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लड़ाई बाजारवाद से- हेमन्त उपासनेभारतीय संस्कृति और परंपराओं को छिन्न-भिन्न कर, सारी वर्जनाओं को तोड़ती, पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगी युवा पीढ़ी पश्चिमी देशों के अंधानुकरण के दौर से गुजर रही है। छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है।गत 7 अगस्त को मनाए गए “फ्रेण्डशिप डे” को धूमधाम से मनाने के लिए रायपुर के एक दैनिक समाचार पत्र ने अनेक कंपनियों के सहयोग से धमाकेदार आयोजन किया, जिसमें मुम्बई के एक नृत्य समूह की युवा नृत्यांगनाओं को तेज संगीत की धुनों पर थिरकने के लिए आमंत्रित किया गया। फिल्मों की तर्ज पर नकली बारिश में भीगते हुए नृत्य करने के लिए युवक-युवतियों के समूह को प्रोत्साहित किया गया। छत्तीसगढ़ में इस पश्चिमी परम्परा की शुरुआत इस प्रतिष्ठित समाचार पत्र समूह ने कर दी है।यह हवा ग्रामीण क्षेत्रों तक फैल चुकी है। रायपुर से 90 किलोमीटर दूर गरियाबंद क्षेत्र की एक “डेली नीड्स” के संचालक लक्ष्मीचंद देवांगन ने बताया कि “फ्रेण्डशिप डे” के मौके पर ग्रामीण छात्र-छात्राओं द्वारा अपने मित्रों को “फ्रेण्डशिप बैण्ड” बांधकर उपहार दिए गए। आधुनिकता के नाम पर आयी इस नई बयार ने युवकों में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन भी पैदा किए हैं।राजनंदगांव जिले की अंबागढ़ चौकी क्षेत्र में “फ्रेण्डशिप डे” के दिन एक 25 वर्षीय युवक ने प्रेम में असफल होने पर अपनी 19 वर्षीय प्रेमिका की, गला काटकर, हत्या कर दी और स्वयं भी फांसी पर झूल गया।युवकों को नशे और कामुकता की ओर आकर्षित करने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है। कुछ दिनों पूर्व ही सरगुजा में दो व्यक्तियों को बड़ी मात्रा में कोकेन के साथ गिरफ्तार किया गया। रायपुर के प्रमुख स्थल की एक चाय दुकान पर हमेशा भीड़ रहती थी। जांच से पता चला कि चाय वाला अफीम मिले दूध की चाय बनाता था।टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले चैनल घरों के शयन कक्ष और बैठक कक्ष तक पहुंचकर मनोरंजन और ज्ञानवर्धन के नाम पर यह कहकर कि दर्शक यही सब देखना चाहते हैं, वह सब कुछ दिखाया जा रहा है जो घर-परिवार में सबके साथ देखा ही नहीं जा सकता। मिस वल्र्ड, मिस यूनिवर्स की तर्ज पर हर गली-मोहल्ले में, महाविद्यालयों में, मिस कालेज, मिस सिटी प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही हैं। बची-खुची कसर इंटरनेट ने पूरी कर दी है। मोबाइल पर अश्लील चित्र संदेश (एम.एम.एस.) की बाढ़ आई हुई है।पश्चिम के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना सिखाने वाली ढेरों संस्थाएं कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं। ईसाई मिशनरियों के अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में माता-पिता मुंह मांगा धन देकर अपने बच्चों को प्रवेश दिला रहे हैं।दुर्गा महाविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष और कला संकाय के स्नात्तकोत्तर छात्र जहीर अहमद निजामी ने नशा, बाजारवाद और पश्चिमी संस्कृति के बढ़ते प्रचलन के बारे में कहा कि नशे की बढ़ती प्रवृत्ति व्यक्ति की अपनी सोच का परिणाम है। युवा आजादी का गलत अर्थ लगाया जा रहा है। समाज में खुलेआम बढ़ती नग्नता और अश्लीलता, विशेषत: फिल्मों में, फैशन परेड में और मिस वल्र्ड जैसी प्रतियोगिताओं में, को रोकना चाहिए। सभी टी.