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भारत के कम्युनिस्टों के मन में गहरे बैठा है-हिन्दुत्व से वैरशंकर शरणयह दिलचस्प है कि धर्म, अध्यात्म, मजहब और इससे सम्बंधित समस्याओं से बार-बार उलझते हुए भी दुनिया भर के माक्र्सवादियों ने इसका व्यवस्थित अध्ययन करने का साहस नहीं किया। वह हमेशा अंधेरे में तीर चलाते रहे। रोमिला थापर और रामशरण शर्मा ने भी चलाए। इस अर्थ में अंधेरे में कि माक्र्सवाद की बुनियादी अवधारणाओं-ऐतिहासिक उत्पादन पद्धति और उत्पादन सम्बंध, आधार और अधिरचना आदि- के बल पर विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति, विकास और विशेषताओं को कभी स्पष्ट नहीं किया जा सकता। इस विषय के बारे में माक्र्सवादियों की पूरी समझ माक्र्स और एंगेल्स द्वारा “द जर्मन आइडियोलॉजी” में ईसाइयत पर किए गए विचार तक ही सीमित हैं। स्वयं माक्र्स ने भी बौद्ध, हिन्दू या इस्लामी चिंतन-दर्शन का कोई अध्ययन कभी नहीं किया था। वस्तुत: ईसाइयत और आम तौर पर धर्म पर माक्र्स ने छिट-पुट जो कुछ भी कहा था, उसी तर्ज पर, जैसे बच्चे किसी चित्र की नकल करके चित्र बनाते हैं, हमारे इक्के-दुक्के माक्र्सवादियों (राहुल सांकृत्यायन, डी.डी. कोसांबी, एस.जी. सरदेसाई आदि) ने उन्हीं मुहावरों को बौद्ध, हिन्दू धर्म आदि पर जैसे-तैसे लागू करके इनकी माक्र्सवादी व्याख्या करने की अटपटी कोशिशें की हैं।किन्तु हमारे देश में माक्र्सवादी विद्वानों द्वारा हिन्दू दर्शन को सीधे एक विषय के रूप में कभी हाथ में नहीं लिया गया। “ए डिक्शनरी ऑफ माक्र्सिस्ट थॉट” में “हिन्दुइज्म” पर अध्ययन की जो सूची पेश की गई है (जिसके आधार पर ही उसमें हिन्दू दर्शन को माक्र्सवादी नजरिए से समझने की कोशिश भी की गई), वह माक्र्सवादी चिंतन का एक दयनीय प्रदर्शन है। उस सूची में नेहरू जी पर एक अध्ययन, एक गल्प रचना, एक कम्युनिस्ट नेता की केरल पर राष्ट्रीयता के प्रश्न पर लिखी पुस्तिका जैसी चीजें हैं। किंतु हिन्दू दर्शन-चिंतन पर किसी माक्र्सवादी का एक सीधा लेख भी मौजूद नहीं। रोमिला थापर लिखित भारत के इतिहास, रामशरण शर्मा के प्राचीन भारत में राजनीतिक विचारों और “भारतीय नास्तिकता” पर देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तकों के आधार पर ही जैसे-तैसे हिन्दुइज्म को समझने की कोशिश की गई है। इसमें “ब्राह्मणों का शोषक-चरित्र”, “निचली जातियों के प्रति अत्याचार” और “मंदिरों को पद-सम्पत्ति हासिल करने के साधन” आदि रूप रखकर हिन्दुत्व का अर्थ बताया गया है। यह सब उन विदेशी माक्र्सवादी, वी.जी.कीरनान, ने हमारे माक्र्सवादी इतिहासकारों के उक्त लेखन का हवाला देकर ही व्याख्यायित किया है। कहना पड़ेगा कि हमारे अपने एमिनेंट माक्र्सवादियों, जो लगभग सभी हिन्दू परिवारों की संतान हैं, की तुलना में सोवियत माक्र्सवादियों ने हिन्दुत्व के प्रति अधिक गंभीरता और सदाशयता दिखाई है (क्या इसलिए कि उन्होंने अपने सिर पर वर्तमान भारतीय राजनीति में कोई सेकुलर राजनीतिक एजेंडा लागू करने का भार नहीं रख लिया था?)। उन्होंने परिश्रम करके हिन्दुत्व के दार्शनिक, वैचारिक, पारंपरिक, मुख्य देवी-देवता, अनुष्ठान सम्बंधी, लोक मान्यताएं, गांधी और टैगोर जैसे सुधारकों के प्रयास आदि का उल्लेख किया है।इस प्रकार हिन्दू शास्त्र माने जाने वाले दर्जनों प्रसिद्ध ग्रंथों तक का कभी कोई अध्ययन प्रस्तुत न कर पाना-जबकि गैर-माक्र्सवादी, देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा उन पर बड़े-बड़े अध्ययन मौजूद होना- भारत के माक्र्सवादी इतिहासकारों की कमजोरी, विवशता और अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिघटनाओं पर उनके सिद्धांत और अहंकार का पोलापन ही दिखाता है।