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पढ़ो, बढ़ो और विजय प्राप्त करो
-कुप्.सी. सुदर्शन, सरसंघचालक, रा.स्व.संघ
छात्रों और शिक्षकों से श्री सुदर्शन का आह्वान-
भारत को महाशक्ति बनाने का
सपना पूरा करें!
-प्रतिनिधि
समारोह को सम्बोधित करते हुए श्री कुप्.सी.सुदर्शन। मंच पर अन्य गण्यमान्यजन हैं
(बाएं से) श्री सत्यनारायण बंसल, श्री डेविड फ्राली तथा डा. बजरंग लाल गुप्ता
जैसे युवा सैलाब उमड़ पड़ा था उस दिन नई दिल्ली के तालकटोरा सभागार में। भिन्न-भिन्न वेश-भूषा में, पारम्परिक व आधुनिक परिधानों में सजे-धजे महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों का यह सम्मेलन अपने आप में अनूठा था। किसी विशेष अवसर पर कुछ छात्र संगठनों ने भले ही किसी मांग या अधिवेशन के नाम पर इतनी भीड़ जुटा ली हो, पर रा.स्व.संघ के आह्वान पर इतनी बड़ी संख्या में आए इन छात्र-छात्राओं की न कोई मांग थी और न ही कोई धरना या शक्ति प्रदर्शन। यह सम्मेलन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण और अनोखा था कि ये छात्र-छात्राएं न केवल पूर्णत: अनुशासित थे बल्कि उन्होंने समाज व राष्ट्र से जुड़े गंभीर विषय पर हुए उद्बोधन को शांतिपूर्वक सुना। गत 18 मार्च को रा.स्व.संघ, दिल्ली प्रांत की ओर से आयोजित छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के इस सम्मेलन में आशा से कहीं अधिक संख्या थी। छात्राओं की बड़ी संख्या विशेष रूप से उल्लेखनीय कही जा सकती है। लगभग पांच हजार की क्षमता वाले तालकटोरा सभागार में स्थिति यह थी कि बीच के खाली स्थान और आने-जाने वाली सीढ़ियों पर भी लोग बैठे हुए थे।
सम्मेलन में सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन के विचार सुनती हुईं महाविद्यालयों की छात्राएं।
छात्र-छात्राओं एवं शिक्षकों के इस सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन। प्रख्यात अमरीकी विद्वान श्री डेविड फ्राली उपाख्य वामदेव शास्त्री ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
समारोह को सम्बोधित करते हुए श्री कुप्.सी.सुदर्शन ने कहा कि यह उन लोगों का सम्मेलन है जिन पर देश का भविष्य संवारने का गुरुतर दायित्व है। वही देश तरक्की कर सकता है जिसकी युवा पीढ़ी के मन में अपने भूतकाल का गौरव, वर्तमान की पीड़ा और भविष्य के प्रति सुनहरे सपने होते हैं। प्रत्येक देशवासी को यह जानना बहुत आवश्यक है कि हम क्या थे, क्या हैं और हमें बनना क्या है। दुर्भाग्य से हमारी नई पीढ़ी नहीं जानती कि उसका गौरवपूर्ण इतिहास क्या है। इसमें नई पीढ़ी का दोष नहीं बल्कि उस शिक्षा पद्धति का दोष है जिसने इन्हें इनकी जड़ों से काट दिया है। यही कारण है कि मानसिक दृष्टि से हम अपना गौरव भूल गए और हमारी दृष्टि पश्चिम केन्द्रित हो गई। उन्होंने देश की युवा पीढ़ी का आह्वान किया कि शक्ति सम्पन्न होने के लिए आत्म गौरव का भाव जगाएं।
