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किसको लाभ-कितना लाभ?श्रीमती जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता खत्म होने के बाद “लाभ के पद” पर दिल्ली में राजनीति गरमाने लगी है। कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को भी तीखे विरोध के कारण लोकसभा की सदस्यता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। लगभग 40 सांसदों पर भी अंगुलियां उठी हैं। सरकार ने पिछले दिनों अचानक संसद के चालू सत्र को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया था। अब 10 मई को संसद का विशेष सत्र बुलाने का निर्णय लिया गया है। आखिर “लाभ का पद” क्या होता है और वर्तमान विवाद का समाधान क्या है, इस पर पाञ्चजन्य ने विभिन्न दलों के नेताओं व सांसदों से बातचीत की। प्रस्तुत हैं उनके विचारों के संपादित अंश। -सं. प्रस्तुति :राकेश उपाध्याय व अरुण कुमार सिंहयह मुद्दा सुलझना चाहिए- आस्कर फर्नांडीसकेन्द्रीय मंत्री1959 में पहली बार कुछ सांसदों के “लाभ के पद” पर होने का सवाल उठा था। तब और आज की परिस्थिति में बहुत अंतर आ चुका है। स्वाभाविक ही जब सांसद मंत्री पद के अतिरिक्त सरकार से जुड़े विभिन्न दायित्व संभालते हैं तो प्रश्न खड़ा होता है वह पद लाभ का है अथवा नहीं? संविधान इस बारे में मौन है। कोई निर्वाचित प्रतिनिधि सरकारी नौकरी में न हो, संविधान में इतना तो स्पष्ट है लेकिन बाकी चीजों के बारे में सभी दलों को एक राय बनानी होगी। यह संयोग ही है कि यह मुद्दा आज उठा है और कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार है, यदि यह नहीं सुलझाया गया तो समस्या तो बनी ही रहेगी और इसका सामना किसी न किसी दल विशेष को आगे करना ही पड़ सकता है।वस्तुत: इस पूरे मामले को समग्र रूप से देखने की जरुरत है। इसे लेकर किसी पार्टी या व्यक्ति को निशाना बनाया जाना उचित नहीं है। जहां तक सोनिया जी के इस्तीफे का प्रश्न है तो विरोधी दलों ने एक माहौल निर्मित किया कि वे लाभ के पद पर हैं, किन्तु हम ऐसा नहीं मानते। लाभ के पद को आज नहीं तो कल परिभाषित करना ही था और जब संप्रग सरकार इसे करने जा रही थी, विपक्ष ने इस पर सवाल खड़े कर दिए। जो भी हो, सोनिया जी ने त्यागपत्र देकर यह तो बता ही दिया कि कोई भी पद उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है।बताइये तो कौन पद लाभ का, कौन नहीं-डा. रघुवंश प्रसाद सिंहकेन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रीसंविधान के अनुच्छेद-102 में प्रावधान है कि संसद या विधान मंडल का सदस्य रहते हुए कोई व्यक्ति लाभ के पद पर नहीं रह सकता है। लाभ के पद के बारे में 1950 में संसद ने एक कानून बनाया था। उसके अनुसार यह ऐसा पद है जिसके लिए सरकार के द्वारा नियुक्ति हो, सरकार के द्वारा वेतन भुगतान हो और सरकार के द्वारा उस पद पर बैठे व्यक्ति की बर्खास्तगी हो। यानी जो पद पूरी तरह सरकार के अधीन हों, उन्हें लाभ के पद की श्रेणी में रखा गया है। कई ऐसे पद भी हैं, जिन्हें सरकार ने तो सृजित नहीं किया है, किन्तु उसके लिए सरकारी अनुदान मिला है, जमीन मिली है, यात्रा भत्ता मिलता है। ऐसे पदों को लाभ का पद माना जाए या नहीं, इस सवाल को सुलझाने के लिए बहुत पहले भार्गव समिति बनी थी। किन्तु कतिपय कारणों से उसकी रपट पर अमल नहीं हो पाया। बाद में सर्वोच्च न्यायालय, अनेक उच्च न्यायालयों एवं विभिन्न