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सन 2004 के बारह महीने साहित्य, कला, फिल्म, राजनीति आदि क्षेत्रों के लिए कैसे रहे? निश्चित रूप से इनमें हमने कुछ नए सोपान तय किए होंगे, कुछ जगह खामियां भी रही होंगी। फिर भी हमने एक मुकाम तो तय किया ही है। पर क्या, कहां और कितना, यह जानने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के कुछ नामचीन लोगों से ही सीधे पूछा। उन्होंने जो बताया, वह जस का तस यहां प्रकाशित कर रहे हैं। सं. प्रस्तुति : संध्या पेडणेकर व अरुण कुमार सिंहपूज्य शंकराचार्य की गिरफ्तारी सबसे बड़ी घटना-स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज, जूनापीठाधीश्वरकांची कामकोटि पीठ के पूज्य शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी की गिरफ्तारी कदाचित् सन् 2004 की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। इसलिए गत दिनों चेन्नै में “आचार्य सभा” का गठन किया गया। इस सभा का मत है कि उसे इतनी शक्ति दी जाए कि सरकार किसी भी धर्माचार्य के विरुद्ध कुछ करने से पहले इस सभा से अनुमति ले।इसी वर्ष हमने 127 वनवासी गांवों को गोद लिया है। इन गांवों में हम जलाशयों का निर्माण करेंगे क्योंकि यहां जल का अभाव है। इन जलाशयों को “शिवगंगा” नाम दिया गया है। इसके साथ ही “मेरा गांव, मेरा तीर्थ” की कल्पना को साकार करने का प्रयास भी गत वर्ष शुरू किया गया। 2004 में धर्म क्षेत्र की एक अन्य उपलब्धि है उज्जैन सिंहस्थ का सफल आयोजन। लगभग 4 करोड़ श्रद्धालु उज्जैन पहुंचे।हिन्दुओं के लिए आत्मपरीक्षण का समय है-जयंतराव सालगांवकर,सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद एवं संस्कृति संबंधी विषयों के विद्वानवर्ष 2004 भारत तथा हिन्दू धर्म के लिए कठिन समय रहा और यही स्थिति दो-तीन वर्ष और चलेगी। इस अवधि में आतंकवाद, हत्याएं, घुसपैठ के खतरे बढ़े हैं। विडंबना यह रही कि खतरों के प्रति सत्ता के प्रभारियों में लापरवाही बढ़ी एवं इन खतरों को छोटा समझने की प्रवृत्ति कायम रही जो कि अधिक खतरनाक है। परंतु जब किसी देश या समाज का खराब समय आता है तो जो समय को बदल सकते हैं वही दिग्भ्रमित अथवा अपनी ही मौजमस्ती में लीन हो जाते हैं। इसी कारण खतरे कम नहीं होते। एक ओर धर्म के लिए विडंबनापूर्ण तथा दुखद स्थिति यह रही कि हिन्दू वोटों के लिए श्रीराम के नाम का मनचाहा इस्तेमाल करने की कोशिश की गई। जब सत्ता में आना था तो श्रीराम का सहारा लिया, जब सत्ता में आ गए तो उनसे जुड़े विषय हाशिए पर रख दिए। और जब हार गए तो फिर श्रीराम का नाम लेने लगे। यह स्थिति अच्छी नहीं। यह बताती है कि हिन्दू ही श्रीराम जैसे आदर्श, मर्यादापुरुषोत्तम एवं सदैव सत्य बोलने वाले पुण्यशील महापुरुष के प्रति जो दृष्टि रखनी चाहिए वह नहीं रखते और सुविधा की दृष्टि से उनका उपयोग करना चाहते हैं। वे भूल गए कि हिन्दुओं के आत्मविश्वास को गहरी चोट पहुंची है और अब हिन्दुत्व से जुड़े किसी मुद्दे पर आंदोलित होने से वे कतराने लगे हैं। शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी पर जो स्थिति बनी है, वह इसी बात की द्योतक है। अत: यह हिन्दुओं के लिए आत्मपरीक्षण का समय है। अब उन्हें संगठन के महत्व को समझना होगा। अपने ही “परिवार” के लोग यदि कोई गलती करते हैं तो उन्हें समझाने तथा गलती करने से रोकने का कोई ऐसा तरीका ढूंढना होगा जिससे हिन्दू परिवार सार्वजनिक उपहास और तिरस्कार का विषय न बने।