अनेक उद्धरणों, उदाहरणों तथा प्रसंगों के माध्यम से श्री सुदर्शन ने छात्र-छात्राओं को यह समझाने का प्रयत्न किया कि अपनी मातृभाषा से जुड़े रहें। उन्होंने कहा कि हमारा अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है। हम अंग्रेजी सहित फ्रेंच, जर्मन या चीनी आदि विदेशी भाषाएं सीखें, यह अच्छी बात है। किन्तु यह बहुत आवश्यक है कि आठवीं कक्षा तक की शिक्षा मातृभाषा में दी जाए। मातृभाषा से कट जाने के कारण व्यक्ति उस पूरे भाव-जगत से ही कट जाता है जो उसे उसके इतिहास से जोड़ता है। उसके आदर्श बदल जाते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में मैकाले द्वारा शिक्षा पद्धति में किए गए षड्यंत्रों का ही यह कुफल है कि स्वतंत्रता के बाद भी कुछ लोग अपनी प्राचीन और महान संस्कृति तथा अपने गौरवपूर्ण इतिहास का विरोध करते हैं। इन मैकालेपुत्रों के साथ माक्र्स के वे मानसपुत्र भी जुड़ गए हैं जिन्होंने हमेशा राष्ट्रविरोधी कार्य किया। इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।
सभागार का एक विहंगम दृश्य
कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए डेविड फ्राली
श्री सुदर्शन ने युवा पीढ़ी को स्मरण दिलाया कि ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी आदि प्रत्येक क्षेत्र में भारत की मेधा सबसे आगे थी। वैदिक काल से ही हमने सम्पूर्ण विश्व का अपनी बुद्धि के बल पर मार्गदर्शन किया। हम विश्वगुरु कहलाए तो अपनी शक्ति के बल पर नहीं बल्कि अपनी बुद्धि के बल पर। आज हम ऐसी बहुत-सी चीजों के अविष्कारकर्ता के रूप में पश्चिम को देख रहे हैं, पश्चिम से अभिभूत हैं, जो कभी हमारे ही ऋषियों-मुनियों ने उन्हें दी थीं। महान गणितज्ञ सुश्रुत और बोधायन का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि दशमलव और शून्य का ज्ञान यदि हमारे ऋषियों ने न दिया होता तो गणित की पहेलियां आज भी अनसुलझी रहतीं। उन्होंने कहा कि पिछले एक हजार वर्ष की परतन्त्रता के कालखण्ड में हमारे इस गौरवशाली इतिहास को झुठलाने का प्रयास किया गया। अंग्रेजों ने ऐसे मानसिक रूप से गुलाम लोगों की पीढ़ी तैयार कर दी जो आज भी ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध करते हैं जो उन्हें उनके गौरवपूर्ण इतिहास से जोड़ता हो। श्री सुदर्शन ने वर्तमान परिदृश्य को संक्रमण काल की संज्ञा देते हुए कहा कि जब समाज व राष्ट्र में व्यापक बदलाव आता है तो अनेक प्रवृत्तियां (अच्छी या बुरी) उफान पर होती हैं। भारत में आज जो कुछ भी चल रहा है, वह एक व्यापक बदलाव का संकेत है। महर्षि अरविन्द की भविष्यवाणी का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि सन् 2011 में भारत एक बार फिर महाशक्ति बन जाएगा और विश्वगुरु के स्थान पर आरुढ़ होगा। उन्होंने युवा पीढ़ी का आह्वान किया कि भविष्य के इस सपने को मन में धारण कर शक्ति सम्पन्न, बल सम्पन्न बनें और राष्ट्र को बलशाली, समृद्धशाली बनाने के लिए आगे बढ़ें।
इससे पूर्व कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध अमरीकी विद्वान श्री डेविड फ्राली उपाख्य वामदेव शास्त्री ने बताया कि भारत की महान ऋषि संस्कृति ने उन्हें सदैव अपनी ओर आकृष्ट किया है। भारत-भूमि पर जन्मे ऋषि-मुनियों द्वारा रचे गए वेदों, उपनिषदों के ज्ञान का अध्ययन करने पर उन्होंने पाया कि भले ही आज पश्चिमी जगत विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में श्रेष्ठता के लिए जाना जाता हो, पर उसके पास वह दृष्टि नहीं है जो मानव मात्र को शांति दे सके, मोक्ष दे सके। यह दृष्टि केवल भारत ही दे सकता है। आध्यामिक ज्ञान की जो धारा इस ऋषि-भूमि से निकली है, वही सम्पूर्ण विश्व को शांति का मार्ग दिखा सकती है। उन्होंने युवा पीढ़ी का आह्वान किया कि इस ऋषि-संस्कृति का अध्ययन कर उसे नए संदर्भों में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करें।