रोमिला थापरलेकिन इससे हमारे माक्र्सवादी इतिहासकारों में हिन्दू दर्शन, चिंतन और आध्यात्मिकता पर तरह-तरह की खुली, अनर्गल टिप्पणी करने में कोई संकोच नहीं देखा जा सकता। रोमिला थापर के 1969 वाले लेख “साम्प्रदायिकता और प्राचीन भारतीय इतिहास-लेखन” में कई पृष्ठों पर धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, अध्यात्म आदि पर ऐसी अनगिनत टिप्पणियां हैं, जैसी कोई गंभीर विद्वान दे नहीं सकता। क्योंकि उसे अपने ज्ञान की सीमाएं मालूम होती हैं कि किस क्षेत्र में वह सरसरी टिप्पणी करने का अधिकारी नहीं है। जबकि माक्र्सवादी विद्वानों के लेखन, भाषण की विशिष्ट विशेषता ही यही होती है कि ज्ञान-विज्ञान का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जिस पर वह साधिकार टिप्पणी न कर सकें। अपने उक्त लेख और जहां-तहां अन्य लेखों- भाषणों में भी रोमिला जी ने संक्षेप में यही दिखाने की कोशिश की है कि प्राचीन भारत और उसके हिन्दू धर्म की जो भी खूबियां, उपलब्धियां या अनूठापन माना जाता है, वह सब अतिरंजित या गलत है। यही नहीं, हिन्दू धर्म की जो भी अच्छाइयां बताई जाती हैं, वे तो दूसरे धर्मों में भी हैं। जबकि इसके कई कुरूप, घृणास्पद पहलू हैं, जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता।बल्कि रोमिला जी का यह भी कहना है कि इतिहास में कोई हिन्दू धर्म जैसी चीज भी नहीं थी। अगर यह सिर्फ “हिन्दू” संज्ञा की बात होती, तो इसमें कोई गड़बड़ी नहीं, किन्तु उनका मंतव्य तब स्पष्ट दिखता है जब वह इसके बदले “सनातन” धर्म का भी उल्लेख नहीं करतीं। बल्कि यह कहती हैं कि “इस्लाम से पूर्व भारत के धार्मिक सम्प्रदाय और समूह अपने को हिन्दू के रूप में तथा एक एकीभूत धर्म के रूप में नहीं मानते थे।” अपने मूल अंग्रेजी वाक्य में रोमिला जी ने “यूनीफाइड रिलीजन” शब्द का प्रयोग किया है। इससे एक बात साफ है कि या तो वह “रिलीजन” और “धर्म” का बुनियादी भेद तक नहीं समझतीं या वह जान-बूझकर दोनों को समानार्थक रखकर प्राचीन भारत में सनातन (हिन्दू) धर्म और उसके अनुरूप जीने वालों (हिन्दुओं) के अस्तित्व से सिरे से इनकार कर रही हैं। क्योंकि “धर्म” शब्द भारत के प्राचीनतम शास्त्र, श्रुति और लोक-परंपरा तीनों में मिलता है। अत: दो या तीन हजार वर्ष पहले यहां धर्म न था, यह कोई नहीं कह सकता। किन्तु जैसे “इतिहास” “हिस्ट्री” नहीं है या “नमस्कार” “गुड-मार्निंग” नहीं है। उसी तरह, बल्कि उससे अधिक भेद के साथ, “धर्म” की भारतीय अवधारणा किसी रूप में “रिलीजन” नहीं है। दुनिया के तमाम गंभीर विद्वान् इससे परिचित हैं कि पश्चिमी शब्दावली ही नहीं, अवधारणा में भी “धर्म” के लिए कोई शब्द नहीं है (“ऋत”, “लीला”, “कर्म”, जैसी कई और ऐसी अवधारणाएं हैं)। “रिलीजन” से तो धर्म को कतई समझा ही नहीं जा सकता। इसलिए ईसाई मिशनरी और इस्लामी तब्लीगी हिन्दुओं को “रिलीजन से विहीन” समुदाय कहते हैं, जिन्हें अभी “रिलीजन” और “फेथ” देने का काम बाकी है (जो उन मिशनरियों को करना है)। अपनी समझ से ऐसे मिशनरी ठीक ही समझते हैं, क्योंकि जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है वह वस्तुत: ईसाइयत या इस्लाम की तरह स्पष्ट और प्राय: कठोर सीमाओं में बंधा संकीर्ण “रिलीजन” कतई नहीं है।तो क्या रोमिला थापर उसी मिशनरी दृष्टि से प्राचीन भारत में हिन्दू धर्म के अस्तित्व से इनकार कर रही हैं? अन्यथा उनका अर्थ क्या है? उनके लेखन में “सनातन धर्म” का भी उल्लेख क्यों नहीं मिलता, जो भारतीय मनीषा और परंपरा में प्रमुखता से मिलता है? इसके बदले रोमिला जी के लेखन, भाषण में बार-बार किसी “ब्राह्मण धर्म” का जिक्र रहता है, जिसका स्वरूप उनके अनुसार शोषणकारी, धूर्ततापूर्ण, वर्गीय-स्वार्थ भरा आदि था। जबकि “सनातन धर्म” का उल्लेख, इसकी व्याख्या, प्राचीन शास्त्रों से लेकर साहित्य और तरह-तरह की श्रुतियों में भी मिलता है। बुद्ध ने भी कहा था: एसो धम्मो सनंतनो। अर्थात्, कोई चीज सनातन धर्म रही है, इसका ढाई हजार साल पहले भी सहज उल्लेख मिलता है। इन सबको सरसरी तौर पर नकार कर यह कह देना कि “हिन्दू धर्म” जैसी चीज महज हाल की शताब्दियों में “विदेशियों की निर्मिति” है, आश्चर्यजनक है। मगर यह माक्र्सवादी विद्वानों का अति प्रिय विचार है। बहरहाल, रोमिला थापर यह तो कहती हैं कि हिन्दू धर्म को परिभाषित नहीं किया जा सकता, किन्तु हां, इससे घृणा जरूर की जा सकती है।