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मुशर्रफ के 1800 बदलाव परकितना करें भरोसा?टी.वी.आर. शेनाय”वह कौन है-तीसरा, जो सदा साथ चलता तुम्हारे? जब गिनता हूं तो पाता हूं सिर्फ तुमको और खुद को पर देखता हूं जब आगे उस सफेद पगडंडी को तो सदा पाता हूं उस तीसरे को साथ तुम्हारे”टी.वी.आर. शेनायये टी.एस.इलियट की कविता “व्हाट द थंडर सैड” की पंक्तियां हैं। यह कविता बृहदारण्यक उपनिषद् के एक दृष्टांत से प्रेरित है। डा. मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ के बीच हाथ मिलाने और मिलाने… और मिलाने के दृश्य को देखकर मुझे यकायक इन पंक्तियों का ध्यान हो आया। क्या केवल मुझ अकेले को ही उन दोनों के बीच उस तीसरे का आभास हुआ था? जो दिख नहीं रहा था, मूक था, वहां न होकर भी बहुत प्रभावी था?इस शिखर वार्ता पर अमरीका की उपस्थिति हावी थी, जिसे मीडिया ने अनदेखा कर दिया था और बड़ी जहमत से दोनों सरकारें उसका जिक्र करने से बचती रहीं। क्या यह महज संयोग था कि कोंडालिजा राइस कुछ सप्ताह पहले ही भारत और पाकिस्तान आई थीं, या कि जनरल मुशर्रफ की यात्रा की पूर्वसंध्या पर नटवर सिंह वाशिंगटन में थे? भारतीय विदेश विभाग शुरुआत में साफ तौर पर पाकिस्तानी नेता की यात्रा को “शिखर वार्ता” कहने में हिचकिचाता दिखा; उसका ऐसा रवैया था मानो “अगर वह क्रिकेट ही देखना चाहते हैं तो उनका स्वागत है!” तो आखिर इसके बाद क्या हुआ? क्यों आगरा का कमांडो दिल्ली आकर दावा कर रहा था कि “एक नया दिल लाया हूं!”?जनरल मुशर्रफ के तौर-तरीकों में आए बदलाव को समझने के लिए हमें 1998 की ओर लौटना पड़ेगा- जब भारत और पाकिस्तान ने परमाणु विस्फोट करके परमाणु अस्त्र सम्पन्न देशों की पांत में जगह बना ली थी। इस सबसे अमरीका उस वक्त भी बड़ा नाखुश था, लेकिन फिर भी उसने इसको लेकर बहुत गरमाहट नहीं दिखाई। उसने जो मामूली से प्रतिबंध लगाए भी भारत की उदार अर्थव्यवस्था ने उन्हें बेअसर कर दिया, लेकिन पाकिस्तान को ये थोड़े भारी पड़े। फिर भी, जहां अमरीका “पाकिस्तानी बम” को तो एकबारगी अनदेखा कर सकता है वहीं यह “अल कायदा बम” के जिक्र मात्र से झुंझला जाता है।जैसा कि जनरल मुशर्रफ ने बड़ी बेबाकी से कहा, “9/11 के बाद दुनिया बदल गई है”। अमरीका अचानक अल कायदा के खतरे के प्रति सतर्क हुआ था। लेकिन ओसामा बिन लादेन का गुट तालिबान की सुरक्षा में ढंका रहा और इसी तरह अफगानियों को पाकिस्तान ने पोसा हुआ था। इन तीनों के बीच अकाट सूत्रों को देखते हुए अमरीकी विश्लेषकों को आशंका है कि कहीं परमाणु तकनीक अल कायदा के हाथों में न पड़ जाए। पेंटागन के गणित के अनुसार, “पाकिस्तानी बम” अमरीकी हितों के लिए किसी तरह का खतरा नहीं है, क्योंकि इसका निशाना एक ही ओर होगा- यानी भारत। लेकिन “अल कायदा बम” की मार तो खुद अमरीका पर हो सकती है।कुछ रणनीतिक सफलताएं पा लेना एक बात है लेकिन अल कायदा को सदा के लिए कुचलने के लिए पाकिस्तान को राह पर लाना जरूरी था। राइस के पूर्ववर्ती विदेश मंत्री कोलिन पावेल ने 9/11 के तुरंत बाद जनरल मुशर्रफ से अपनी बातचीत में सपाट शब्दों में कह दिया था : “आप या तो हमारे साथ हैं या विरुद्ध हैं!” बस, पाकिस्तानी सरकार रास्ते पर आ गई।