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क से “कोचिंग”, “क” से कोटा-सुशान्त सिंहलसौकरोड़ से ज्यादा आबादी के इस देश में लाखों होनहार बच्चों की दिनचर्या इस हद तक विकृत हो चुकी है कि उसमें खेलकूद के लिए कोई “टाइम-स्लाट” खाली नहीं है। यह सही है कि कुछ बनना है तो परिश्रम तो करना ही होगा। किन्तु दो वर्ष का होते-होते बच्चे को रेस के घोड़े की तरह घुड़दौड़ में जोत दिया जाए तो बचपन क्या होता है, यह तो उसे कभी जानने का अवसर ही नहीं मिलेगा। “कैरियर” के नाम पर बच्चों के सम्मुख अत्यन्त सीमित विकल्प रखे जा रहे हैं। बचपन से ही बच्चों को कलक्टर, डाक्टर, इंजीनियर बनने के ख्वाब देखने को प्रेरित किया जाता रहा है। अब भला देश को कितने कलक्टर, डाक्टर व इंजीनियर चाहिये? व्यावसायिक व उच्च शिक्षा दे रहे कालेजों में जितनी सीटें उपलब्ध हैं, उससे हजार गुना से भी अधिक प्रवेशार्थी हैं। आरक्षित सीटों को अलग कर दिया जाये तो स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। स्वाभाविक ही है कि आप अर्हता परीक्षा में 90 प्रतिशत अंक पाकर भी प्रवेश के बारे में निÏश्चत नहीं हो सकते। सभी प्रवेशार्थी होशियार हैं, परिश्रमी हैं, आपको प्रवेश चाहिए तो बाकी होशियार बच्चों को पीछे छोड़ते हुए अपने लिए स्थान सुरक्षित करना होगा। मांग व आपूर्ति में भयावह अंतर ही इस परेशानी का कारण है। जो सफल हो गये, उनको तो अपने परिश्रम का सुफल मिल जाता है, किन्तु जब एक होशियार व परिश्रमी छात्र जुनून की हद तक पढ़ाई व परिश्रम करने के बावजूद भी डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, आई.ए.एस., आई.पी.एस., पी.सी.एस. की प्रवेश परीक्षा में असफल हो जाता है तो उसकी कुंठा का कोई अन्त नहीं होता है।इन रसूख वाले कैरियरों की तैयारी के लिए कोटा (राजस्थान) बहुत मशहूर है। और इसीलिए कोटा का आज नजारा बदला हुआ है। हर चौराहे, बाजार में कोचिंग संस्थानों की भरमार है। बंसल क्लासेस, कैरियर पाइंट और ऐलन कोचिंग इंस्टीटूट जैसे कई नामी-गिरामी कोचिंग संस्थान लाखों रुपए फीस लेकर मेडिकल, इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं। कहते हैं प्रवेश परीक्षाओं में पास होने वाले तीन-चौथाई छात्र कोटा के इन संस्थानों से निकलते हैं।हमारे देश में उच्च शिक्षा का माध्यम आज भी अंग्रेजी ही है। ऐसे में अंग्रेजी ठीक से लिख-पढ़-बोल न सकने वाले व्यक्ति हमारे देश में शिक्षित होते हुए भी अशिक्षित जैसे ही माने जाते हैं और अधिकांशत: इसी कारण हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। ऐसे लोग अपनी हीन भावना से छुटकारा पाने के लिए अपने बच्चों को माध्यम बनाते हैं। अगर बच्चा वांछित सफलता प्राप्त न कर सके तो असफलता की खीझ में अक्सर ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को इतना कटु व असह्र बोल जाते हैं कि बच्चा अपनी व अपने माता-पिता की कुंठा का हल न खोज पाने के कारण कई बार रेल की पटरी पर जाकर लेट जाता है।-सुशान्त सिंहलNEWS
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