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न्यायमूर्ति आर.एस. गर्गकौन लगाम लगाएगा इसकबाइली संस्कृति पर?प्रजातंत्र का अर्थमनमानी नहींबिहार में पिछले दिनों लाउडस्पीकर से अजान देने के मामले पर जिस तरह न्यायपालिका की खुलकर अवमानना हुई और न्यायमूर्ति के लिए अशोभनीय टिप्पणियां की गईं उसके संदर्भ में समाज के आचरण-व्यवहार पर एक दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं बी.जी. चतुर्वेदी। -सं.मथुरा में इमाम बुखारी के विरुद्ध कभी मुकदमा दर्ज करने के “जुर्म” में वहां के उपजिलाधीश का तबादला किया गया था। उसी तर्ज पर पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आर.एस. गर्ग का गुजरात स्थानान्तरण किया जाना “सेकुलर इंडिया” में आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। पटना उच्च न्यायालय के समीप मस्जिद में लाउडस्पीकर पर अजान देने के कारण अदालती कार्रवाई में बाधा आती थी। न्यायालय के न्यायमूर्ति आर.एस. गर्ग ने पटना के एस.एस.पी. को फटकार लगाई और पूर्व में उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश का पालन न होने के कारण पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता पर क्षोभ जताया। परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय के लोग एकत्र होकर उच्च न्यायालय परिसर में घुस गए और न्यायमूर्ति गर्ग के विरोध में नारे लगाने लगे। इस घटना से न्यायमूर्ति गर्ग इतने मर्माहत हुए कि उन्होंने पटना से अन्यत्र स्थानान्तरित किए जाने अथवा त्याग-पत्र देने तक का मन बना लिया।सवाल उठता है कि देश में कानून का राज चलेगा अथवा कबाइली संस्कृति के समक्ष घुटने टेकने होंगे? भारतीय संविधान में एक नागरिक को पांथिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि नागरिक निरंकुश हो जाएं। सभी को यह बात याद रखनी होगी कि पंथ आस्था का विषय है। संवैधानिक तौर पर भी यह अधिकार व्यक्तिश: प्रदत्त है, समाज अथवा समुदाय के रूप में नहीं। स्पष्टत: भारत का प्रत्येक नागरिक अपनी आत्मिक शांति और पांथिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी भी पंथ को अपनाकर अपने भगवान की आराधना, पूजा-अर्चना कर सकता है। विगत कुछ दशकों से पंथ का स्वरूप न तो प्राचीन मजहबी पुस्तकों के अनुरूप रह गया है, न ही विधि सम्मत।पंथ व्यक्ति की आत्मिक शांति का साधन है इसलिए साधु-संत, पीर-फकीर, जंगलों का रास्ता अपनाते थे। एक प्राचीन किस्सा है- “सिकन्दर विश्वविजय का सपना संजोये सेना सहित अफगानिस्तान से जम्मू-कश्मीर आ रहा था। एक स्थान पर बीच रास्ते में एक फकीर लेटा हुआ था। सैनिकों से लेकर सेनापति तक ने उससे रास्ते से हटने की विनती की, किन्तु फकीर नहीं उठा। अन्तत: सिकन्दर स्वयं फकीर के पास आकर बोला, “बाबा उठो, देखो, मैं सिकन्दर महान हूं, तुम जो मांगोगे दे सकता हूं। उठो, मेरी सेना का रास्ता छोड़ो।” फकीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिकन्दर ने फिर अपना निवेदन दोहराया तो फकीर के उत्तर से सिकन्दर के होश उड़ गए। फकीर बोला, “तुम जरा परे हट जाओ ताकि सूरज की किरणें सीधी मेरे ऊपर पड़ सकें, तुम्हारे कारण किरणें बाधित हो रही हैं।”सिकन्दर ने फकीर के पांव पकड़ लिए, लगभग रुआंसा हो उठा, “फकीर बाबा, यह राज-पाट, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, सेना आदि किस काम के?” फकीर के उत्तर दिया, “साधना का इनसे कोई वास्ता नहीं है।” सिकन्दर नतमस्तक हो गया और उसका विश्वविजय का नशा काफूर हो गया। परिणामस्वरूप वह वहीं से वापस लौट गया।आज से सौ-दो सौ वर्ष पूर्व लाउडस्पीकर नहीं थे, तब क्या अजान नहीं होती थी? लाउडस्पीकर से अजान देने का कोई उल्लेख किसी भी मुस्लिम मजहबी पुस्तक में नहीं है।संवैधानिक दृष्टि से हम भारतवासियों ने एक “पंथनिरपेक्ष” राष्ट्र स्वीकार किया है। पंथनिरपेक्षता इतनी एकांगी अथवा पृथक कर्तव्य रहित नहीं हो सकती कि किसी एक मत के अनुयायी संविधान, न्यायालय और राष्ट्र की प्रभुसत्ता को नकारने पर आमादा हो जाएं। पंथनिरपेक्षता की जो परिभाषा जाति और सम्प्रदाय आधारित राजनीतिज्ञों ने गढ़ ली है, वह देशघाती है।भारत जैसे प्रजातांत्रिक राष्ट्र का कोई केन्द्रीय मंत्री मंच पर खड़ा होकर (एम.वाई.) “मुस्लिम-यादव” फार्मूले का उद्घोष करता है तो यह दुखद है। पटना उच्च न्यायालय पर जो घटना घटी वह इसी फार्मूले के अनुरूप लगी। सबसे अधिक दुखद पक्ष तो यह है कि ऐसे फार्मूले का उद्घोष करने वालों की खबर लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने अब तक क्यों नहीं ली? ऐसे व्यक्ति को एक क्षण भी केन्द्रीय मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा जाना चाहिए।न्यायमूर्ति गर्ग का यह कथन कि “इन परिस्थितियों में बिहार में न्यायपालिका का कार्य कर पाना बहुत कठिन है”, बिहार की अराजक और भयावह स्थिति का खुलासा करता है। इससे छुटकारा पाने के लिए यह सरकार तो कोई कदम उठाने से रही, राष्ट्रपति को ही कुछ करना होगा।NEWS
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