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मुस्लिम संगठनों ने बदले समीकरण
-फिरदौस खान
इन दिनों उत्तर प्रदेश में सियासी सरगर्मियां तेज हैं। अमूमन सभी राजनीतिक दलों ने अपनी चुनावी मुहिम तेज कर दी है और जगह-जगह जनसभाएं करके मतदाताओं, खासकर मुसलमानों व दलितों को रिझाने में जुटे हैं। उत्तर प्रदेश देश का ऐसा राज्य है, जहां के चुनावी नतीजे सीधे केन्द्र की राजनीति पर असर डालते हैं। इसलिए भी यहां के चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश की नई विधानसभा अगले वर्ष मार्च में गठित होनी है। तय है कि 403 सीटों के लिए चुनाव आयोग उत्तर प्रदेश में चार-पांच चरणों में मतदान कराएगा। इसलिए चुनाव अधिसूचना आगामी नवम्बर-दिसम्बर में जारी होने की संभावना है। इससे पहले सितम्बर-अक्तूबर में महानगरपालिकाओं के चुनाव भी संभव हैं।
चुनाव में मुद्दों के साथ-साथ जातिगत समीकरण भी अहम भूमिका निभाते हैं, मगर इस बार मजहब पर आधारित मुस्लिम राजनीतिक दलों के चुनाव मैदान में उतरने से हालात और ज्यादा पेचीदा हो गए जाएंगे। चूंकि, उत्तर प्रदेश में देश के कुल 14 करोड़ मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा 18.5 फीसदी निवास करता है, इसलिए लगभग सभी राजनीति दलों ने मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए हैं। समाजवादी पार्टी के नेता व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भारतीय जनता पार्टी और हिन्दुत्व का भय दिखाकर मुसलमानों को अपनी पार्टी से जोड़ने की कोशिश में लगे हैं। इसी प्रयास में वे प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) को “क्लीनचिट” देकर कठघरे में खड़े हो चुके हैं। यह और बात है कि मुस्लिम संगठनों ने सार्वजनिक तौर पर सिमी और इसकी गतिविधियों पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से गुरेज ही किया है।
मुसलमानों का मसीहा होने का दभ भरने वाली कांग्रेस के नेता व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने तो उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का पता लगाने के लिए राजेन्द्र सच्चर समिति का गठन कर डाला। मजेदार बात यह है कि समिति के प्राथमिक नतीजे खुद कांग्रेस पर ही भारी पड़ गए। समिति के अनुसार देश भर के प्राय: सभी राज्यों में मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक का जीवन जी रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की हालत तो सबसे बदतर है। कांग्रेस शायद यह भूल गई थी आजादी के बाद पांच दशकों से भी ज्यादा समय तक देश की बागडोर उसी के हाथ में रही है। अब मुसलमान कांग्रेस से पूछने लगे हैं कि उसके शासन के इतने लम्बे अरसे के बाद भी मुसलमान आखिर पिछड़े हुए क्यों हैं? ऐसे में कांग्रेस में शामिल मुस्लिम नेताओं की हालत खिसियानी बिल्ली जैसी हो गई है। हाल ही में कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद ने सिमी का बचाव करते हुए उसके वकील के तौर पर खड़ा होने का ऐलान करके इसका सबूत भी दे डाला।
बहुजन समाजवादी पार्टी की अध्यक्ष मायावती मनुवाद का भय दिखाकर दलितों को पार्टी के बैनर तले एकत्रित करने में कामयाब रही हैं और इस कारण वे दो बार मुख्यमंत्री भी बन चुकी हैं। मायावती दलितों के साथ-साथ मुसलमानों को भी साथ मिलाए हुए हैं। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष और पूर्व केन्द्रीय मंत्री चौधरी अजीत सिंह किसानों की राजनीति करते आए हैं, लेकिन इस बार उनकी नजर मुस्लिम वोट बैंक पर भी है।