रोमिला जी ने जगह-जगह ऐसी अनेक बातें कही हैं, जिनके लिए उन्होंने न तो कोई स्रोत, न संदर्भ दिया है। इसी तरह वह “आर्य जीवन-पद्धति” का उल्लेख करते हुए केवल यह लिखती हैं कि “कुछ खास अवसरों पर आर्य लोग गोमांस खाते थे और मदिरा पीते थे”। एक अन्य जगह वह लिखती हैं, “प्राचीन भारत में कई सदियों तक गोमांस खाया जाता रहा।” किन्तु जहां भी रोमिला जी या उनके हमख्यालों ने यह बड़ा रस लेकर बताया है, वहां उन्होंने यह बताने का कष्ट नहीं किया है कि आम तौर पर प्राचीन भारत के लोग क्या खाते थे? क्या गोमांस वाली प्रस्तुति में केवल द्वेष, वर्तमान हिन्दू भावनाओं की खिल्ली उड़ाने भर का भाव नहीं झलकता? यह वह मनोवृत्ति है, जो शानदार महल में भी सिर्फ संडास ढूंढती है और मिल जाने पर उसकी (संभावित) बदबू को ही पूरे महल का असली यथार्थ घोषित करती है।रोमिला जी के ये विचार गंभीरता से विचार करने लायक हैं :”गुप्त शासकों का “स्वर्ण युग” बहुत से विरोधाभासों का युग है। उसे हिन्दू पुनर्जागरण का काल बताया जाता है। पर उस काल की मुख्य कलात्मक चीजें बौद्ध थीं…।””इसके बावजूद कि अहिंसा पर जोर देना सर्वोत्तम हिन्दू परम्परा का अंग है, समुद्रगुप्त का गुणगान ज्यादातर सैनिक विजेता के रूप में उसके पराक्रम के आधार पर किया जाता है।””भारतीय आध्यात्मिकता में जो गुण बताए जाते हैं, दूसरी बहुत सी पुरानी संस्कृतियों में भी पाए जा सकते हैं…।””समाज के कौन से तबके आध्यात्मिक क्रिया-कलाप-अनादि-अनंत के मनन में, रहस्यवाद में दार्शनिक अनुचिंतन में रत रहते थे? जाहिर है, सिर्फ एक छोटा सा तबका।””कालिदास के नाटकों में इस बात का मुश्किल से ही संकेत मिलता है कि राजदरबारों में कोई विशेष आध्यात्मिकता विद्यमान थी।””धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-मनुष्य के चार पुरुषार्थ या लक्ष्य बताए गए हैं। इनमें से केवल मोक्ष शुद्ध आध्यात्मिकता का द्योतक है।””भारतीय परम्परा की कुछ मुख्य घटनाएं हिंसा से जुड़ी हैं, जिसका एक प्रासंगिक उदाहरण है-भगवद्गीता और महाभारत युद्ध।””अगर कोई हिन्दू राजाओं की परम्परा की ओर निगाह डाले और यह जांच करे कि वे मंदिरों के लुटेरे और मूर्तितोड़क थे या नहीं तो (उनके ऐसा करने के) अन्य कारण भी मिल सकते हैं।”उपर्युक्त सभी बातें रोमिला जी के लेख में एक के बाद एक आती गई हैं। उनमें से किसी का न कोई संदर्भ है, न प्रसंग। किसी भी गंभीर पाठक को महसूस हो सकता है कि लेखिका की धर्म, अहिंसा या आध्यात्मिकता आदि की भी क्या समझ है। हिन्दुत्व नामक विषय को तो छोड़ ही दें, जिसके बारे में रोमिला जी का विचार है कि “हिन्दुत्व की विचारधारा का आविष्कार बीसवीं सदी में हुआ है।” स्पष्टत: उन्होंने इन विभिन्न गहन विषयों का कभी कोई अध्ययन नहीं किया है। फिर भी ताबड़तोड़ उन पर इस तरह टिप्पणियां की हैं, मानो उससे किन्हीं विपरीत प्रस्थापनाओं का हर हाल में खंडन करना ही हो। जिस बेतरतीब, असंगत ढंग से उन्होंने उक्त लेख के चार पृष्ठों में ऐसे अनगिनत दावे किए हैं, उनका कोई तर्क नहीं दिखता।प्रो. रामशरण शर्माप्रो. रामशरण शर्मा ने अपनी पुस्तक “विश्व इतिहास की भूमिका” (1954) में विभिन्न धर्मों के बारे में सौ से अधिक पन्ने लिखे हैं। लेकिन भारत के सनातन, वैदिक या हिन्दू धर्म पर केवल छिट-पुट टिप्पणियां हैं। इसमें किसी “ब्राह्मण धर्म” का बार-बार उल्लेख है, किन्तु यह पता नहीं चलता कि इसे सनातन धर्म के समानार्थक माना गया है या सनातन अथवा हिन्दू धर्म जैसी चीज को सिरे से नकारा गया है। जो भी हो, प्रो. रामशरण शर्मा ने भारत के सनातन, वैदिक या हिन्दू धर्म के लिए केवल नकारात्मक टिप्पणियां की हैं इसमें क्या-क्या बुराइयां थीं, कैसे इसके खिलाफ विद्रोह हुए आदि। गीता पर भी केवल व्यंग्य ही है। जबकि इस्लाम और कुरान पर प्रो. शर्मा ने अपनी कोई टिप्पणी नहीं दी है। इनके बारे में उन्होंने पूरी सहजता और सकारात्मक रूप से केवल यह लिखा है कि मुसलमान क्या मानते हैं- जबकि सनातन हिन्दू धर्म के बारे में उन्होंने इसका कोई उल्लेख नहीं किया कि आदि शंकराचार्य से लेकर श्री अरविन्द, गांधी और विनोबा तक इसके अपने पंडितों या श्रद्धालु महापुरुषों ने क्या कहा है।