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दोषी माता-पिता भीश्रीति राशिनकरअध्यापिका (इन्दौर)गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर बच्चों के विद्यालय जाने की तैयारियां अभिभावक कुछ इस प्रकार करने लगते हैं मानो ये बच्चों की नहीं, वरन् उनकी खुद की तैयारी है। एक मानसिक तैयारी!बच्चा जब विद्यालय जाता है तो उसकी पींठ पर बस्ते का बोझ उसे इस कदर झुका देता है मानो वह बचपन में ही वृद्धावस्था झेल रहा हो। विद्यालय में 7-8 घंटे बिताने के बाद जब बच्चा घर आता है तो उसके पास ना ठीक से खाने का समय होता है, ना ही खेलने का। गृह-कार्य करने की चिन्ता उसे कुछ और करने का मौका ही नहीं देती।एक समय था जब बच्चों को पांच साल का होने तक पढ़ने नहीं भेजा जाता था। घर में ही उसे दादा-दादी, माता-पिता द्वारा संस्कार दिए जाते थे। संस्कृत के श्लोक सिखाना और महापुरुषों की कहानियां सुनाने का प्रतिदिन का कार्य बुजुर्गों का होता था। लेकिन आज अभिभावकों को एक आकर्षण सा हो गया है कि उन्हें अपने बच्चे को दो-ढाई साल की उम्र में विद्यालय भेजना ही है। वहां से बच्चा जब रटा-रटाया संवाद या “पोयम” सीख कर आता है तो माता-पिता गर्व महसूस करते हैं।आज हर अभिभावक चाहता है कि उनका बच्चा बेहतर से बेहतर शिक्षा ले। प्रतिस्पद्र्धा के इस युग में वे अपने बच्चे से अधिक से अधिक की अपेक्षाएं रखते हैं। प्रतियोगिता परीक्षा में खराब परिणाम आने पर वे बच्चे से अधिक स्वयं को या फिर शिक्षा प्रणाली को दोषी मानते हैं। जबकि प्रत्येक अभिभावक को अपने बच्चे की सामथ्र्य को देखते हुए यह निर्णय लेना चाहिए कि उनका बच्चा किस क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। कभी कभी तो यह भी देखने में आता है कि अभिभावक ही अधिक से अधिक गृह-कार्य की मांग करते हैं। गृह कार्य नहीं देने की स्थिति में उनकी शिकायत रहती है कि इस विद्यालय में तो गृह-कार्य भी नहीं दिया जाता। बच्चा अभिभावकों की बढ़ती अपेक्षाओं एवं आधुनिक शिक्षा प्रणाली में फंसकर रह जाता है। इस स्थिति में न उसके पास व्यावहारिक ज्ञान होता है न ही कोई रोजगारमूलक शिक्षा। आज आवश्यकता है कि अभिभावक स्वयं इस मुद्दे पर सोचें कि उन्हें अपने बच्चे को सिर्फ बस्ते का बोझ बढ़ाते हुए शिक्षित करना है या ऐसी शिक्षा दिलानी है जिससे वह देश का सुयोग्य नागरिक बन सके।-श्रीति राशिनकरअध्यापिका (इन्दौर)NEWS
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