दिल्ली का तालकटोरा सभागार इससे पूर्व कभी ऐसा नहीं देखा था। जहां तक नजर गई, युवा छात्र छात्राएं और शिक्षक बैठे दिखे
अंग्रेजी में दिए गए सम्बोधन में श्री फ्राली ने कहा कि भारत आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत है। यह दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक भारत अपने प्राचीन वैभव एवं गौरव के प्रति उदासीन है। हर भारतीय को समझना होगा कि वह अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा के बल पर ही शक्ति सम्पन्न हो सकता है। व्यक्तिगत स्वार्थों की संकुचित परिधि को बढ़ाकर उसका सम्पूर्ण सृष्टि से तादात्म्य स्थापित करने की आध्यात्मिक दृष्टि केवल भारत में जन्मी ऋषि परम्परा ने दी है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व में अपनी पहचान बनाने के लिए भारत के युवाओं को चाहिए कि वे अपनी प्राचीन ज्ञान परम्परा का अध्ययन करें।
इस अवसर पर रा.स्व.संघ, उत्तर क्षेत्र के क्षेत्र संघचालक डा. बजरंग लाल गुप्ता एवं दिल्ली प्रांत के संघचालक श्री सत्यनारायण बंसल भी मंचस्थ थे। समारोह में उत्तर क्षेत्र के प्रचारक श्री दिनेश चन्द्र, पूर्व प्राध्यापक एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री ओमप्रकाश कोहली, वरिष्ठ स्तंम्भकार श्री देवेन्द्र स्वरूप एवं श्री नरेन्द्र कोहली सहित दिल्ली के महाविद्यालयों के वर्तमान तथा पूर्व प्राध्यापक भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
तलपट
कर्णावती (गुजरात) निवासी सुश्री केतकी शाह ने 58 वर्ष की उम्र में 100 बार रक्तदान करने का एक कीर्तिमान स्थापित किया है। गत 25 फरवरी को उन्होंने सौवीं बार रक्तदान किया। सुश्री केतकी शाह से पूर्व 37 अन्य लोगों ने गुजरात में 100 बार रक्तदान किया है परन्तु उनमें एक भी महिला नहीं थी। सुश्री केतकी शाह को गुजरात की प्रथम शतकीय महिला रक्तदाता होने का गौरव प्राप्त हुआ है। वे गत 40 वर्षों से लगातार रक्तदान कर रही हैं। 1985 में 50 बार रक्तदान करने वाली प्रथम महिला बनने पर राज्य के तत्कालीन राज्यपाल श्री बी.के. नेहरू द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया था। अब रक्तदान का शतक पूरा करने पर वर्तमान राज्यपाल श्री नवल किशोर शर्मा ने उन्हें सम्मानित किया।
वर्ष प्रतिपदा विशेषांक 10 अप्रैल 2005
आस्था-केन्द्रों पर प्रहार रोकने हैं तो हिन्दू समाज को एकजुट होना होगा -श्री श्री रविशंकर प्रणेता, जीवन जीने की कला (आर्ट आफ लिविंग)
जन-जन में व्याप्त हिन्दुत्व की अदृश्य अजस्रधारा -देवेन्द्र स्वरूप
अल्पसंख्यकों के नाम पर देश की अस्मिता पर आघात -योगेन्द्र मोहन गुप्त अध्यक्ष व प्रबंध निदेशक, दैनिक जागरण
हिन्दू ही लोकतंत्र के रक्षक -पूरन चन्द्र डोगरा (आई.पी.एस.) पूर्व महानिदेशक, पंजाब पुलिस
नहीं, कोई खतरा नहीं हिन्दुत्व को -टी.जे.एस. जॉर्ज वरिष्ठ स्तम्भकार
बौद्धिक पुनर्जागरण का समय-राकेश सिन्हा वरिष्ठ व्याख्याता, दिल्ली विश्वविद्यालय