विडंबना है कि हिन्दुओं में जागरण अभी भी कम है और जो यह काम कर रहे हैं, वे राजनीति में लिप्त हैं। यह स्थिति धर्म और देश दोनों के लिए कष्टदायी है। और इसके चलते कोई बड़ी आशा सामने नहीं दिखती। ग्रहों के अनुसार अगले वर्ष अगस्त में देश के साथ कोई बड़ा धोखा होने की आशंका है।मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान-संध्या जैन, वरिष्ठ स्तम्भकारमीडिया और जनता के मत में कई वर्षों से खाई बनती आ रही थी, जो इस वर्ष मानो पूरी हो गई। लोग क्या सोचते हैं इसका मीडिया को पता नहीं चला। उसने अपने आप तय कर लिया कि लोगों को क्या सोचना चाहिए और बताया कि यही लोगों का मत है। इससे साबित होता है कि आजकल की पत्रकारिता का अब जमीन से कोई सम्बंध नहीं रहा है। दूसरी बात, श्रीमती सोनिया गांधी ने बयान दिया कि वह प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं। उसके बाद वह राष्ट्रपति से मिलने गईं और अपने तथाकथित “त्याग” का बयान दिया। मुख्यधारा की पत्रकारिता ने उसे नजरअंदाज किया और यही रट लगाई कि उन्होंने बड़ा “त्याग” किया है। यह पूर्वाग्रह भी मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा गया।शंकराचार्य जी की घटना लीजिए। तमिलनाडु सरकार ने अशिष्ट और अश्लील तरीके से शंकराचार्य जी की बदनामी की। देश के बहुसंख्यक समुदाय के साथ जो ज्यादती हो रही है उससे लोगों को लगता है कि भारत में बड़े पैमाने पर ईसाइयत फैलाने की “जोशुआ” योजना काम कर रही है। लेकिन मीडिया ने इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दिया।दिल्ली पब्लिक स्कूल के मोबाइल फोन हंगामे में मीडिया की अहम भूमिका है। कई सालों से मीडिया में अश्लील तस्वीरें छपती आई हैं। इसको बढ़ावा देने वाले लेख छापे जाते हैं। यह नीति मालिकों के स्तर पर तय होती है, मध्य-वर्ग के पत्रकार जोखिम उठा कर इस तरह की तस्वीरें छपवा नहीं सकते। पूरे समाज पर इसका जो असर हो रहा है वह किसी आतंकवाद के खतरे से कम नहीं है। इस वर्ष भी आम आदमी से जुड़ी समस्याएं, जैसे बढ़ती कीमतें, बिजली-पानी की किल्लत, खस्ता हाल सड़कें इत्यादि पर सतही ढंग से चर्चा हुई।कला के लिए सौगात लाया 2004-सरोजा वैद्यनाथन, कथक नृत्यांगनाकला के क्षेत्र में उत्तरोत्तर विकास हो रहा है। सन् 2004 तो कला-प्रेमियों के लिए एक उपहार के समान रहा, क्योंकि इस वर्ष राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम ने कला के विकास में विशेष रुचि दिखाई। वर्षों से बन्द पड़ी राष्ट्रपति भवन की कला दीर्घा को उन्होंने खुलवाया और अब वहां कम से कम महीने में दो बार सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। राष्ट्रपति जी की पहल के बाद साहित्य कला परिषद् और भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद् भी काफी सक्रिय हैं। इन दोनों संस्थाओं ने यथासंभव सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कर कलाकारों को आगे बढ़ाकर उन्हें एक उचित और स्तरीय मंच दिया है। इसके अलावा इस वर्ष पर्यटन मंत्रालय ने भी कला को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।