इसी प्रकार शर्मा जी की छोटी-सी पुस्तिका “साम्प्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या” (1990) भी माक्र्सवादी इतिहासकारों की अंतर्गठित हिन्दू-विरोधी मनोवृत्ति का एक अच्छा उदाहरण है। यह भी कम्युनिस्ट पार्टी प्रेस से प्रकाशित हुई थी, किन्तु इसे कोई चलताऊ प्रचार पुस्तिका कतई नहीं माना जाए। क्योंकि यह उसी वर्ष आंध्र प्रदेश इतिहास कांग्रेस के चौदहवें अधिवेशन में इतिहास के अध्येताओं-विद्वानों के बीच दिए गए “एम. वेंकटरंगैया मेमोरियल लेक्चर” का “परिवर्धित” रूप है। यह व्याख्यान वारंगल के काकातिया विश्वविद्यालय में दिया गया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे तैयार करने में प्रो. सतीश चंद्र समेत आठ अन्य विद्वानों का सहयोग भी लिया गया था। इन तफसीलों का महत्व यह है कि इस पुस्तिका की बातों को किसी जन-सभा या राजनीतिक सभा में बोली गई बातें मानकर छूट न दी जाए।यह पुस्तिका (या विद्वत् व्याख्यान) चलताऊ माक्र्सवादी अंधविश्वास से ही आरंभ होती है कि प्रकृति की बाधाओं को हटाने के लिए संघर्ष से धार्मिक विश्वासों का उदय और विकास हुआ। फिर साधारण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता वाली पिटी-पिटाई लफ्फाजी, कि जब मेहनतकशों की पैदावार पर अपनी सत्ता बरकरार रख पाने में सत्ताधारी लोग कठिनाई महसूस करते हैं, तो वे धार्मिक चमत्कारों का सहारा ढूंढते हैं। शासक वर्ग धर्म का इस्तेमाल अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों को साधने के लिए करते थे, आदि। इसी पुस्तिका में आगे उन्होंने यह भी लिखा है कि “नगरों का ह्यास होने पर उनकी स्मृति बनाए रखने के लिए तीर्थों की स्थापना की गई।” पता नहीं, हिमालय की चोटियों पर बने तीर्थों को वे कैसे व्याख्यायित करेंगे। इस तरह की विचित्र, अंधविश्वासी घोषणाओं को और जो कहें, इतिहास तो नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इतिहास स्रोत-प्रमाणों पर निर्भर करता है। और “प्रकृति की बाधाओं को हटाने के लिए होते संघर्ष से धार्मिक विश्वासों का उदय” होते किसने देखा था? यह सब विशुद्ध परिकल्पनाएं हैं, जिसे माक्र्सवादी अंधविश्वासी ऐसे पेश करते हैं मानो किसी पुरानी फिल्म का प्रमाणिक सीक्वेंस सुना रहे हों। बहरहाल, हमारा उद्देश्य यह देखना है कि शोषकों के इस हथियार, धर्म, के हिन्दू रूप के प्रति शर्मा जी ने क्या ऐतिहासिक खोज (या परिकल्पनाएं) की है। आशा यही है कि उन्हें भी अपने हमख्यालों की तरह इस्लाम और ईसाइयत की खोज करने वाले शोषक उतने धूर्त नहीं दिखेंगे, जितने हिन्दुत्व वाले। और सचमुच पहली कटु टिप्पणी ब्राह्मणों पर ही है कि ब्राह्मण धर्म (संभवत: शर्मा जी भी मानते हैं कि हिन्दू धर्म जैसी कोई चीज नहीं) ने गाय की रक्षा के विचार पर ध्यान केन्द्रित करके बौद्ध धर्म को कमजोर कर दिया, और बड़ी चालाकी से यह घोषणा भी कर डाली कि ब्राह्मणों का जीवन भी गाय की तरह ही पवित्र है और फिर इसी विचार को जनता के दिमाग में ठोक-पीटकर बिठा दिया गया। इस रोचक परिघटना की जानकारी का स्रोत पूछने की जरूरत नहीं। जरूर धूर्त ब्राह्मणों ने यह वैसा ही किया होगा, जैसा स्तालिन महान् ने अपने ख्यातिप्राप्त “शॉर्ट कोर्स” को रूसियों के दिमाग में ठोक-पीटकर बिठाया था। फिर प्रो. शर्मा हमारे लाभ के लिए यह भी बता देते हैं कि “आज पवित्र गाय का सिद्धांत हमारी आर्थिक प्रगति में अवरोध बन जाता है। या तो हम ऐसे पशुओं का ही पेट भर लें, जो आर्थिक रूप से अलाभकारी और अनुत्पादक हैं या फिर उत्पादक कार्य में संलग्न इन्सानों का ही।” यानी आज का प्रगतिशील नारा हुआ : गाय रहे या हम! सचमुच यह बड़ा गहन अर्थशास्त्र है। इसी पर चलते हुए भी पता नहीं क्यों फिर भी सोवियत और पूर्वी यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था एकदम सुस्त हो गई थी।