अथ भारत हिन्दू ही रहे क्योंकि भारत-तत्व का कोई और ठौर नहीं -तरुण विजय
कही-अनकही नई शालीनता?-दीनानाथ मिश्र
कहानी सवाल साबिर हुसैन
कविताएं आदमी बौना हुआ… -माधव कौशिक
नींव का हाहाकार -रामधारी सिंह “दिनकर”
शत नमन, शत वन्दना, माधव! तुम्हारी साधना की -देवदत्त
संघ कार्य प्रतिपल बढ़ता है -महेश शुक्ल
शुभ जन्मशती पर नमस्कार -उदयभानु हंस
नंदा-दीप माधव -सुमन चन्द्र धीर
नफरत नहीं, सिर्फ प्यार -जनरल (से.नि.) विश्वनाथ शर्मा पूर्व थलसेनाध्यक्ष
भारत में मुस्लिमबहुल राज्य बनने चाहिए -डा. उमर खालिदी
सदस्य, एम.आई.टी. वास्तुशिल्प कार्यक्रम, कैम्ब्रिज (अमरीका)
20 साल और हिन्दू घटने दीजिए असम हाथ से निकल जाएगा धीरेन्द्रनाथ बेजबरुआ,
निवर्तमान संपादक, द सेंटिनल (गुवाहाटी)
वक्त की आहट को पहचानें सुभाष कश्यप संविधानविद् एवं पूर्व लोकसभा महासचिव
बेहिचक अपनी श्रेष्ठता बतानी होगी डा.त्रिपुरानेनी हनुमान चौधरी पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी सलाहकार, आन्ध्र प्रदेश सरकार तथा महाति सदस्य-टाटा कंस्लटैंसी सर्विसेज एवं पूर्व अध्यक्ष तथा प्रबंध निदेशक-विदेश संचार निगम लिमिटेड
अपनी कुल्हाड़ी, अपना पांव अमीर चन्द कपूर
जिन्होंने 25 प्रतिशत आरक्षण लिया हुआ हो उन्हें अब और कितना चाहिए? मूर्ति मुथुस्वामी (लेखक अमरीका में परमाणु वैज्ञानिक हैं तथा इंडियन-अमेरिकन इंटेलेक्चुअल फोरम, न्यूयार्क के निदेशक हैं)
खतरा हिन्दुओं के कम होने का नहीं, हिन्दुओं के नकारात्मक बनने का है
धर्म के साथ राष्ट्र भी नष्ट होता है विभा तैलंग
भारत की हिन्दू-बहुलता संकटों के घेरे में हिन्दू ही नहीं रहेंगे तो कहां रहेगा भारत? प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा, लोकसभा में भाजपा के उपनेता
बहुसंख्यक हिन्दुओं की देन है सेकुलरिज्म सरदार तरलोचन सिंह अध्यक्ष, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एवं राज्यसभा सदस्य
आंकड़ों ने दर्शाया हिन्दुओं पर संकट राजेन्द्र चड्ढा
युगक्षय एवं नवसंकल्प का काल जितेन्द्र बजाज
माक्र्सवाद और भारतीय इतिहास लेखन भारत के कम्युनिस्टों के मन में गहरे बैठा है- हिन्दुत्व से वैर शंकर शरण
संवत् के मनोरंजक सत्य देवदत्त
चन्द्रावदान कालतन्त्रम् चद्रकान्त बाली “शास्त्री” भारत में कालगणना की 9 विधियां हैं- सप्तर्षि संवत्, सौर, चान्द्र, शायन, पैत्र्य, ब्राह्म, प्राजापत्य, बार्हस्पत्य और सावन।
यह हिन्दुत्व मेरा नहीं सागरिका घोष बंगाल के लोकप्रिय मध्यकालीन संत सत्यापीर की कथा, तमिलनाडु के मुस्लिम कवि, कवियों के तजकीरा (विवरण),
पाकिस्तान मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चौधरी शुजात हुसैन ने कहा- हम बंटवारे के अधूरे काम पूरे करेंगे चौधरी शुजात हुसैन
हिन्दुओं पर है दुनिया को सही रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी अशोक चौगुले प्रदेश अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद् (महाराष्ट्र)
इस तरह जगेगा हिन्दू, तो घटेगा नहीं रमेश पतंगे संपादक, साप्ताहिक विवेक (मुम्बई)
श्री गुरुजी जन्म शताब्दी वर्ष के संदर्भ में विशेष विचार-खण्ड
नकारात्मक हिन्दू नहीं, निष्ठावान हिन्दू बनें!
क्या हम जीवित हैं?