समाजवादी पार्टी से बगावत करके अपना नया मोर्चा बनाने वाले पूर्व सांसद एवं अभिनेता राजबब्बर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ मिलकर मुस्लिम संगठनों से नजदीकियां बढ़ाने में लगे हैं। इसी तरह मुस्लिम मोर्चे मुसलमानों को मजहब के आधार पर एकजुट करने का प्रयास करके सत्ता-सुख भोगना चाहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम नेता खुद एकजुट नहीं हैं। इस साल महज चार महीनों के भीतर तीन मुस्लिम मोर्चे बनने से इन नेताओं की आपसी फूट कई बार उजागर हुई। गत 18 मार्च को दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने मुसलमानों को एकजुट करने के लिए दिल्ली में प्रमुख मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें “मजलिस-ए-एत्तेहाद” के गठन का ऐलान किया गया। जामा मस्जिद परिसर में हुए इस सम्मेलन में जहां सियासी दलों पर तीखे प्रहार किए गए, वहीं मुसलमानों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान पर खासी जोर देने की बात भी कही गई। इस संगठन को बने दो महीने भी नहीं बीते थे कि अपनी ढपली अपना राग की तर्ज पर असम के यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीम) की देखादेखी 15 मई को लखनऊ में पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) नाम से एक नया राजनीतिक दल बनाया गया। इस दल के अध्यक्ष व शिया नेता कल्बे जव्वाद ने तुरन्त घोषणा कर दी कि पी.डी.एफ. आगामी विधानसभा चुनाव में डेढ़ सौ सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा करेगा। साथ ही उन्होंने मुलायम सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए उन पर राज्य के मुसलमानों की अनदेखी करने का आरोप लगाया।
हाल ही में मौलाना कल्बे जव्वाद के इस्तीफा देने से फ्रंट की कमान सुन्नी नेता मौलाना मुफ्ती अब्दुल इरफान फिरंगी को सौंप दी गई है। नए अध्यक्ष ने भी पूर्व अध्यक्ष की तरह मुलायम सरकार की अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का ऐलान किया है।
उल्लेखनीय है कि असम के ए.यू.डी.एफ. दिल्ली के मजलिस-ए-एत्तेहाद और उत्तर प्रदेश के पी.डी.एफ. के गठन में अहम भूमिका निभाने वाले इमाम बुखारी ने दिल्ली लौटते ही अपने नये राजनीतिक दल की घोषणा कर डाली। गत 10 जून को जामा मस्जिद में बुलाए एक संवाददाता सम्मेलन में उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूपीयूडीएफ) के गठन का ऐलान करते हुए इमाम ने सवाल किया कि उत्तर प्रदेश में जब मुट्ठी भर यादव शासन कर सकते हैं तो मुसलमान क्यों नहीं? उल्लेखनीय है कि 2001 की जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या का केवल 8.7 प्रतिशत यादव हैं, जबकि मुसलमान 15 फीसदी हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पी.डी.एफ. के नेता शिया हैं और उत्तर प्रदेश में कुल मुस्लिम आबादी का 0.7 प्रतिशत ही शिया हैं, जबकि सुन्नी 14.3 प्रतिशत हैं। ऐसे में इमाम बुखारी जैसे नेता चुनाव में सुन्नी कार्ड को भुनाने की हरसंभव कोशिश करेंगे।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का सवाल है, इसने हमेशा से उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्व का सहारा लिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित “माई हिन्दुस्तान” ने आंदोलन चलाकर मुसलमानों को साथ लेकर चलने का प्रयास किया है। इस कारण संघ के प्रति कुछ मुसलमानों का रवैया बदला है। “माई हिन्दुस्तान” के कार्यक्रमों में जुटने वाली मुसलमानों की भीड़ इस परिवर्तन का साक्षात प्रमाण है। तथाकथित सेकुलर दलों से मुसलमानों का मोह भंग होता जा रहा है। ये मुसलमान कट्टरपंथी मोर्चों की ओर ही जाएंगे। ऐसा भी यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता। पिछले कुछ समय से जिस तरह आतंकवादी गतिविधियां बढ़ी हैं और जिहाद के नाम पर इस्लाम को बदनाम कर पूरी कौम को कठघरे में खड़ा किया गया है, उससे आम मुसलमान बेहद परेशान है। ऐसे में मुसलमानों को एक सही नेतृत्व की जरूरत है। ऐसा कोई सर्वमान्य मुस्लिम नेता भाजपा भी दे सकती है, मगर उसे कोई नया चेहरा पेश करना होगा। भाजपा के नेताओं में आरिफ बेग, मुख्तार अब्बास नकवी से लेकर शाहनवाज हुसैन तक सभी मुस्लिम वर्ग के नेता शामिल हैं। ऐसे में सुन्नी मुस्लिम आबादी शिया नेता को स्वीकार कर पाएगी, इसमें सन्देह है।
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