राजनीति में बाहुबली बढ़ गए-सुशील कुमार मोदी, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं सांसद, भाजपाराजनीतिक क्षेत्र में सन् 2004 की सबसे बड़ी घटना है केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार का सत्ताच्युत होना। अच्छे काम के बावजूद राजग आम चुनाव में हारा। इस वर्ष मध्य मई तक अटल जी के नेतृत्व में राजग की सरकार रहते लोगों का मनोबल ऊंचा था। लोगों में आत्मविश्वास पैदा हुआ था कि भारत एक मजबूत स्थिति में पहुंच चुका है। 2004 के प्रारंभिक दिनों में तो विश्व की बड़ी शक्तियां भी भारत को सम्मान की दृष्टि से देखती थीं, यह इस साल की एक उपलब्धि कही जा सकती है। हालांकि इसकी नींव पहले ही पड़ चुकी थी।केन्द्र में संप्रग सरकार के गठन के बाद लगता है कि राजनीति में गिरावट आई है, क्योंकि इस सरकार ने राजनीति में दागियों, अपराधियों को एक संस्थागत स्वरूप दिया है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस कारण केन्द्र से लेकर राज्यों की राजनीति में भी अपराधी तत्वों का बोलबाला बढ़ा है। लोगों में एक नकारात्मक सन्देश जा रहा है कि राजनीति अपराधियों तक ही सिमटती जा रही है। राजनीति की यह छवि पिछले कई सालों से बन रही है, पर 2004 में यह चरम सीमा पर पहुंच गई।रंगमंच के कलाकार को नोबल पुरस्कार मिलना बड़ी उपलब्धि-देवेन्द्र राज अंकुर, निदेशक, राष्ट्रीय नाट विद्यालयरंगमंच के क्षेत्र के लिए वर्ष 2004 बड़ा उत्साहजनक रहा। हिन्दी रंगमंच पर कई नए नाटक आए हैं, जैसे मीराकान्त का “नेपथ्य का राग”, महेन्द्र भल्ला का “आमने-सामने” आदि। दूसरे, कई पुराने नाटककार और निर्देशक दुबारा रंगमंच की ओर लौटे हैं, जैसे रंजीत कपूर, जो बहुत पहले रंगमंच के क्षेत्र में सक्रिय थे, फिल्मी दुनिया से पुन: यहां लौटे हैं। इनके अलावा कई कलाकर फिल्मों से इस ओर आए हैं। वर्षों बाद इस वर्ष रंगमंच के एक कलाकार को नोबल पुरस्कार मिला है, यह इस क्षेत्र की एक बड़ी उपलब्धि है। भले ही वह भारतीय नहीं हैं। रंगमंच के सरताज माने जाने वाले स्व. पृथ्वीराज कपूर की जीवनी पर आधारित एक पुस्तक भी हम लोगों ने 2004 में निकाली है। लेखन, चिन्तन और प्रस्तुतिकरण- किसी भी दृष्टि से देखें तो 2004 के बारह महीने उत्साहवद्र्धन करने वाले रहे। 5 से 20 जनवरी, 2005 तक दिल्ली में “भारत रंग महोत्सव” होगा। इसमें हर स्तर के कलाकार भाग लेंगे। यानी 2005 की शुरुआत में ही कलाकुंभ हो रहा है, जो कलाकारों के लिए स्वर्णिम अवसर है।लोगों को नहीं भाया अंग प्रदर्शन-प्रदीप सरदाना, फिल्म समीक्षकसन् 2004 फिल्मों के लिए अच्छा रहा। लगभग हर महीने में एक फिल्म हिट होती रही।”कल हो ना हो”, “मैं हूं ना” जैसी फिल्में काफी चलीं। एक अत्यंत सफल प्रयोग फिल्म “मुगले आजम” का रहा। व्यावसायिक फिल्मों के नायकों में शाहरुख खान और नायिकाओं में प्रीती जिंटा, रानी मुखर्जी के लिए यह वर्ष खासतौर पर अच्छा रहा। अभिषेक बच्चन के खाते में भी “धूम” के साथ एक हिट फिल्म दर्ज हुई। मल्लिका सहरावत के लिए यह साल अच्छा नहीं रहा। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह पहली बार गोवा में किया गया। जगह अच्छी थी, कोशिश भी अच्छी थी, लेकिन मेरे विचार से वहां अच्छी फिल्में पहुंच नहीं पायीं। इसलिए रंग जमा नहीं। इस बार आस्कर के लिए “श्वास” गई है। गुरदीप की बनाई “बल्ले-बल्ले” फिल्म इस वर्ष चली नहीं। एक दौर चला था विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा “हिंग्लिश” फिल्मों का। लेकिन उन्हें उतनी सफलता नहीं मिली। बाकी, विदेशी फिल्मों में “स्पाइडर मैन” ने भारत में अच्छा व्यवसाय किया। “एनीमेशन” का काफी बड़े स्तर पर इस वर्ष फिल्मों में उपयोग किया गया। “हम लाजवाब हैं” काफी पसंद की जा रही है। इस साल भारत में बुद्ध के जीवन पर एनीमेशन फिल्म “द लीजेंड आफ बुद्धा” बनी है। यह भी इस वर्ष की एक बड़ी उपलब्धि रही है। कला फिल्मों के लिए यह साल अच्छा नहीं रहा। गोविंद निहलानी ने “देव” बनाई थी, लेकिन वह चल नहीं पाई। “लक्ष्य” नहीं चली। कला फिल्में बहुत कम बनीं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस वर्ष अंग प्रदर्शन वाली फिल्में नहीं चल पाईं। “मर्डर” चली, लेकिन इस फिल्म में अंग प्रदर्शन के अलावा अच्छी कहानी भी थी। “नाच” भी नहीं चल पाई जिसमें अंतरा माली ने काफी अंग प्रदर्शन किया था। “वीर जारा”, “मुगले आजम”, “मैं हूं ना”, “मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस” जैसी फिल्मों ने साबित किया कि अच्छी फिल्में चलती हैं, अंग प्रदर्शन नहीं चलता।टेलीविजन के कारण पढ़ने में रुचि कम हुई-डा. महीप सिंह, वरिष्ठ साहित्यकारसन् 2004 में पूरे साल साहित्यिक गतिविधियां चलती रहीं। दिल्ली में लगभग 11 साल से साहित्यिक संस्था “संवाद” काम कर रही है। यह संस्था हर महीने “साहित्यिक संगोष्ठी” आयोजित करती है। हिन्दी की कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के बन्द हो जाने से भी पाठकों और लेखकों के सामने कुछ विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं। अब न धर्मयुग है, न साप्ताहिक हिन्दुस्तान है, न सारिका है, न दिनमान है, न पराग है। इस कारण लेखकों को लगता है कि वे अपनी रचनाएं कहां प्रकाशित कराएं। इस कमी को “वागर्थ” और “नया ज्ञानोदय” जैसी पत्रिकाएं बहुत हद तक पूरा कर रही हैं।गत वर्ष कई पुस्तकें काफी चर्चित रहीं। जैसे पुष्प बंसल का उपन्यास “तापसी”। इस उपन्यास में वृंदावन में रहने वाली विधवाओं को केन्द्र में रखा गया है। मेरा भी एक उपन्यास चर्चा में रहा। अक्तूबर में 10 भारतीय भाषाओं के लेखकों का एक प्रतिनिधिमण्डल चीन गया था। उसमें मैं भी शामिल था। इस वर्ष साहित्य के क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण घटना मानी जा सकती है। गत वर्ष कुछ साहित्यकारों को पद्म सम्मान भी मिले हैं, यह भी इस क्षेत्र की एक उपलब्धि है। जैसे श्री विष्णु प्रभाकर को पद्मभूषण, श्रीमती सुनीता जैन और श्री लीलाधर जगूड़ी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श- ये दो विषय साहित्य के क्षेत्र में ज्यादा चर्चित रहे। केवल हिन्दी साहित्य ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं के साहित्यकार भी इन दो विषयों पर रहे। मेरे विचार से साहित्य के प्रति पाठकों के रुझान में कमी आई है और पुस्तकों की प्रसार संख्या भी घटी है। इतने टी.वी. चैनल हो गए हैं कि फुर्सत मिलते ही लोग टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। इससे पठन रुचि घट रही है।”