भीषण संकटों में भी निराश न हों
विजय हमारी ही होगी
शत्रु-मित्र की पहचान आवश्यक
वीर की अहिंसा चाहिए, कायर की नहीं
शत्रु का साहस तोड़ें और
अप्रिय घटनाओं से उत्तेजित न हों
अपने ही लोग खोद रहे हैं एकता की जड़ें
आत्मविश्वास जगाओ
संकल्पवान स्त्री के सामने यमराज भी हारता है
राष्ट्रीय एकात्मता के समक्ष
चुनौतियां और समाधान
साधु समाज से अपेक्षा
NEWS
तरुण विजय
भारत हिन्दू ही रहे क्योंकि
भारत-तत्व का कोई और ठौर नहीं
दुनिया में सब मानते हैं कि हिन्दू गणित में पारंगत होते हैं। अंक हमने दिए, शून्य हमने दिया, प्रकाश की गति हमने मापी, पाई का मान पाइथागोरस से पहले हमने निकाला। इसलिए शायद हम अपनी गिरावट के खाते सहेजने में भी निपुण ही रहे। हम तुरंत बता सकते हैं कि इस भारतीय उपमहाद्वीप में, जिसे अब थके और अभारतीय भारतीय बन चुके विशारद दक्षिण एशिया कहते हैं, 100 साल पहले कितने हिन्दू थे, अब कितने घट रहे हैं, यही दर जारी रही तो अगले 20, 40 और 60 साल में हिन्दू कितने कम हो जाएंगे तथा अंतत: वे किस सन् में संग्रहालय में दिखाए जाने योग्य अल्पसंख्यक बन जाएंगे। यह सब तब, जब कहने को तो हर क्षेत्र और हर स्तर पर हिन्दू ही हैं। विजय मल्लया को देखिए, भारतीय राजकुमारी नामक दुनिया की सबसे ऐश्वर्य और विलासितापूर्ण समुद्री नौका उन्होंने खरीदी है। कीमत है 100 करोड़ से ऊपर। दुनिया के सबसे ज्यादा धनी और ऐश्वर्य सम्पन्न पांच व्यक्तियों में एक हिन्दू हैं लक्ष्मीनिवास मित्तल। शायद ही दुनिया की ऐसी कोई बड़ी कम्पनी- इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर या वित्त प्रबंधन से जुड़ी होगी जिसके अध्यक्ष या मुख्य इंजन के रूप में सक्रिय कोई हिन्दू न हो। पर हालत क्या है हिन्दुओं की? हिन्दू मंदिर, हिन्दू तीर्थस्थान, संस्कृत विद्यालय और वेद पाठशालाएं? छोड़िए, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दुओं की संख्या घटती है तो किसे दर्द होता है? नेहरू युवा केन्द्र से विवेकानन्द के चित्र हटा दिए गए, सेना में धार्मिक चिन्हों पर पाबंदी लगा दी गई, हज को बढ़ावा और कैलास यात्रा पर खामोशी ओढ़ ली गई, मुजफ्फराबाद के लिए बस चलाई पर जम्मू के हिन्दू भुला दिए गए, मंदिरों का अधिग्रहण जारी रहा और शंकराचार्य जी पर प्रहार हिन्दुओं ने ही किए। हिन्दुत्व से जुड़े संगठनों को अमरीका से फटकार मिलती रही और इसे नजरअंदाज कर उसकी बूट पालिश भी वही हिन्दू करते रहे जो उस सरकार के लख्ते जिगर और नूरे चश्म थे, जिस सरकार को अमरीका के अखबार हिन्दू राष्ट्रवादी कहते रहे। और वे हिन्दू ही सबसे आगे रहे यह कहने में कि क्या हुआ अगर हिन्दू हिन्दुस्थान में ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे, “हमारी मिली-जुली संस्कृति इस्लाम की चमक से और चमकेगी।” ये हिन्दू ही थे और हैं जिन्हें अभी तक यह अहसास नहीं हुआ है कि तिब्बत के खोने का अर्थ क्या है। जिन्हें यह भी पता नहीं है कि ल्हासा कहां है और हमारे पूरे पूर्वी विश्व को सिंचित करने वाली नदियों का उद्गम किस क्षेत्र में है। दुनिया का सबसे बड़ा जल भंडार कहां है और कैलास मानसरोवर तथा सिन्धु नदी तक जाने और नहीं जा पाने के बीच कितना कम फासला है। क्या उनसे आप अपेक्षा कर सकते हैं कि वे हिन्दू धर्म और उस धर्म के प्रतीकों और उन प्रतीकों के प्रति भक्ति भाव रखने वाले लोगों की रक्षा के प्रति चिंतित होंगे?
