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शिकंजे में फंसे हम?अभी हाल ही में बुश प्रशासन ने भारत-अमरीका परमाणु संधि पर कुछ ऐसी शर्तें लगाई हैं जिनके द्वारा भारत चाहे-अनचाहे उस सी.टी.बी.टी. की परिधि में आ गया है जो खुद अमरीकी सीनेट द्वारा अमान्य कर दी गई थी। इससे भारत के परमाणु परीक्षणों पर न केवल लगाम लग जाएगी, बल्कि अमरीका ने खुद को ऐसी स्थिति में रखा है जिसके अंतर्गत वह जब चाहे भारत को परमाणु रिएक्टरों की ईंधन आपूर्ति रोक सकता है। प्रस्तुत हैं वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक श्री ब्राह्म चेलानी द्वारा इसी मुद्दे पर व्यक्त विचारों के संपादित अंश। सं.-ब्राह्म चेलानीवरिष्ठ रक्षा विश्लेषक(आलोक गोस्वामी से बातचीत पर आधारित)प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जल्दबाजी में अमरीका के साथ जो खतरनाक परमाणु संधि की है उसके बाद अब शायद भारत की उम्मीदें अमरीकी कांग्रेस पर टिकी हैं कि वह इस परिस्थिति से इसे बाहर निकाले। सीटीबीटी पर भारत के हस्ताक्षर करने के मुद्दे पर भी इसी अमरीकी कांग्रेस ने 1999 में भारत का बचाव किया था जब तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने अमरीकी उपविदेश मंत्री स्ट्रोब टालबोट के साथ अपनी गुप्त बातचीत में एक जोखिमभरा वायदा किया था।अमरीका के साथ हुई इस परमाणु संधि का एक खास पहलू यह है कि भारत के वे सब लोग जो सरकार के भीतर और बाहर से इसको बढ़ावा दे रहे थे, उनमें से कोई भी भारत के इस तरह परमाणु संपन्न होने की वकालत नहीं कर रहा है। सरकार में बैठे मुट्ठी भर लोग और राष्ट्रीय मीडिया में बैठे उनके गिने-चुने सहयोगी देश को ये सपना बेचने में सफल हो गए, भले ही इसकी कीमत भारत के सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक कार्यक्रम-परमाणु निरोधक क्षमता- को दांव पर लगाकर चुकाई गई हो।भारत-अमरीका परमाणु संधि पर प्रधानमंत्री के वक्तव्यों से पता चलता है कि भारत को इस संदिग्ध लाभ- बिजली उत्पादन के लिए ऊंचे दाम वाले महंगे रिएक्टर्स आयात करने का अधिकार- के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। संधि के तहत तीस से भी ज्यादा भारतीय परमाणु संयंत्र हमेशा के लिए अंतरराष्ट्रीय निगरानी में रखे जाएंगे। अकेले “साइरस रिसर्च रिएक्टर” को ही योजनाबद्ध तरीके से बंद करके भारत की शस्त्र दर्जे के प्लूटोनियम उत्पादन सामथ्र्य में तीस प्रतिशत की कटौती हो जाएगी। इसके अलावा भारत ने 14 भारतीय ऊर्जा संयंत्रों को अंतरराष्ट्रीय निगरानी में रखने का निर्णय लेकर रिएक्टर दर्जे के प्लूटोनियम और ट्राइटियम के वर्तमान उत्पादन में 65 प्रतिशत की कटौती स्वीकार की है। इससे भारत की परमाणु निरोधक क्षमता का आकार सीमित रह जाएगा। और यह तो तब हुआ है जब भारत के पास अभी अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी-चीन-के खिलाफ न्यूनतम निरोधक क्षमता भी नहीं है।