फिर, आशा के अनुरूप हमें शीघ्र ही पढ़ने को मिलता है कि जहां तक इस्लाम का सवाल है, उसने विभिन्न अरब कबीलों और जनजातियों को एक ही राज्य में जोड़कर प्रगतिशील भूमिका अदा की और उनके बीच लगातार चलने वाले कबीलाई झगड़े-फसादों को काफी हद तक कम कर दिया। दुष्ट “ब्राह्मण धर्म” तो, खैर कभी कोई प्रगतिशील भूमिका अदा कर ही कैसे सकता था। मगर क्या सातवीं सदी के अरब कबीले, अरब राज्य, अरब जनजातियां-इनमें कोई शोषक वर्ग, शोषित वर्ग नहीं था? क्या उनमें कोई चालाक ब्राह्मण जैसे लोभी शोषक नहीं थे, जिन्होंने मेहनतकशों की पैदावार हड़पने या दूसरों की धरती पर कब्जा करने के लिए अपने को सीधे अल्लाह का पैगम्बर होने की बात “ठोक-पीटकर” बिठा दी हो? बिल्कुल नहीं। वस्तुत: अरब वालों के लिए माक्र्सवादी विश्लेषण नहीं होता। क्या हमने पहले ही नहीं देखा है कि इस्लाम सम्बंधी हरेक परिघटना पर केवल वही लिखा-बोला जाना है जो मुसलमान मानते हैं? यही नहीं, मुसलमान जिसे बुरा मानते हैं उसे दूसरों के लिए भी बुरा बताया जाना है, जैसे-मूर्ति-पूजा। शर्मा जी आर्य समाज की तारीफ करते हुए कहते हैं, “उसने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और उससे जनित बुराइयों के खिलाफ संघर्ष चलाया।”आगे शर्मा जी आर्य समाज के पतन पर घोर दु:ख प्रकट करते हैं, जो अब मूर्ति-पूजा के विरोधी का प्रगतिशील रूप छोड़कर “मुस्लिम-विरोधी” हो गया है। यानी अब आर्य समाज हिन्दू विरोधी नहीं रहा। अफसोस! इससे भी बुरी बात यह हुई। शर्मा जी लिखते हैं, “वह वेदों में ही संसार के सारे बुद्धि-वैभव देखने लगा। महाशोक! दु:ख और क्षोभ से भरकर शर्मा जी इस पर पूरा पैराग्राफ लिख डालते हैं। वेदों में ज्ञान, बुद्धि की बात समझना “दिमाग का संप्रदायीकरण”, “जहरीला धार्मिक प्रचार”, “घृणित प्रचार” आदि पता नहीं क्या क्या हैं जो “भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा” भी हैं। इस तरह के प्रचार को कोई इतिहासकार, जिसे अपने को तथ्यों ओर प्रमाणों पर आधारित करना होता है, गले के नीचे नहीं उतार सकता।” बिल्कुल दुरुस्त कहा आपने। किन्तु एक छोटी सी शंका है : किस इतिहासकार ने यह लिखा जो आप उसका खंडन कर रहे हैं? एक दूसरी, उससे भी छोटी शंका है : क्या वेदों के बारे में कही गई शर्मा जी की बातें कुरान के लिए भी लागू होती हैं? बहुत बड़ी संख्या में लोग उसमें ही सारे बुद्धि-वैभव देखते हैं, उसके सामने न तो दास कैपिटल, न ही भारतीय संविधान को कुछ समझते हैं। तो क्या उससे भी संप्रदायीकरण, जहरीला, राष्ट्रीय एकता को…? ओह नहीं, नहीं! यह शंका एकदम अनर्गल है। कहां तुच्छ वेद, कहां महान् कुरान! ऐसी तुलना का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। इसीलिए तो शर्मा जी और दूसरे माक्र्सवादी इतिहासकारों ने भी कभी कुरान पर एक तिर्यक शब्द भी नहीं कहा है।शर्मा जी ने यह भी लिखा है कि नालंदा विश्वविद्यालय को मुसलमान आक्रमणकारियों ने नहीं जलाया था। जैसा कि अनेक मुस्लिम लेखकों से लेकर राहुल सांकृत्यायन और डी.डी. कोसांबी जैसे माक्र्सवादियों और भीमराव अम्बेडकर जैसे बौद्ध विद्वानों ने भी गलती से लिख डाला है। शर्मा जी को उन सबके लिखे पर गहरी शंका है। वे यह तो नहीं कहते कि नालंदा विश्वविद्यालय वाली घटना भी दुष्ट हिन्दू साम्प्रदायिकों का प्रचार है, पर तर्क देते हैं कि यदि ऐसा हुआ था “तब गुजरात के सुलतानों के समय क्यों जैन पांडुलिपियों को भली-भांति संरक्षित रखा गया?”