तमाम घटनाओं के बाद, जैसा कि सामने आया, तालिबान को सत्ता से बाहर फेंक देने भर से ही अमरीकी संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने विश्व के उस हिस्से से आतंकवाद के सभी गलियारों को समूल उखाड़ फेंकने की मुहिम छेड़नी चाही, जिसका सीधा-सा अर्थ था पाकिस्तान को संभालना। अफगान युद्ध के चलते पाकिस्तान में बड़ी संख्या में छा गए अमरीकी गुप्तचर एजेंटों को पता चला कि परमाणु तकनीक ईरान सहित कुछ अन्य गुटों के हाथों में पहुंचा दी गई थी। (जानकारी की गरज से बता दूं कि इसमें अमरीकियों को दो भारतीय वैज्ञानिकों के शामिल होने पर भी शक है।)अमरीकियों की नजर में परमाणु तकनालाजी के फैलाव पर नियंत्रण करना और आतंकवाद पर हमला करना एक ही सिक्के के दो पहलुओं जैसा है। वाशिंगटन ने इस सारी तिजारत पर चोट करने का जनरल पर दबाव बनाया, भले इसका अर्थ देश के नूरे-चश्म डा. ए.क्यू. खान (पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रमों के जनक और परमाणु तकनीक की तस्करी के आरोपी) की तौहीन करना ही क्यों न हो। पाकिस्तान के जनरल अमरीकी दबाव के आगे झुक गए। हालांकि जनरल मुशर्रफ ने यह भी कह दिया कि जब तक उनके हाथ सियासी तौर पर मजबूत नहीं होते, वे कोई भी कठोर कदम नहीं उठा सकते। अब इसका दारोमदार भारत पर आन पड़ा कि वह ही जनरल को इस झंझट से उबारे।दिल्ली हर उस कदम की तारीफ करती है जो पाकिस्तान स्थित आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों पर लगाम कसने की ओर उठता है, लेकिन महज जनरल मुशर्रफ की वाहवाही के लिए कश्मीर में वह एक सीमा तक ही कुछ कर सकती है। पूरे जम्मू-कश्मीर को भारत का अविभाज्य हिस्सा घोषित करने वाले संसदीय प्रस्ताव को देखते हुए नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में बदलने की बात तक करना असंभव है। लेकिन फिर भी पाकिस्तान के मुकाबले भारत पर दबाव बनाना उतना आसान नहीं है, ऐसा केवल भारत की अर्थव्यवस्था ज्यादा मजबूत होने के कारण ही नहीं है बल्कि इसलिए भी क्योंकि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को किसी तरह की घरेलू उठा- पटक का भय नहीं होता।अगर कोंडालिजा राइस कश्मीर पर कुछ छूट देने के लिए भारत को टस से मस कर पाने में नाकामयाब रहीं तो भी वे दिल्ली को इसका कुछ आभास ही दे देने पर राजी कर गईं। और इस तरह जनरल मुशर्रफ फिरोजशाह कोटला आए। “शिखर वार्ता” से कुछ ठोस तो निकला नहीं; कश्मीर में बस सेवा बढ़ाने की बात पर तो दोनों देशों के विदेश सचिव भी सहमत हो सकते थे या जल-बंटवारे पर बात करने पर। (कृपया ध्यान दें कि बगलीहार बांध पर वस्तुत: कोई बात नहीं हुई थी, भारत ने केवल इतना ही कहा कि यह मसला आगे कभी बातचीत में रखा जा सकता है।)शांति के जनरल मुशर्रफ के बड़े-बड़े बोलों पर हम कितना भरोसा कर सकते हैं? वह यथार्थवादी हैं यानी खूब जानते हैं कि पाकिस्तान एक हद से ज्यादा अमरीकी दबाव झेल नहीं सकता। इसे समझ-बूझते हुए उनसे बात करने में कोई नुकसान नहीं है, पर भगवान के लिए, दरियादिली और ज्यादा ही भावुक हाव-भावों के बिना ही यह हो तो अच्छा है! जब तक कि यह भरोसा न हो जाए कि अमरीकियों के चले जाने के बाद भी दिल का यह बदलाव, बदलेगा नहीं, पाकिस्तान के मंसूबों पर एक सवालिया निशान लगा रहना चाहिए।”दत्त्। दयाध्वम्। दम्यता।” यही तो है उस कविता में गर्जना का गान। अमरीकियों ने जनरल के प्रति “दया” की विनती की है, और पाकिस्तानी जनरल खुद यह अनुरोध कर चुके हैं कि भारत “दत्त्” यानी बड़प्पन दिखाए। लेकिन मेल-मिलाप की तलाश में हमें अपनी “दम्यता” (आत्म-नियंत्रण) नहीं खोनी है। जैसा कि इलियट ने अपनी कविता के आखिर में लिखा है-“शांति, शांति, शांति।”(20 अप्रैल, 2005)NEWS
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