अदालतों ने इन पदों को लेकर कई निर्णय दिए, कई मामले वर्षों से लटके हुए हैं। इसलिए जितनी जल्दी हो एक ऐसा व्यापक कानून बने, जिसमें साफ-साफ लिखा गया हो कि कौन पद लाभ का है और कौन पद लाभ का नहीं है। हालांकि अभी भी एक कानून है, किन्तु पुराना हो गया है। उस कानून के बाद सैकड़ों ऐसे निगम, न्यास और बोर्ड बने, जो उस कानून के दायरे में नहीं हैं। जैसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्। इस परिषद् की कानून में तो कहीं कोई चर्चा नहीं है। इसका गठन सरकार के कार्यों पर निगरानी एवं उसे सलाह देने के लिए किया गया था। बहुत लोग कह सकते हैं यह सरकार के अधीन नहीं है, तो बहुत से यह भी कह सकते हैं जब इस परिषद् के लिए सरकारी वेतन, भत्ते आदि आते हैं, तो यह सरकार के अधीन क्यों नहीं है? इसलिए इस पर बहस हो सकती है। फिर भी मेरा मानना है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के मुद्दे को उठाना ठीक नहीं था। कुछ लोग लोकसभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी का भी इस्तीफा मांग रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि सोमनाथ जी एक कानूनविद् भी हैं। उन्होंने बंगाल में कोई पद सोच-समझकर ही लिया होगा।कानून के अभाव में धुंधलका है-बासुदेव आचार्यलोकसभा सदस्य (माकपा)लाभ के पद के मुद्दे पर पिछले दिनों राजनीतिक गलियारों में जबरदस्त तनाव रहा। विभिन्न दलों ने अपने-अपने तर्क दिए। मेरे अनुसार उसमें कई ऐसे लोगों पर आरोप लगे जिन्हें लाभ के पद पर नहीं कहा जा सकता। जहां तक मुझे याद है इस मुद्दे पर पहले कभी ऐसा विवाद हुआ नहीं था। हमारा स्पष्ट मानना है कि संसद की इस संबंध में बनी संयुक्त समिति को यह विषय देखना चाहिए। पिछले दिनों जया बच्चन को “लाभ के पद” के आधार पर अयोग्य ठहराया गया। हालांकि मैं मानता हूं कि इस मुद्दे पर अभी स्पष्टता नहीं है। संसदीय समिति यह स्पष्ट करे कि लाभ का पद किसे कहा जा सकता है और किसे नहीं। मैं पिछले 25 वर्षों से सांसद हूं लेकिन इस प्रकार की समस्या पहले कभी सामने नहीं आई। पहली बार ऐसा हुआ है। इसलिए संसद इस संबंध में कानून बनाकर मामला सुलझाए। अन्यथा बार-बार इस तरह की शिकायत राष्ट्रपति को भेजी जाएगी, फिर वह चुनाव आयोग को जाएगी, जिससे समस्या और बढ़ेगी। इस स्थिति में यही ठीक रहेगा कि संसद में कानून बनाकर इस संबंध में भ्रम को साफ किया जाना चाहिए। हालांकि संसद सत्र अनिश्चित काल तक स्थगित करके कांग्रेसनीत सरकार ने हड़बड़ी दिखाई थी। उसे अध्यादेश की बजाय कानून लाना चाहिए था। वैसे प्रमुख राजनीतिक दलों की इस बात पर सहमति हो गई है कि संसद का अधिवेशन बुलाकर इस मुद्दे पर विचार किया जाए। सोनिया गांधी को इस संबंध में इस्तीफा देने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन ऐसा किया गया। यह पार्टी का अपना निर्णय है। इसी तरह लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी पर जिस पद को लेकर “लाभ के पद” का आरोप लगाया जा रहा है, वह लाभ का पद नहीं है। उन्होंने इस बारे में वक्तव्य भी जारी किया है। इसके बाद उन पर अंगुली उठाने का सवाल ही नहीं है। जिन अन्य सांसदों के नाम “लाभ के पद” की सूची में वे भी इस्तीफा देने की बजाय संसद का सामना करेंगे।