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मुक्ति की चाह में…-शाहिद रहीम”महिला मुक्ति आन्दोलन” अपनी 211 वर्ष की लंबी यात्रा के बाद अब उन महिलाओं की कड़ी आलोचना के कारण “मौत” के कगार पर पहुंच गया है, जिन्होंने इसे बढ़ाया था।यह आन्दोलन इंग्लैंड से शुरू हुआ, जब 1792 में महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकारों की मांग करने वाली पहली किताब “ए विंडिकेशन आफ दि राइट्स आफ वूमेन”, लंदन से प्रकाशित होकर विश्व बाजार में हाथों-हाथ बिक गई। लेखिका थीं- मेरी वाल्सटोन क्राफ्ट। तब से यह आन्दोलन उन्हीं देशों में फला-फूला, जहां औद्योगिक क्रांति ने महिलाओं को रोजगार दिया। इससे वे आत्म-निर्भर होकर पुरुषबंधन से आजाद होने की आशा करने लगी। विकसित देशों में उन्हें सामाजिक समानता के अधिकार मिलने लगे और अब तो लगभग सभी देशों में समानता के कानून बनाए जा चुके हैं। फ्रांस के सिनेमा इतिहास में “मार्लिन मुनरो” और “मार्लिन डिट्रिच” से भी ज्यादा प्रसिद्ध है “ब्रिजिता बार्दो”। “जान आफ आर्क” के बाद वे सबसे लोकप्रिय महिला हैं। कहा जाता है कि अपने जमाने में “बार्दो” ने “रेनाल्ट” मोटर कम्पनी से ज्यादा विदेशी मुद्रा कमायी। उसके चित्र यूरोपीय और अमरीकी पत्रिकाओं के मुखपृष्ठों पर 29,345 बार छपे।इतनी बड़ी कामयाबी के बावजूद उसने कई बार नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की। 1934 में जन्मी बार्दो ने 50 फिल्मों की सफलता के बाद 39 वर्ष की आयु में अपनी “रोल्स रायस” कार बेचकर साधारण जीवन व्यतीत किया। अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा- “प्रसिद्धि, कामयाबी और दौलत की भीड़ का बढ़ा हुआ बोझ उतार फेंकना जरूरी था, क्योंकि मैं उससे लगातार दबती जा रही थी। घर में मुझे सुकून मिलता है। मैं वस्तु नहीं, इंसान बनी रहना चाहती हूं। इसीलिए मैंने अपने भाई के बच्चे को गोद ले लिया है, ताकि मुझे “मां” और “दादी” जैसे महानतम और सच्चे शब्दों को सुनने का प्राकृतिक सुख नसीब हो सके।”विश्व प्रसिद्ध अमरीकी अभिनेत्री “मार्लिन मुनरो” माडल से अभिनेत्री बनकर अत्यधिक सफल हुई। उसकी अन्तिम फिल्म थी, “दि मिस फिट्स”, जिसमें उसने अपनी जीवन-कथा कही है। वह कहती थी- “पत्रिकाओं में मैं बेशक हंसती हुई नजर आती हूं, परंतु अपने अन्दर गहरी निराशा महसूस करती हूं। शायद इसलिए कि मैं उपभेक्ता वस्तु बन गई हूं और किसी इंसान से मेरा कोई प्राकृतिक रिश्ता नहीं है।” 5, अगस्त, 1962 को नींद की बहुत-सी गोलियां खाकर आत्महत्या कर लेने पर “टाइम” पत्रिका में उसकी डायरी का संक्षिप्त अंश (23 अगस्त, 1962)।”औरत की आजादी से सिर्फ समस्याएं पैदा हुई हैं, क्योंकि आजादी के परिणामस्वरूप महिलाओं को मिली है सिर्फ तनहाई की यातना, जो सृष्टि निर्माण से आज तक उसके लिए सबसे ज्यादा असह्र है”- “हेराल्ड राबिन के उपन्यास “दि लोनली लेडी” का यही सार है।जीवन इसका संदेश है कि महिला का अविवाहित जीवन असह्र तनहाई पर समाप्त होता है। कहानी के अनुसार एक खूबसूरत अमरीकी महिला चमक-दमक की ओर आकर्षित होकर प्रसिद्ध अभिनेत्री बन गई। आजाद रहने, आत्मनिर्भर होने और कार्यालयों में पुरुषों के शोषण से बचने के लिए वे फिल्मी जीवन अपनाती है। उन्नति की चोटी पर पहुंच कर उसे मालुम होता है कि उसकी लोकप्रियता का सैलाब उतर रहा है। वह अकेली हो गई है। अंत में वह कहती है- केवल एक महिला ही जानती है कि तनहाई क्या है? न्यू इंग्लिश लाइब्रोरी, लंदन से 1976 में प्रकाशित इस उपन्यास ने 1986 से आज तक “महिला मुक्ति आन्दोलन” को झिंझोड़ दिया है। अमरीका में “महिला मुक्ति आन्दोलन” की समर्थक “मिसेज माराबेल मार्गन” ने प्रयोग के रूप में शादी की। दो संतानें होने के बाद उन्होंने “टोटल वूमेन” अर्थात “संपूर्ण महिला” लिखी। इसमें उन्होंने अमरीकी बहनों को सुखी दाम्पत्य जीवन के बारे में उपाय बताया, “अपने पति की अच्छी मित्र बनो, उसे बुरा-भला कहना छोड़ दो और उसकी आवश्यकताओं को समझो।””