रंगभूमि” को जलाना दुर्भाग्यपूर्ण-प्रभाकर श्रोत्रियनिदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ एवं सम्पादक, नया ज्ञानोदयसन् 2004 में साहित्य के क्षेत्र में सकारात्मक की अपेक्षा नकारात्मक हलचलें ज्यादा हुईं। इस वर्ष कई ऐसी प्रवृत्तियां देखने में आईं, जिन्हें साहित्य के लिए अनुकूल नहीं कहा जा सकता। हालांकि इस वर्ष साहित्यिक गतिविधियां निरंतर चलती रहीं, भांति-भांति की पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, कई पुरस्कार घोषित हुए, कई साहित्यकारों को प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित भी किया गया, परन्तु जिस तरह का एक जीवन्त परिवेश बनना चाहिए, वह नहीं बन पाया। क्योंकि धीरे-धीरे हमारी भाषाओं एवं हमारे साहित्य का मान घट रहा है और अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। केवल कविता, कहानी और उपन्यास से भाषा सुदृढ़ नहीं होती और न ही साहित्य बनता है। नई-नई खोजों, आधुनिकतम ज्ञान आदि से साहित्य बनता है। इस वर्ष ज्ञानपीठ प्रकाशन ने छह कवियों की कविताओं का एक संकलन बहुत ही कम कीमत पर प्रकाशित किया है। ये सभी नए कवि हैं। उन्हें आगे लाने के लिए यह प्रयास किया गया है। शायद ऐसा किसी ने पहले नहीं किया है, यह इस वर्ष की एक उपलब्धि कही जा सकती है। 2004 में साहित्य के क्षेत्र में एक दुर्घटना हुई है और वह है प्रेमचन्द की पुस्तक “रंगभूमि” को जलाना। जब प्रेमचन्द के साथ ऐसी घटना हो सकती है तो साहित्य का भला कैसे हो सकता है?सरकारी नीति पुस्तक विरोधी रही-अरुण माहेश्वरी, प्रबंध निदेशक, वाणी प्रकाशनवर्ष 2003 की अपेक्षा 2004 हमारे लिए अच्छा रहा। पुस्तकें खूब छप और बिक भी रही हैं। सन् 2004 में आधुनिकता, दलित-नवजागरण, स्त्री-विमर्श, मीडिया, राजनीति, समाज-विज्ञान आदि से सम्बंधित पुस्तकें हमारे यहां अधिक छपीं। चूंकि हर विषय के पाठक अलग-अलग और हजारों-लाखों में हैं, इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि किस क्षेत्र की पुस्तकें अधिक लोकप्रिय हुईं। तसलीमा नसरीन, डा. धर्मवीर, पुण्य प्रसून वाजपेयी आदि लेखकों की पुस्तकें इस वर्ष हमारे यहां अधिक बिकीं। पुस्तकों की कीमतें बढ़ने के बाद भी पाठकों में कमी की अपेक्षा बढ़ोत्तरी हुई है। यह प्रकाशन क्षेत्र में उपलब्धि कही जा सकती है। सरकारी नीतियां तो पुस्तक-विरोधी हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट को ही देखिए। इसका काम पुस्तकों का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करना है। परन्तु यह ट्रस्ट आजकल सरकारी पुस्तकों को ही आगे बढ़ा कर उनका प्रचार-प्रसार कर रहा है। केन्द्र सरकार ने भी एक आदेश जारी कर राज्य सरकारों को निर्देश दिए हैं कि केवल सरकारी पुस्तकों को ही खरीदें।जितना सोचा था, उतना अच्छा नहीं रहा-सत्यव्रत, प्रबंध निदेशक, किताब घर प्रकाशनपुस्तकों की बिक्री की दृष्टि से यह वर्ष हमारे लिए उतना अच्छा नहीं रहा है, जितना होना चाहिए। स्वास्थ्य, इतिहास, सामाजिक समस्याओं, जीवनी आदि पर पुस्तकें अधिक छपीं। 2004 में हमारे यहां से श्री अमृतलाल नागर, श्रीमती मैत्रेयी पुष्प, श्रीमती चित्रा मुद्गल, श्री त्रिलोचन, डा. महीप सिंह आदि लेखकों की रचनाएं प्रकाशित हुईं और इन पुस्तकों को प्रसिद्धि भी खूब मिली है। “भाषा प्रौद्योगिकी एवं भाषा प्रबंधन”- यह श्री सूर्य प्रसाद दीक्षित की पुस्तक है। इस पुस्तक का प्रकाशन इस वर्ष की हमारे यहां की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसमें हम अपने कारोबार और रोजगार में हिन्दी का किस तरह प्रयोग करें, हिन्दी के माध्यम से हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं आदि बातें बताई गई हैं।NEWS
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