सचमुच, बड़ा अद्भुत तर्क है। राहुल जैसे महापंडित के भी दिमाग में नहीं आया। फिर तो पता नहीं, कौन जाने, जनरल डायर ने भी अमृतसर में जलियांवाला कांड किया था या नहीं। क्योंकि उसी ब्रिाटिश शासन में दिल्ली या बम्बई में तो ऐसा कोई कांड नहीं हुआ था? क्या यह संभव है कि जिस शासन में एक स्थान पर निहत्थे, शांतिपूर्ण लोगों की सभा को गोलियों से भून दिया गया हो, उसी शासन में दूसरी जगह लोगों को वैसे ही घूमते-फिरते छोड़ दिया गया हो? इतिहासकारों को फिर से तथ्यों और प्रमाणों को देखना चाहिए। हमें शर्मा जी ने एक नई राह दिखाई है। वे तो यहां तक कहते हैं कि उन मुस्लिम सुलतानों की सदाशयता से ही “हिन्दू नवजागरण” भी संभव हुआ, क्योंकि उन्होंने ही उन पांडुलिपियों का संरक्षण किया था, जिनसे प्राचीन भारतीय विरासत का उद्धार हुआ और अनगिनत काव्य, महाकाव्य, सूत्र, संहिताएं, टीकाएं आदि लिखी गईं।फिर मंदिरों और मस्जिदों की प्रकृति पर अपनी एक सारगर्भित टिप्पणी में शर्मा जी कहते हैं कि मंदिरों की बनावट ऐसी होती है कि उसमें धन-सम्पत्ति इकट्ठी की जा सकती है। उनके शब्दों में, “मस्जिदों की वास्तु सम्बंधी बनावट ही ऐसी है कि सम्पत्ति संग्रह के लिए वहां कोई जगह नहीं होती। (पुस्तिका के नए संस्करण में शर्मा जी जोड़ सकते हैं-कि उनमें तरह-तरह के मानव संहारकारी, आक्रामक हथियार जमा करने की जगह जरूर होती है। दुनिया भर के तजुर्बे से पता चला है।) अत: यदि महमूद गजनवी जैसे लुटेरे सोमनाथ मंदिर की तरफ आकर्षित होते थे, तो ईमान की बात यह है कि कसूर मंदिर का था। आखिर वहां उतनी सम्पत्ति थी ही क्यों? इसलिए, अगर इस्लामी बादशाहों ने “हिन्दू मंदिरों की लूट-पाट की तो … ऐसी लूटपाट के कारणों का विश्लेषण करना होगा और व्याख्या करनी होगी।” जैसे, यह व्याख्या कि सिर्फ मुसलमान आक्रमणकारी मंदिरों को नहीं तोड़ते थे, हिन्दू राजाओं ने भी यह काम नियमित रूप से किया था (कृपया इसका प्रमाण न मांगें। एक उदाहरण, चाहे वह जैसा भी था, रोमिला थापर ने सन् 1969 में दे ही दिया। वह काफी है। वैसे भी, सिर्फ मुसलमानों को किसी अप्रिय काम का भागीदार कैसे बताया जा सकता है, चाहे वे बाहरी लुटेरे ही क्यों न हों? आखिर साम्प्रदायिक संतुलन भी कोई चीज होती है।)। अत: मुख्य बात यह है कि यदि मुस्लिम हमलावरों ने हिन्दू मंदिर तोड़े, मूर्तियों को ध्वस्त किया, तो कसूर मंदिर में रहने वाली बेशकीमती सम्पत्ति का था।इसके आगे शर्मा जी ने मध्यकालीन भारत में देश में जगह-जगह लोगों के मुस्लिम मजहब में मतान्तरित होने की घटनाओं पर गौर किया है। उन्होंने पाया कि ये घटनाएं उन इलाकों में ज्यादा हुईं, जहां बौद्ध आबादी ज्यादा थी। यानी जहां-जहां बौद्ध लोग थे वहां उनके इस्लाम में मतान्तरित होने की घटनाएं अधिक पाई गईं जैसे-कश्मीर, उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र, पंजाब, सिंध, नालंदा, भागलपुर और पूर्वी बंगाल (अब बंगलादेश) में बौद्ध काफी संख्या में रहते थे। तो क्या बौद्ध भारतवासियों के इस्लाम में मतान्तरित होने का कारण इस्लामी हमलावर थे? जी नहीं, उनका कारण दुष्ट हिन्दू थे। “ऐसा लगता है कि हिन्दू उनका बाकायदा उत्पीड़न कर रहे थे, जिससे उनके सामने केवल दो विकल्प बच रहे थे या तो वे भागकर दूसरे देशों में चले जाएं या फिर “इस्लाम मत अपना लें।” अब यदि बाबासाहेब अम्बेडकर जैसे लोगों ने भारत में बौद्ध आबादी के खात्मे का सीधा और एकमात्र कारण इस्लामी आक्रमण को बताया है तो जरूर उन्हें किसी ने बरगला दिया होगा।चूंकि अम्बेडकर स्वयं बौद्ध थे, इसलिए उन्हें हिन्दू साम्प्रदायिक कहकर कोसा तो नहीं जा सकता, जैसा शर्मा जी ने इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार के लिए बार-बार किया है। शर्मा जी के अनुसार, “मुस्लिम-विरोधी इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार को…यह बात “बहुत ही दु:खद” लगती है कि जब एक हिन्दू राज्य पर मुसलमानों ने हमला किया तो एक पड़ोसी हिन्दू राजा ने इस अवसर का लाभ उठाकर पीछे की तरफ से उस राज्य पर हमला बोल दिया।” सचमुच, रमेश चंद्र मजूमदार के मुस्लिम विरोधी होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है। जिन्हें महमूद गजनवी और तैमूर का भूत ऐतिहासिक रूप से संत्रस्त किए रहता है। शर्मा जी तर्क करते हैं कि यह ठीक है कि तैमूर ने दिल्ली में एक लाख हिन्दुओं का नृशंस नरमेध (एक दिन में) रचाया, मगर ऐसा तो वह समरकंद और मध्य एशिया में भी करता रहता था। तब हिन्दुओं के कत्लेआम में ऐसा क्या खासियत थी कि मजूमदार उसे तूल दें? निश्चय ही, यह उनका मुस्लिम-विरोधी होना ही दिखता है।