वी. चैनलों पर भी इस सन्दर्भ में कठोर “सेन्सर” होना चाहिए। स्वतंत्रता स्वच्छन्दता न बन जाए, इसकी जिम्मेदारी परिवार और माता-पिता पर भी है। घर का बालक बाहर क्या कर रहा है, यह परिवार में माता-पिता, बड़े बुजुर्गों को पता होना ही चाहिए। निजामी बिगड़ती सामाजिक परिस्थितियों के लिए राजनीति, नेताओं और समाज में मार्गदर्शक व्यक्तित्वों की कमी को भी जिम्मेदार ठहराते हैं।रायपुर के प्रख्यात होमियोपैथी विशेषज्ञ डा. विद्याकांत त्रिवेदी का कहना है कि पाश्चात्य सभ्यता भारत के नौजवानों को दिगभ्रमित कर तीव्र गति से उन्हें एवं भारत के भविष्य को गर्त की ओर ले जा रही है। भारतीय संस्कृति एवं पारंपरिक पर्व हमारी सबसे मूल्यवान निधि हैं। इनकी रक्षा में न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण मानवता का कल्याण निहित है। पाश्चात्य सभ्यता और पूंजीवाद के दबाव में विभिन्न चैनलों पर प्रसारित धारावाहिकों में भारतीय संस्कृति के विपरीत अश्लीलता, नग्नता और द्वेष-कपट पूर्ण कथानकों का प्रदर्शन एक षडंत्र के अन्तर्गत ही हो रहा है, ताकि भारतीय समाज में टूटन बढ़े। वैलेन्टाइन डे, फ्रेंडशिप डे, हसबैण्ड-वाइफ डे जैसे भौंडे पश्चिमी प्रदर्शन बाजारवाद की देन है। इनके द्वारा भारतीय पर्वों और भारतीय संस्कृति से समाज को विमुख करने का दुष्चक्र चल रहा है। अत्याधुनिक जीवन शैली के नाम पर मादक द्रव्यों, अश्लीलता और उन्मुक्त कामुकता के जाल में युवा पीढ़ी को फंसाया जा रहा है। इन सब पर तत्काल रोक लगाना जरूरी मानते हुए डा. त्रिवेदी का कहना है कि भारत में पहली कक्षा से दसवीं कक्षा तक नैतिक शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए, जिसमें भारतीय संस्कृति एवं महापुरुषों की जीवन गाथाएं हों ताकि इनसे देश की भावी पीढ़ी निरंतर प्ररेणा प्राप्त करती रहे।लेकिन भूगोल विषय लेकर स्नात्तकोत्तर की शिक्षा प्राप्त कर रही सुपर्णा सूर इस सवाल पर कि, “युवा आजादी का अर्थ क्या नशा और कामुकता है” कहती हैं कि युवकों के व्यवहार और उनके कार्यों को समाज में गलत ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है।” उनके अनुसार युवक-युवतियों द्वारा मनाए जाने वाले वैलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे, हसबैण्ड-वाइफ डे की गलत ढंग से व्याख्या की जा रही है। 31 दिसम्बर को तो समाज के प्राय: सभी लोग बढ़-चढ़कर “न्यू ईयर” मनाते हैं, उनका विरोध क्यों नहीं होता? युवा आजादी का अर्थ अब शिक्षा और उत्तरोत्तर विकास की ओर बढ़ने से लगाया जाना चाहिये।”इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों में दूरदर्शन के लिए वृत्त चित्र और टेलीफिल्म निर्माण के कार्य में लगे 25 वर्षीय प्रभात मिश्र ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता की पंक्तियां -जो मस्त होकर “तत्वमसि” का गान करते थे सदा,मद्यादि मादक वस्तुओं से मत्त हैं अब हम वहीकरते सदैव प्रलाप हैं सुध-बुध सभी जाती रही…का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि अवनति को रोकने का एकमात्र विकल्प हमारी श्रेष्ठ परंपरा की ओर लौटना है। हमारी पहचान गौरवशाली परंपरा के श्रेष्ठ वाहक के रूप में ही हो सकती है। आज के युवा जो किसी प्रायोजित प्रदूषण माध्यमों से प्रभावित होकर स्वयं की स्वतंत्रता को नशे और कामुकता में ढूंढ रहे हैं, वह मृगतृष्णा व क्षणिक भ्रम के सिवाय कुछ नहीं है।गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकों की दुकान के रायपुर स्थित मुख्य डिपो के विक्रय प्रतिनिधि संतोष कुमार सिंह कहते हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने धन कमाने की लालसा पैदा कर दी है। इस अर्थ व्यवस्था में अच्छे मार्ग का अभाव है। अध्यात्म और जीवन-मूल्यों के लिए इसमें कोई स्थान नहीं है। यह बात लोगों के दिमाग में बैठा दी गई है कि अच्छे काम करके इतना धन नहीं कमाया जा सकता कि मनचाही मुराद पूरी हो जाए। जबकि गलत कामों से धन कमाना आसान है। यही कारण है कि अच्छे घरों की युवतियां, जो कालेजों में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, वैलेन्टाइन डे और फ्रेण्डशिप डे पर क्लबों, डिस्को में नाच रही हैं और रैम्प पर अर्धनग्नता का प्रदर्शन कर रही हैं। कुछ हजार रुपयों की अतिरिक्त आय के लिए बड़े तबके की, कालेजों की लड़कियां उपलब्ध हो जाती हैं। जहां तक कामुकता की बात है तो इसमें इंटरनेट और ब्लू फिल्मों ने आग में घी का काम किया है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं है, क्योंकि सभी को सिर्फ पैसा चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ सारी पश्चिमी सामाजिक बुराइयां हमारे देश में आई हैं। इसके लिए युवा उतने दोषी नहीं हैं जितने सत्तासीन राजनेता, धर्माचार्य और पूंजीपति। क्योंकि ये देश की नई पीढ़ी के सम्मुख प्रबल आदर्श रख सकने में नाकाम साबित हुए हैं।छत्तीसगढ़ के प्रख्यात नाटकर्मी एवं मैट्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र, बिजनेस इथिक्स और संप्रेषण कला विषय के व्याख्याता तथा महाराष्ट्र नाट मंडल, रायपुर के संस्थापक सदस्य प्राध्यापक श्री अनिल कालेले, जिन्होंने 27 नाटक भी निर्देशित किए हैं, ने कहा कि युवाओं के विषय में, उनके क्रियाकलापों के बारे में जो धारणायें समाज में बन रही हैं, उसके लिए मैं युवकों को बिल्कुल दोषी नहीं मानता। आज के युवकों में तो कुछ कर गुजरने का माद्दा है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे आगे बढ़कर काम करना चाहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होने नहीं दिया जा रहा है। जहां तक विदेशी संस्कृति के प्रभाव का प्रश्न है, हमने बहुत-सी संस्कृतियों को आत्मसात किया है। लेकिन अब पश्चिमी देशों ने नई तकनीक से भारत पर आक्रमण कर दिया है। इस परिस्थिति में हम युवकों को मजबूत संस्कार देने में चूक गये हैं। श्री कालेले के अनुसार “धन कमाने की होड़ के कारण समाज में असुरक्षा की भावना तेजी से बढ़ी है। हर चीज को आज भोग लेने की कामना पूरे समाज में आ रही है। इसी कारण नशे की ओर उन्मुक्तता बढ़ रही है। युवा पीढ़ी को भावनाशून्य, संवेदनाशून्य बनाने का काम हो रहा है। सिनेमा, टेलीविजन के धारावाहिक और सूचना-संचार तकनीक के माध्यम से हमारे सामाजिक-पारिवारिक वातावरण को दूषित कर दिया गया है। इसका विरोध इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि इसमें लोगों के निहित स्वार्थ होते हैं। इसमें पूरी तरह चरमराई हुई न्याय व्यवस्था भी दोषी है।” श्री कालेले का यह भी कहना है कि इस परिस्थिति पर रोक लगाने के लिए परिवार में कठोर अनुशासन और देश में कठोर शासन नितान्त आवश्यक है। साथ ही सामाजिक चेतना जाग्रत करना भी उतना ही जरूरी है जितना परिवार में संस्कार प्रदान करना।NEWS
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