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औरंगजेब की पुत्री बदरुन्निसाहिन्दुत्व से प्रेमवचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”मुगल शासक औरंगजेब के समय हिन्दुओं पर बड़े अत्याचार होते थे। हिन्दुओं पर उसने जहां जजिया कर थोपा, वहीं उसकी छत्रछाया में हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया। उसने ही बुंदेलों को हिन्दू परिवेश त्यागकर मुस्लिम रहन-सहन अपनाने का आदेश दिया था। उसने हिन्दू रीति से लड़कों के यज्ञोपवीत संस्कार पर रोक लगाकर उन्हें मुस्लिम तरीके सिखाने और शासन का कामकाज भी फारसी भाषा में करने की सख्त हिदायत दी थी।इसके विपरीत औरंगजेब की एक पुत्री बदरुन्निसा हिन्दू हितों से जुड़ी थी। अपने पिता की नीतियों को वह बिल्कुल पसन्द नहीं करती थी। इस कारण वह शाही महल त्यागकर ओरछा आ गई। वहीं वह बेतवा नदी के तट पर छत्रसाल के प्रेरणास्रोत स्वामी प्राणनाथ से मिली। स्वामी जी ने मुगलों से जूझ रहे दलपति राय द्वारा बदरुन्निसा के हिन्दू हितैषी और मुगल शासन में हो रहे अत्याचारों के विरोध में विचार सुने थे। इस कारण स्वामी जी को लगता था कि औरंगजेब कहीं बदरुन्निसा की हत्या न करा दे, इसलिए उन्होंने बदरुन्निसा को ढांढेर राज्य की महारानी सुफला देवी के संरक्षण में भेज दिया।मुगलों से युद्ध के बाद ही बुंदेलखण्ड स्वतंत्रता प्राप्त कर सका। तब बदरुन्निसा ने स्वेच्छा से दलपति राय से विवाह कर लिया और स्वामी जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया। वह अपने पिता को न केवल दलपति राय, छत्रसाल और शिवाजी का प्रबल शत्रु मानती थी बल्कि उस हिन्दू का भी शत्रु मानती थी, जो बादशाह की गुलामी को सगौरव स्वीकार न करे। वह शाही महल को शैतान का घर, दगाबाजी, बेईमानी, हवस और गुनाहों का घर मानती थी। इसलिए उसने औरंगजेब, उसके फौजदार रनदुलह खां तथा बुंदेलखण्ड के सूबेदार फिदाई खां से संघर्ष करने वाले दलपति राय का आश्रय लिया।जो इतिहासकार औरंगजेब और अकबर में कोई भेद नहीं करते वे औरंगजेब की भली, न्यायप्रिय और शुद्ध विचारों वाली पुत्री के सौहार्द, हिन्दुत्व प्रेम और औरंजजेब के प्रति विद्रोही जीवन का उल्लेख क्यों करते। परन्तु यह अकाट्य सत्य है कि बदरुन्निसा जैसी लड़कियां मुस्लिम परिवारों में विरली ही होती हैं। जबकि दलपति राय के समय में ही राजा अजयगढ़, राजा कालिंजर, राजा कंचुकीराय, ओरछा की रानी हीरा देवी, उसके पति राजा पहाड़ सिंह आदि सभी हिन्दू राजा और जगीरदार मुगल शासक के समक्ष नतमस्तक होते थे। इतना ही नहीं उसे लगान देने, दिल्ली की सरपरस्ती करने, कुशल क्षेम पूछने और उसे पीर अलमगीर की पदवी से सम्मानित करने में आगे रहते। वहीं शाही महल में रह रही जेबुन्निसा स्वयं को बदनसीब-यतीन मानकर दु:खी थी। इसीलिए स्वामी जी ने कहा था, “यद्यपि बदरुन्निसा दिल्ली की शहजादी है, परन्तु वह हमारी शुभचिंतक है।”20
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