शर्मा जी ने बच्चों की पाठ-पुस्तक “प्राचीन भारत” (2000) में एक नहीं, तीन बार इसे प्रमुखता से लिखा है:प्राचीन परम्परा के परम प्रेमी लाल ने प्राचीन (भारतीय) समाज को तर्कनिष्ठ दृष्टि से देखा और एक जबरदस्त पुस्तिका लिखकर यह सिद्ध किया कि प्राचीन काल में लोग गोमांस खाते थे (पृ. 7)।(ताम्र-पाषाण युग में भारतीय) लोग गोमांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सूअर का मांस अधिक नहीं खाते थे (पृ. 49)(उत्तर वैदिक काल में) यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी, जिससे खास तौर से पशुधन का ह्यास होता गया। अतिथि गोघ्न कहलाते थे, क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था (पृ. 95)।तीन बार गोमांस भक्षण का उल्लेख करने के पीछे बच्चों का ज्ञानवर्धन नहीं है। यह उनमें हिन्दुत्व के प्रति उपहास, अरुचि पैदा करने के लिए दिया गया इंजेक्शन है। इसीलिए शर्मा जी ने बच्चों को यह बताना कहीं जरूरी नहीं समझा कि प्राचीन भारत में लोग और क्या खाते थे या कि अतिथि और क्या कहलाते थे।अन्य माक्र्सवादीजाने-माने माक्र्सवादी इतिहासकार प्रो. डी.एन. झा ने गोमांस-भक्षण पर ही प्रसिद्धि हासिल की है। उन्होंने प्राचीन काल में हिन्दुओं द्वारा गोमांस-भक्षण पर पूरी किताब लिखी है। इसलिए नहीं कि वे प्राचीन भारतवासियों के खान-पान के इतिहास पर हमारा ज्ञानवर्धन करना चाहते थे, वरन् इसलिए कि उनके अपने ही शब्दों में “लातों के भूत बातों से नहीं मानते।” इससे उनका अर्थ यह है कि वे आज के हिन्दुओं की खिल्ली उड़ाना चाहते हैं। जो भी हो, उनकी यह अहंकारी भंगिमा उनकी ऐतिहासिक अध्ययन में श्रद्धा नहीं, किसी भिन्न भावना का ही संकेत करती है, जो और कुछ हो, पर विद्वत्-भाव से नहीं जुड़ी है। झा की प्रतिज्ञा इससे भी झलकती है कि उन्होंने रामायण और महाभारत टी.वी. सीरियल प्रसारणों का भी विरोध किया था। फिर उनकी एक महत्वपूर्ण खोज यह है कि “आज की साम्प्रदायिकता के बीज बोने वाले वे ब्राह्मण थे, जिन्होंने गाय को पूजनीय घोषित कर दिया।” कितने दुष्ट थे, प्राचीन भारत के वे ब्राह्मण! उन्हें मालूम होना चाहिए था कि सदियों बाद मुस्लिम आक्रांता आएंगे, वे गाय मारकर खाना “अजीम इस्लामी काम” मानेंगे, इसलिए उन ब्राह्मणों को गो-हत्या के विरुद्ध शास्त्रीय स्थापनाएं नहीं करनी चाहिए थीं। यदि हजारों साल पहले उन दुष्ट ब्राह्मणों ने गो-वध को अनुचित नहीं ठहराया होता, तो आज भारत में साम्प्रदायिकता न होती। यह डी.एन. झा का अद्भुत माक्र्सवादी विश्लेषण है।और हां, डी.एन. झा की अगली पुस्तक का शीर्षक है-“दुराचारी देवतागण और उनके नशे में चूर औरतें” (एडल्ट्रस गॉड्स एंड देयर इनएब्रिाएटेड वीमेन)। स्पष्ट है, यह हिन्दू ईश्वरों और उनकी चरित्रहीन औरतों पर ही शोध-ग्रंथ होगा! इस्लाम और ईसाइयत में ईश्वर बहुवचन होते नहीं, न इन मजहबों को माक्र्सवादी कभी छूते हैं। इस प्रकार यह प्रथम पंक्ति के भारतीय माक्र्सवादी इतिहासकार की रुचि का विद्वत्-विषय है।