बुश के साथ परमाणु संधि से बाल-बाल बचा पाकिस्तान अब परमाणु शस्त्रों के मामले में भारत को पीछे छोड़ सकता है, जैसा कि उसने मिसाइलों के संबंध में किया है। नागरिक और सैन्य परमाणु कार्यक्रमों में अंतर करके भारत ने अपनी निरोधक क्षमता पर सीमा बांध ली है जबकि पाकिस्तान के पास अपने परमाणु कार्यक्रमों के संबंध में पूरी आजादी है। जैसा कि पाकिस्तान के तानाशाह राष्ट्रपति ने कहा, “पाकिस्तान के पास अन्य विकल्प हैं।” उनका सीधा सा इशारा चीन की ओर था जिसने पाकिस्तान की परमाणु निरोधक क्षमता और मिसाइल सामथ्र्य निर्मित करने में मदद की है। चीन से पाकिस्तान आने वाला परमाणु और मिसाइल आपूर्ति मार्ग खुला हुआ है। हमारी दृष्टि से परमाणु हथियारों और मिसाइलों की कितनी मात्रा पाकिस्तान को मिलती है वह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसके पास ये हथियार होना।उम्मीद है कि अमरीकी कांग्रेस या तो इसे नकार कर अथवा कठोर शर्तें लगाकर वाशिंगटन के साथ हुई इस निराशाजनक संधि से भारत की रक्षा कर लेगी। भारतीय संसद के विपरीत, अमरीकी कांग्रेस इस संधि को बहुत बारीकी से परखेगी।एक मनोनीत भारतीय प्रधानमंत्री ने एक बाहरी ताकत के साथ ऐसी संधि की है कि जिसके तहत भारत की परमाणु शस्त्र क्षमता एक तिहाई घट जाएगी, मगर न तो इस पर और न ही सैन्य-नागरिक परमाणु कार्यक्रम विलगीकरण योजना पर उन्होंने संसद की सहमति प्राप्त की। सुहाने सपने में खोए प्रधानमंत्री देश को बता रहे हैं कि यह संधि भारत को परमाणु संपन्न देशों की कतार में खड़ा कर देगी। वे कल्पनाओं में जी रहे हैं। इस संधि से ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। अमरीका ने अपनी कांग्रेस के सामने भारत के साथ नियंत्रित नागरिक परमाणु व्यापार का प्रस्ताव रखा है जो उसकी निर्यात-लाइसेंसिंग आवश्यकताओं और भारत के “अच्छे व्यवहार” के कड़े नियंत्रण में संचालित होगी। 1998 में भारत को सार्वजनिक रूप से परमाणु संपन्न होने से रोकने में नाकाम रहने के बाद अमरीका ने अपना लक्ष्य थोड़ा बदल लिया है। अब इसका लक्ष्य है बाहर से सीमाएं निर्धारित करके भारत के छोटे परमाणु अस्त्र कार्यक्रमों में बाधा डालना। हर प्रकार से यह संधि भारत को अनजानी दिशाओं में ले जाती दिखाई देती है। मेरे अनुसार परमाणु संधि को लेकर दिख रहा उत्साह एक प्रकार से भारत की सुरक्षा संबंधी असफलताओं को स्वीकारने और देश की चीन, पाकिस्तान और आतंकवाद संबंधी समस्याओं को अमरीका के कंधे पर डालने की इच्छा ही दर्शाता है। अमरीका के साथ दोस्ती भारत के हित में होगी मगर इसका यह अर्थ नहीं कि भारत अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी अमरीका को सौंप दे। अमरीका संधि का उपयोग यह सुनिश्चित करने में करेगा कि भारत एक पूर्ण परमाणु ताकत के रूप में कभी उभर न पाए। भारत-अमरीका के हित कई मुद्दों पर सांझे हैं पर सभी मामलों में ऐसा नहीं है। यह बुश की हाल ही में जारी हुई नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटेजी रिपोर्ट से साफ हुआ है। वैश्विक आतंक का सामना करने की ही बात करें। इस रिपोर्ट में न केवल पाकिस्तान को लेकर भारत की आतंकवाद संबंधी चिंताओं को अनदेखा कर दिया गया है बल्कि यह पाकिस्तान को ही आतंक का एक शिकार बताती है। भारत को उन बारह चिन्हित देशों की श्रेणी में नहीं रखा गया है जहां “आतंकवादियों ने प्रहार किए हैं।” वास्तव में तो रिपोर्ट के उस विस्तृत अध्याय में भारत का उल्लेख ही नहीं है जिसका शीर्षक है, “वैश्विक आतंकवाद को परास्त करने तथा हमारे और हमारे दोस्तों के विरुद्ध आतंकवादी हमले रोकने हेतु कार्य करने के लिए गठबंधन मजबूत करें।” इसी पृष्ठभूमि में परमाणु संधि को पूरी गंभीरता से वास्तविक पहलुओं पर गौर करके देखना होगा।