चुनाव आयोग निर्णय करे-योगी आदित्य नाथलोकसभा सदस्य (भाजपा)लाभ के पद की चर्चा चारों ओर है। इस सन्दर्भ में लाभ के पद कौन-कौन से हैं, इसे परिभाषित करने का काम चुनाव आयोग का है। मूलभूत गलती तो चुनाव आयोग की ही है। जिस दिन कोई प्रत्याशी नामांकन पत्र भरता है, उसी समय चुनाव आयोग को यह स्पष्ट करना चाहिए कि फलां-फलां पद लाभ के पद हैं और इस पर रहते हुए कोई संसद या विधानसभा का सदस्य नहीं बन सकता। आज भी चुनाव आयोग इसे स्पष्ट कर सकता है। वह घोषित करे कि लाभ के पद कौन-कौन से हैं और यदि कोई निर्वाचित प्रतिनिधि किसी लाभ के पद पर पाया जाए तो उसके लिए तत्काल एक पद पर ही रहना अनिवार्य किया जाए। जहां तक प्रश्न संविधान का है तो संविधान लाभ के पद को व्याख्यायित नहीं करता किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी पर रहते हुए सांसद या विधायक नहीं बन सकता। किन्तु कई मामलों में लाभ का पद परिभाषित न होने से स्थितियां जटिल हुई हैं। जैसे उ.प्र. में ही बहुत सारे उदाहरण हैं, कोई व्यक्ति नगरपालिका का अध्यक्ष है, वही बाद में विधायक या सांसद बन गया। कोई अध्यापक है, पुन: वह विधायक निर्वाचित हुआ फिर सांसद भी बना यानी तीन-तीन पदों पर एक साथ वह आसीन है। और ऐसे उदाहरण आज सभी राजनीतिक दलों में हैं।पिछले दिनों सोनिया गांधी की संसद सदस्यता बचाने के लिए संसद अनिश्चितकाल के लिए स्थगित की गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण था। इससे संसद की घोर अवमानना हुई है। बाद में शोर मचा तो सोनिया जी को त्यागपत्र देना पड़ा। फिर उन्हें “त्याग की मूर्ति” बताया जाने लगा। मैं यहां यह अवश्य कहना चाहूंगा कि जो एक बार सांसद बनने की अर्हता के उल्लंघन का दोषी हो, उसके पुन: चुनाव लड़ने, संसद का पुन: सदस्य बनने पर रोक लगाई जानी चाहिए। गलती की कुछ तो सजा मिले अन्यथा आप देश की युवा पीढ़ी को सन्देश क्या देंगे?आम सहमति बननी चाहिए-धर्मेन्द्र प्रधानलोकसभा सदस्य (भाजपा)वस्तुत: यह निर्धारण अब जरुरी हो गया है कि लाभ के पदों की श्रेणी में कौन से पद आते हैं और कौन नहीं? कांग्रेस ने जो धोखाधड़ी की राजनीति शुरू की, आज उसी का परिणाम सामने है। मैं मानता हूं कि केन्द्र सरकार इस सन्दर्भ में स्थिति स्पष्ट करे। संविधान की धारा 102 में इस सन्दर्भ में स्पष्ट व्याख्या नहीं है, उसे केन्द्र सरकार व्याख्यायित करे। राज्यों के स्तर पर यह जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। संविधान “लाभ के पदों” की व्याख्या नहीं करता। ऊपरी तौर पर सर्वोच्च न्यायालय ने अवश्य इस पर कुछ स्पष्टता दी है पर वह पर्याप्त नहीं है। चूंकि “लाभ के पदों” के सन्दर्भ में पहली बार यह मामला उठा है अत: जरूरी है कि इस पर सर्वदलीय बैठक हो और आम सहमति बने ताकि फिर ऐसे विषय दुबारा न खड़े हों। भारतीय जनता पार्टी के संसद सदस्यों पर जहां तक लाभ के पद पर बने रहने का आरोप है तो भाजपा का कोई सांसद लाभ के पद पर नहीं है। चाहे श्री अनन्त कुमार का नाम उछाला जाए या श्री विजय कुमार मल्होत्रा का, इनमें से कोई भी किसी सरकारी पद पर नहीं है। भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन, तीरन्दाजी संघ क्या कोई सरकारी संस्थान है? अनन्त कुमार जिस ट्रस्ट में हैं वह उनकी माता जी की स्मृति में बना है और पूरी तरह से निजी ट्रस्ट है। क्या ऐसे ट्रस्ट का सदस्य या पदाधिकारी होना कोई लाभ का पद है? मैं पुन: कहूंगा कि इस मुद्दे पर सरकार सभी दलों के साथ राय-मशविरा करे।24
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