झा यह भी कहते हैं, “अगर राम और कृष्ण के मानने वालों को इससे ठेस लगती है तो हम क्या कर सकते हैं? इतिहासकार एक विश्वास या मान्यता की वजह से इतिहास की हत्या तो नहीं कर सकता।” किन्तु पैगम्बर मुहम्मद के मजहब को मानने वालों को कदापि ठेस न लगे, इसके लिए झा समेत तमाम माक्र्सवादी इतिहासकार हर उपाय करते हैं। इतिहास की हत्या तो बड़ी छोटी- सी चीज है। इस्लाम के मूल ग्रंथों में ही बार-बार गुलामों, स्त्रियों, काफिरों के बारे में दिए गए क्रूर आदेश, हिंसा के तमाम आह्वाहन, उसमें ईसाइयों, यहूदियों का अपमानजनक उल्लेख, किन्तु बौद्ध, जैन, हिन्दुओं आदि का उल्लेख न होना (जो सातवीं सदी के साधारण अरबी मनुष्य के ज्ञान की सीमा दिखाता है, इनके अल्लाह प्रदत्त इलहाम न होने का सबूत भी), इस्लाम के सर्वोच्च मजहबी अधिकारियों द्वारा दिए गए अनगिनत ऊल-जुलूल और हिंसक फतवे, जो आम मुसलमानों के लिए अनुकरणीय और प्राय: बाध्यकारी हैं, आदि-आदि महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तत्व माक्र्सवादी इतिहासकरों के लेखों, पुस्तकों में सिरे से गायब मिलते हैं।जाने-माने माक्र्सवादी इतिहासकार प्रो. के.एन. पणिक्कर ने हिन्दू धर्म के इतिहास पर यह ध्यान देने लायक बात कहीं है : “एक सुसंगत धर्म के रूप में हिन्दू धर्म का निर्माण उन्नीसवीं सदी की बात है, जिसमें यूरोप के प्राच्यविदों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।” यह एक ही वाक्य हमें माक्र्सवादी इतिहासकारों के धर्म, “रिलीजन” और हिन्दुत्व के ज्ञान के बारे में काफी कुछ बताता है। इसी प्रकार दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की एक प्रोफेसर हिन्दुत्व को “कैंसर” बताकर अफसोस जताती हैं।दूसरी पंक्ति के माक्र्सवादियों, यानी भारतीय संदर्भ में कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांतकारों में हिन्दुत्व के प्रति दुश्मनी एवं घृणा और भी प्रत्यक्ष है। उन्हें “दूसरी” पंक्ति का कहना केवल परिस्थितिजन्य है। क्योंकि यदि भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवादी क्रांति कर ली होती, तो पार्टी वाले यही माक्र्सवादी “सुपर-थिंकर” व “फिलासफर” माने जाते, जिनसे सभी माक्र्सवादी प्रोफेसर सिद्धांत और व्यवहार की गंभीर शिक्षा लेते। यही सोवियत, चीनी अनुभव रहा है, इसलिए यह मानने में कोई संदेह नहीं। अस्तु, कम्युनिस्ट सिद्धांतकारों, अर्थात् एक अर्थ में अधिक आधिकारिक माक्र्सवादी इतिहासकारों की हिन्दुत्व के प्रति क्या धारणा रही है, इसका एक नमूना निम्नलिखित है-पुस्तक परिचयपुस्तक का नाम – माक्र्सवाद और भारतीय इतिहास लेखनलेखक – शंकर शरणमूल्य – 400 रुपए, पृष्ठ – 282प्रकाशक – इंडिया फस्र्ट फाउंडेशनजी-3, धवनदीप बिÏल्डग,6, जन्तर-मन्तर रोड, नई दिल्ली-110001″अंकल टॉम्स केबिन” नामक रचना में एक नीग्रो गुलाम लड़की है, जिसे उसके जन्म के बाद से ही कई बार एक मालिक से दूसरे के हाथों बेचा जाता रहा। यहां तक कि वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि कभी उसका “जन्म” भी हुआ था। जब उससे पूछा गया कि वह कब पैदा हुई थी, तो उसने जवाब दिया, “मैं कभी पैदा नहीं हुई थी। मैं बस बड़ी हो गई।” बस, ठीक यही बात हिन्दुत्व के साथ है। यह सबसे बड़े विद्वान माने जाने वाले कम्युनिस्ट सिद्धांतकारों में से एक कामरेड एस.जी. सरदेसाई की व्याख्या है। इसी प्रकार माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा हाल में प्रकाशित एक पुस्तिका के एक लेख में हमें धर्म की यह सारगर्भित परिभाषा पढ़ने को मिलती है “धर्म एक हिन्दू धारणा है, जो जातिवाद, अस्पृश्यता, असमानता और स्त्रियों पर अन्याय का बचाव करते हुए समाज को एक रखती है।”एक माक्र्सवादी, जो हमारे प्रसिद्ध माक्र्सवादी इतिहासकारों के साथ ही मंच पर जहां-तहां शोभित नजर आते रहते हैं, के अनुसार “महमूद गजनवी द्वारा मंदिरों का तोड़ा जाना। किसी -न-किसी राज्य परिवर्तन में अवश्यंभावी था और इन्हें तोड़कर इस्लाम ने वास्तव में हिन्दुत्व का उद्धार किया। वे मानते हैं कि “हिन्दू कला का दम जब बंदी परिपाटी की बेहूदगियों में, बाह्र भूषा की बारीकियों और ऊंची कल्पना के अभाव में घुट रहा था तब इस्लाम ने नई कल्पना देकर उसकी आत्मा को बचा लिया।” (अब यह न पूछिए कि “हिन्दू कला की आत्मा” क्या थी भला?)(यह लेख “माक्र्सवाद और भारतीय इतिहास लेखन” से उद्धृत किया गया है)NEWS
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