16 मार्च को अमरीकी कांग्रेस में बुश सरकार द्वारा प्रस्तुत “वेवर अथॉरिटी बिल” भारत के संदर्भ में बुश की सोच को स्पष्ट करता है। बुश प्रशासन ने वेवर अथॉरिटी की मांग की है जिसके अंतर्गत, अगर राष्ट्रपति भारत के अच्छे व्यवहार के देखते हुए सात विशेष फैसले करें तो अमरीका के 1954 के परमाणु ऊर्जा कानून की आवश्यकताओं को देखते हुए भारत के साथ परमाणु सहयोग को “राष्ट्रपति….रद्द कर सकते हैं”। वस्तुत: यह “वेवर” भी भारत के व्यवहार पर समय-समय पर अमरीकी कांग्रेस द्वारा दी जाने वाली अनुशंसाओं के आधार पर दिए जाएंगे। सोचिए, अगर अगले अमरीकी राष्ट्रपति का भारत के साथ परमाणु संधि पर उल्टा नजरिया हुआ तब क्या होगा? अच्छे व्यवहार के साथ बिंदु जो “बिल” के उपखंड “बी” में सूचीबद्ध किए गए हैं, उनमें यह शामिल है- कि “भारत अमरीका के साथ “मल्टीलेटरल फिसाइल मैटीरियल कट-आफ” संधि की पूर्णता के लिए कार्य कर रहा है; और कि भारत ने अपने सभी नागरिक परमाणु कार्यक्रम आई.ए.ई.ए. की स्थाई निगरानी के लिए उपल्बध कर दिए हैं।”इसके अलावा एक आठवां निर्धारण भी किया जाएगा यानी “सब्सीक्यूएेंट डिटरमिनेशन”, उपखंड “डी” में लिखा है, “उपखंड “बी” के अंतर्गत कोई निर्धारण उस सूरत में प्रभावी नहीं होगा यदि राष्ट्रपति यह समझें कि भारत ने इस कानून के क्रियान्वयन की तारीख के बाद परमाणु परीक्षण किया है”। इस स्थिति का अर्थ है कि भारत पिछले दरवाजे से सीटीबीटी के अंतर्गत लाया जा रहा है। दूसरे शब्दों में, इससे पहले कि अमरीकी कांग्रेस को अपनी शर्तें रखने का अवसर मिलता, बुश ने भारत के साथ हुई संधि पर एक कानूनी बाध्यता जोड़ दी है। बुश की कार्ययोजना के अंतर्गत भारत एक संसदीय विधेयक के जरिए सीटीबीटी से जुड़ जाएगा। दुनिया के इतिहास में यह पहली बार है कि किसी सत्ता ने दूसरे देश को एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय संधि में जकड़ना चाहा है। जो उसकी अपनी विधायिका द्वारा नकार दी गई। अमरीकी सीनेट ने 1999 में सीटीबीटी को नकार दिया था। “वेवर अथॉरिटी” के उपखंड “डी” के अंतर्गत भारत को भविष्य में परमाणु परीक्षण करने से रोक दिया जाएगा। अगर भारत ने इस रोक का उल्लंघन किया तो सभी तरह का परमाणु सहयोग रोक दिया जाएगा। इसके द्वारा आयात किए जाने वाले ऊर्जा रिएक्टर ईंधन की कमी के कारण निष्क्रिय हो जाएंगे। अमरीका द्वारा निर्मित तारापुर रिएक्टर के साथ ठीक यही हुआ था, जब 1974 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण के जवाब में अमरीका 1963 में हुए नागरिक परमाणु सहयोग समझौते से आधे रास्ते में ही बाहर निकल गया था। हालांकि 1963 के समझौते में एक अंतरराष्ट्रीय संधि जितनी ही ताकत थी पर अमरीका ने ईंधन और कलपुर्जों की सभी तरह की आपूर्ति रोक दी थी।”