न्यूयार्क टाइम्स” 3, फरवरी, 1999 के अनुसार इस पुस्तक की 2 करोड़ 60 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। लेखिका पुरुष की स्थायी मित्रता को महिला की संपूर्णता मानती हैं, न कि स्वतंत्र जीवन जीने को।हालीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री “ग्रेटा गार्बो” ने अपने जीवनीकार को बताया, “18, सितम्बर, 1980 को मैंने 75वां जन्मदिन अकेले मनाया। तीस वर्षों से यह सिलसिला यूं ही चल रहा है और हर दिन मुझे यह अहसास कुछ ज्यादा तन्हा कर देता है कि मैंने शादी न करके बहुत बड़ी गलती की।” (न्यूजवीक, नवम्बर, 1992)पश्चिमी जीवन-पद्धति में आजादी की गलत कल्पना का ही परिणाम है कि विवाह को बंधन समझा जाने लगा जिसके कारण ग्रेटा गार्बो, मार्लिन मुनरो, ब्रिजिता बार्दो तथा ज्यांसे बर्ग जैसी महिलाएं तनहाई की शिकार हुईं। महिलाओं की ऐसी ही बंधनमुक्त स्वतंत्रता का नया और विकृत परिणाम है- एलिजाबेथ टेलर, जो 1986 से “एड्स” जैसी घातक बीमारी का शिकार हुई। उसने 12 मई, 1986 को अमरीकी सीनेट की उपसमिति के सामने सहायता राशि की मांग की। इस अवसर की एक तस्वीर 14 मई, 1986 के इंडियन एक्सप्रेस में पृष्ठ 14 पर छपी, जिससे स्पष्ट हुआ कि “बंधन मुक्त जीवन” अंतत: औरत को “संक्रमण मूर्ति” या “अछूत” तक बना सकती है।इस विडंबना को कैसे दूर करेंगे कि महिलाओं के लिए पश्चिमी संस्कृति की यह आजादी, भारतीय महिलाओं में फैशन अथवा महत्वाकांक्षा का स्थान ले रही है? धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक परंपराओं से मुक्त आधुनिक समाज की युवा पीढ़ी राष्ट्रीय परंपराओं और मूल्यों को न केवल अपने विकास में बाधा मानती है, भारतीय संगीत तक को डल झील का ठहरा हुआ पानी मानकर “तेज रफ्तार” की होड़ में पाप और राक-बेली की ताल पर उस स्वतंत्रता की ओर भाग रही है, जो बंधनों को नकार देने के कारण यूरोप के दुख-दर्द का आधार बन गई। ऐसी बंधन-मुक्त जिन्दगी कुछ भारतीय अभिनेत्रियों ने भी शुरू की, जिनमें सारिका, नीना गुप्ता, सुष्मिता सेन, नंदा और आशा पारेख आदि प्रमुख हैं। परवीन बॉबी का अंजाम ब्रिजिता बार्दो की तरह सामने आया। दीप्ति नवल, राखी, डिम्पल कपाड़िया से ममता कुलकर्णी और पूजा बेदी तक सभी महिलाएं अपनी आजादी को ताले में बन्द करके चाबी किसी पुरुष को नहीं सौंपना चाहतीं। यहां सवाल पैदा होना स्वभाविक है कि क्या ये महिलाएं अंतत: ग्रेटा गार्बो, एलिजाबेथ टेलर, मार्लिन मुनरो या परवीन बॉबी के अंजाम को पहुंचने वाली हैं? आधुनिकता और प्रगतिशीलता का अनुकरणीय उदाहरण जापान है, जहां 1 करोड़ 93 लाख महिलाएं कार्यालयों और कारखानों में काम करती हुईं स्वयं को पुरुष अधिकारियों की सहायक मानती हैं। जापान 21वीं सदी का विश्व का सबसे विकसित देश है, परंतु वहां की संस्कृति में यूरोपीय संस्कृति का संक्रमण नहीं हुआ है। समाजशास्त्र के जापानी अध्येता प्रोफेसर ओसोको उतावा ओसाका ने 28 अक्तूबर, 2004 के न्यूयार्क टाइम्स में लिखा है, “जापान के विकास में हमारी महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है क्योंकि वे पुरुषों को घरेलू झगड़ों से मुक्त रखती हैं। उनसे नाजायज मांग नहीं करतीं, न किसी पुरुष को अपनी कामुक आवारगी के आकर्षण में बांधकर उसके लक्ष्य तक पहुंचने में बाधा बनती हैं। जापानी महिलाओं का यही सद्व्यवहार, जापानी पुरुषों और पूरे देश के लिए वरदान सिद्ध हुआ है।”NEWS
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