कट्टरपंथी तथा अलगाववादी बातें करते हैं और मुफ्ती मोहम्मद सईद भी वही कर रहे हैं। अंतर केवल इतना है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी एक ओर कांग्रेस के साथ सत्ता में भागीदारी कर रही है तो दूसरी ओर यह धारणा भी उत्पन्न की जा रही है कि स्वप्रशासन तथा जम्मू-कश्मीर को भारत के अंदर एक अलग गणतंत्र बनाने तथा पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बंध बनाने के लिए उनके दल को नई दिल्ली सरकार तथा श्रीमती सोनिया गांधी का समर्थन प्राप्त है। इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र सभा में इन्हीं मुद्दों के साथ भारत के प्रतिनिधियों का नेतृत्व करने जा रहे थे। न्यूयार्क जाने से पूर्व मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अपने दल की एक बड़ी जनसभा की, जिसमें उन्होंने स्वप्रशासन की व्याख्या की और घाटी में 400 वर्ष पूर्व यूसुफ शाह चक जैसा कश्मीर बनाने की वकालत की। इस पर भाजपा तथा अन्य राष्ट्रवादी दलों का कहना है कि यूसफ शाह चक एक तानाशाह था। पी.डी.पी. यूसुफ शाह चक के 400 वर्ष पुराने शासनकाल की बातें करके साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने का प्रयत्न कर रही है।9
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