वेवर अथॉरिटी बिल” के अंतर्गत भारत की स्थिति सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने वाले देश से भी बदतर हो जाएगी। जहां एक ओर सीटीबीटी से जुड़ा कोई देश अपने “सर्वोच्च राष्ट्रीय हित” का उल्लेख करते हुए इस संधि से बाहर आ सकता है, वहीं दूसरी ओर भारत के पास कोई विकल्प नहीं होगा। इसे अमरीका द्वारा थोपी गई सीटीबीटी की बाध्यताओं का सामना करना पड़ेगा। भारत पर स्थायी परीक्षण प्रतिबंध लगाना अमरीका की भारत की प्रतिरोधक क्षमता को सीमित करने की योजना का ही हिस्सा है। पिछले दरवाजे से भारत को सीटीबीटी में ला खड़ा करके अमरीका खुद को ऐसी स्थिति में स्थापित कर रहा है जिसमें वह दिल्ली को फिसाइल मैटीरियल उत्पादन प्रतिबंध में भी शामिल करा सकेगा। और यह सब तब हो रहा है जबकि अभी एफएमसीटी पर बातचीत नहीं हुई है, इसके लागू होने की तो बात ही जाने दीजिए। जिस नई द्विपक्षीय नागरिक परमाणु सहयोग संधि पर वार्ता चल रही है वह भी वाशिंगटन को भारत पर एफएमसीटी के समकक्ष प्रतिबंध लगाने का रास्ता उपलब्ध कराती है। किसी भी तरह देखें, एक बार भारत ऊर्जा रिएक्टरों के आयात का आदेश जारी करता है और खुद को एक बाहरी ईंधन आपूर्ति में बांध लेता है तो वाशिंगटन के पास आगे के लिए भारतीय फिसाइल मैटीरियल उत्पादन को रोक देने का हर प्रकार का तरीका उपलब्ध होगा।जिस प्रकार मनमोहन सिंह एक के बाद एक देश से किए वायदे तोड़ते जा रहे हैं उसके कारण भारत स्थायी, कानूनी आधार पर एक दूसरे दर्जे की परमाणु शक्ति बनता जा रहा है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा भी खुलकर बोलने में असफल रही है।यह सब प्रधानमंत्री की मार्च के आरंभ में की गई घोषणा से शुरू हुआ कि, संसद में उनके कथन “भेदभाव कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे” के विपरीत, उन्होंने बुश को वायदा दे दिया कि भारत गैर परमाणु संपन्न देशों के लिए लागू अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों को स्वीकार करेगा। 29 जुलाई 2005 को वाशिंगटन से लौटकर मनमोहन सिंह ने संसद में अन्य परमाणु ताकतों जैसे ही “लाभ और फायदे प्राप्त करने” की घोषणा की थी। इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने अगस्त 2005 में बहस का जवाब देते हुए यह कहा था, “अटल जी ने भी यह सवाल पूछा था। हमें परमाणु शस्त्र संपन्न देश के रूप में मान्यता नहीं मिली है। मुझे लगता है कि हमें अमरीका से एक स्पष्ट वायदा प्राप्त हुआ है कि भारत को उसी तरह के नागरिक सहयोग के लाभ मिलने चाहिए जैसे कि अमरीका जैसे विकसित देश को प्राप्त हैं”।आज अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण से लेकर ईंधन आपूर्ति तक विभिन्न मुद्दों पर भारत के लिए दूसरे स्तर का दर्जा स्वीकार करके प्रधानमंत्री उम्मीद करते हैं कि भारत उनके सभी वायदे भूल चुका है। आज भारत ऐसे परमाणु शस्त्र संपन्न देश के रूप में उभरा है जिसके परीक्षणों पर एकतरफा “रोक” स्वैच्छिक नहीं रहेगी। भले चीन, पाकिस्तान या अमरीका परीक्षण जारी रखें भारत को परीक्षण का कोई अधिकार नहीं होगा। ऊंची कीमत के ऊर्जा रिएक्टरों, जो आयातित परिवर्धित यूरेनियम ईंधन पर आश्रित हैं, को आयात करना ऊर्जा सुरक्षा का नहीं असुरक्षा का रास्ता है। भारत इस संदिग्ध लाभ की बहुत ऊंची कीमत चुकाना चाहता है, वह कीमत है- इसकी मुकुटमणियों (परमाणु अस्त्रों) पर रोक।14
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