चिंतित तो वो हों जो इस बात को समझे कि हिन्दू होने का अर्थ क्या है। और अगर विधाता ने उसे किसी हिन्दू घर में पैदा किया तो वह एक दुर्घटना नहीं बल्कि जिम्मेदारी है। वह हिन्दू जो दुर्गा की पूजा करता है पर गर्भ में आई देवी की हत्या करता है, वह हिन्दू जो छठ पर गंगा-यमुना में कमरभर पानी में खड़े रहकर पूजा करते हुए फोटो खिंचवाता है, सरकारी बंगले के पिछवाड़े गऊएं पालता है, खुद को यदुवंशी कहता है, जब वोट की खातिर हिन्दुओं के हत्यारों को निर्दोष बताने वाला फरमान हवा में लहराता है और गो हत्यारों के साथ रोटी बांटता है, विदेशी धन से स्वदेशी धर्म पर चोट करता है, तो उस हिन्दू का धर्म देश के साथ जुड़ा ही नहीं है ना।
उसका धर्म देश के साथ जुड़े और राष्ट्रधर्म बने, उसके लिए भारत सिर्फ पत्थरों, नदियों और जंगलों का भूखण्ड नहीं बल्कि भवानी भारती के रूप में जीवन्त जगज्जननी का श्रद्धा स्थान हो इसीलिए राष्ट्र को सर्वांग समर्थ बनाने का मंत्र दिया डा. हेडगेवार ने। जिसकी व्याख्या परम पूज्य श्री गुरुजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व में मिली। पर काम जितना बाकी है हर दिन उतनी ही कठिनाईयां सामने आती हैं और वे ज्यादातर अपने भीतर की कमियों और अपने ही समाज की नासमझियों से पैदा होती है। आज भी अधिकांश हिन्दू समाज या तो हिन्दुत्व की हमारी अवधारणा को समझता नहीं या उसका विरोधी है। क्या हम अपने लिए कोई लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं कि सभी हिन्दुओं को साथ में लेकर हम कैसे और कब तक अपने अभीष्ट के निकटतम पहुंचेंगे? हम अपनी संस्कृति और सभ्यता की यह कहकर प्रशंसा करते हैं कि यहां कभी किसी गैलिलियो को उसकी किसी धारणा के कारण सजा नहीं दी गयी। इसीलिए यह भी जरूरी है कि हर हिन्दुत्व विरोधी को राष्ट्र विरोधी करार देने के मोह से हम परे हटें और यह याद रखें कि डाक्टर जी ने कहा था कि समाज में जो सबसे मेधावी प्रतिभाशाली हो और वह भी जो हमारा सबसे कट्टर विरोधी हो उसे हम अपनी बात समझाकर किस प्रकार साथ में लाएं इस पर जोर देना चाहिए। पर कई बार लगता है कि हम अपनी ही रौ में बहते हुए “हम ठीक बाकी सब गलत” के तख्ते से जो गैर हैं उनको अपना बनाना तो दूर, जो अपने हैं उनको ही गैर बनाने की कला में पारंगत होते जा रहे हैं। इसलिए जब कभी संशय हो तो बार-बार श्री गुरुजी को पढ़ें, डा. जी के जीवन का मनन करें तो भ्रमों का कुहासा भी दूर होगा और अपना असली बिम्ब भी उस आईने में दिखेगा। तब हम दूसरे पर उंगली उठाने से पहले खुद से पूछ सकेंगे कि हम किस हिन्दुत्व की बात करते हैं? वह हिन्दुत्व, जिसके मानने वाले अपने देवी, देवताओं के पूजा-स्थल यानी मंदिरों को साफ नहीं रख सकते, जिसके मानने वाले सबसे ज्यादा गो हत्या करके विदेशों में उसका मांस भेजते हैं, जो इतने दब्बू हैं कि अमरीका से दोस्ती की गप्पें हांकते हैं और फिर तमाचा खाते हैं। ये वही हिन्दू हैं जो अपने ही मतान्तरण के लिए सुविधाएं जुटाते हैं और अपनी कम्पनियों से गैरहिन्दू संस्थाओं को हिन्दू विरोधी कार्यों के निमित्त चंदा देकर खुश होते हैं। इन हिन्दुओं ने कभी अपने धर्मशास्त्र और इतिहास का अध्ययन नहीं किया पर शेक्सपीयर पढ़ा, लिंकन रटा तथा हिन्दू संस्कृति से आलोकित पूर्व एशिया को ऐसा मान लिया मानो वह मानचित्र में है ही नहीं। और फिर अपने लेखन, पुरस्कारों, जीवन शैली और शिष्टाचार को पश्चिम के खूंटे से बांध दिया। इन पश्चिमी देशों का कुत्ता भी मरे तो दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों में खबर बनती है। पर भारतीय भाषा के किसी महान साहित्यकार और पूर्वी एशियाई देशों के बड़े नेताओं के बारे में दो पंक्तियां नहीं छापते।
सोचिए, जब मुल्तान ढहा होगा या तक्षशिला लुटा होगा तो तब के हिन्दुओं में और आज के हिन्दुओं में क्या फर्क है। वैभव, ऐश्वर्य, आत्ममुग्धता और निस्सीम ज्ञान। पर उतनी ही आपसी जलन, एक दूसरे को गिराने, नीचा दिखाने की अदम्य लालसा। नतीजा?
हिन्दू होने की कुछ निशानियां हो सकती हैं, जैसे कुंभ मेले में जाना, पितरों का स्मरण करना, श्राद्ध करना, मरने पर अंत्येष्टि के समय संस्कृत में मंत्र बोलने वाले पंडित को बुलाना और घर में बच्चा पैदा हो तो हिन्दू रीति-रिवाज से मंगल संस्कार करना, शादी के समय संस्कृत में मंत्र पढ़वाते हुए अग्नि के सात फेरे लेना। यह सब करते हुए भी जो हिन्दू संस्कृत को मृत भाषा और हिन्दुत्व को गाली मानते हों, उनके बारे में आप क्या कहेंगे? पढ़-लिखकर अंग्रेज बन जाने वाले न कुम्भ जाते हैं, न श्राद्ध करते हैं, न होली-दीवाली पर संस्कृत में पूजन। वे हिन्दू धर्म पर अमरीकी किताबें पढ़ते हैं और अधकचरी, अनपढ़ों सी बहस करते हैं। दुनिया में जिस मजहब ने स्त्री को पिछली शताब्दी तक आत्माहीन और चुड़ैल माना तथा अमरीका जैसे देश में उसे मतदान तक का अधिकार नहीं दिया, जो मजहब स्त्रियों को केवल “खेती” मानता है वे ही इस हिन्दू बहुल देश पर सवार हैं और इसके लिए सबसे ज्यादा मददगार हैं हम स्वयं।
हम एक लुंज-पुंज, सामंती, धन से संचालित संस्कृति रहित उस व्यवस्था को धर्म यानी सनातन हिन्दुत्व के नाम पर पाल-पोस रहे हैं जिसके विरुद्ध खड़े होना और ललकारना वास्तव में हमारी धार्मिक शक्ति की पहचान होनी चाहिए थी। क्या हम एक कर्मकाण्डी, चारों ओर से खतरों की शिकायत करने वाले आत्मविश्वासहीन हिन्दुत्व को लेकर नए भारत का निर्माण कर सकते हैं या हमारा हिन्दुत्व विवेकानंद, और दयानंद की पाखण्ड खण्डिनी पताका लिए उस अमर वाक्य से प्रेरणा ग्रहण करता है कि, “सवा लाख से एक लड़ाऊं, तां मैं गुरु गोबिंद कहाऊं”?
जो इस बात पर विश्वास रखते हैं कि हम ठीक हैं क्योंकि धर्म हमारे साथ है, वे शिकायतों के ज्ञापन नहीं लिखते बल्कि नए परिवर्तनों को आत्मसात करते हुए 40, 60 और 70 के थक, चुक चुके लोगों की मानसिकता से परे जोखिम उठाकर भी नई बात सामने रखते हैं। यही होगा श्रीगुरु जी की जन्म शताब्दी के मर्म को समझना, क्योंकि उन्हीं संन्यासी योद्धा ने नए रूढ़िविहीन समाज के स्वप्न को साकार करने की दिशा दिखाई थी। टी.जे. एस. जार्ज ठीक कहते हैं, खतरा बाहर से नहीं भीतर से है। निर्णायक युद्ध हिन्दू बनाम विधर्मी नहीं बल्कि हिन्दू विरुद्ध “अहिन्दू” हिन्दू होगा। ये “अहिन्दू” हिन्दू वे हैं जो स्त्रियों को सिर्फ भोग्या, संरक्षिता या चारा मानते हैं। वे बड़े-बड़े नामी भंडाफोड़ पत्रकार भी अपनी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के लिए स्त्री का एक घटिया चारे की तरह से वैसा ही इस्तेमाल करते हैं जैसे मछली फंसाने के लिए कांटे में मांस का टुकड़ा बांधा जाता है। स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में सबसे ज्यादा चीखने वालीं कम्युनिस्ट नेताओं से पूछिए-उनके पोलित ब्यूरो तक में स्त्री को स्थान नहीं मिलता, कम्युनिस्टों ने स्त्री मुद्दे का सिर्फ बाजारू प्रदर्शन हेतु “इस्तेमाल” किया है। कभी किसी मुकाम पर माक्र्सवादी संगठनों में स्त्री को नेतृत्व देने की बात सोची भी नहीं जा सकती। हम गार्गी और मैत्रेयी के उदाहरण देते हैं, पर स्त्री को सह पथगामिनी या समर्थ सहचरी के रुप में प्रतिष्ठा देने से कतराते हैं और स्त्री के सबंध में संरक्षण के किसी बड़े ऊंचे मंच से व्याख्यान देते हैं। हिन्दुओं की यही दृष्टि उन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के वीर समाज के प्रति है जिनको हमारे तथाकथित बड़े लोग “प्रोत्साहन”, “संरक्षण”, “आरक्षण”, के सहारे “आगे बढ़ाना” चाहते हैं। साल दो साल में एक आध ऐसा कार्यक्रम किया जाता है जिससे समरसता की बात का प्रचार हो। पर न तो हमारे व्यक्तिगत आमंत्रणों में, न ही हमारे घरों की बैठकों में, न ही हमारे तीज त्यौहार पर घरेलू पूजन में “वे लोग” शामिल किए जाते हैं। सच बात यह है कि तर्क शास्त्री इसके बारे में चाहे कितनी ही सफाईयां दें और अपने पाखंड पूर्ण व्यवहार को तर्क संगत सिद्ध करने में सफल होते रहें लेकिन हमारे मित्रों में तो न इन वीर जातियों और जनजातियों के लोग होते हैं न ही वे गैर हिन्दू जिनके साथ हम बातचीत भी करना चाहते हैं और जिनको हम अपनी बात समझाना भी चाहते हैं। उन्हें हम भारतीय भी कहते हैं, एक पूर्वजों की सन्तान भी मानते हैं, पर मिलने और समझने से परहेज करते हैं। ऐसी विद्वता और मिथ्या तार्किकता के अहंकार वाला हिन्दुत्व माक्र्सवाद या जिहाद या अन्य बाहरी शत्रुओं की एकजुट ताकत के सामने कैसे खड़ा हो पाएगा?
आनंद की बात यह है कि इस स्थिति की बर्फानी चादर थोड़ी-थोड़ी टूट रही है। आत्म मंथन और जागरण का उजाला फैलने लगा है और उसी परिमाण में राष्ट्रीयता विरोधी शोर भी बढ़ने लगा है। उनका बढ़ता शोर भारत-भक्ति के विचार यानी हिन्दुत्व की विजय का प्रारंभिक प्रमाण है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि भारत और हिन्दू पर्याय हैं। यह आत्मविश्वास तो रखना ही होगा कि जमाना हमसे है। वक्त हम बदलेंगे न कि वक्त को इजाजत देंगे कि वह हमें ही बदल दे।
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