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जो कहते हैं जरुरी है, उन्हें भी लागू करने में दिलचस्पी नहीं-प्रेमचन्द्र-प्रेमचन्द्रआजकल देश में निजी क्षेत्र में दलितों के लिए आरक्षण की बहस जोर-शोर से चल रही है। इस बहस की आवश्यकता इसलिए अनुभव की जा रही है, क्योंकि आर्थिक सुधारों के चलते अब सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर बिल्कुल कम होते जा रहे हैं और निजी क्षेत्र में इनकी पर्याप्त संभावना है। इन्हीं परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उद्योग जगत को परामर्श दिया कि निजी क्षेत्र स्वेच्छा से दलितों, अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण दें। उन्होंने इसे कानून के जरिये थोपने से इनकार किया है। प्रधानमंत्री के परामर्श के प्रत्युत्तर में फेडरेशन आफ इण्डियन चैम्बर आफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्रीज (फिक्की) ने इस सुझाव को अव्यावहारिक कह कर टालने का प्रयास किया है और कहा है कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों की बेरोजगारी की समस्या का समाधान निजी क्षेत्र के आरक्षण से संभव नहीं है। फिक्की की राय में वास्तविक समस्या दलितों को सक्षम और योग्य बनाने की है। उद्योग जगत के इस दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि वे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के सुझाव से न केवल असहमत हैं, बल्कि सिरे से दलितों, जनजातीय लोगों को अक्षम एवं अयोग्य मानते हैं, जो सरासर उनकी जातिवादी मानसिकता का प्रतीक है। उद्योग जगत के सक्षम लोग यह क्यों नहीं समझते कि समाज एक श्रृंखला के समान है और श्रृंखला की शक्ति उतनी ही होती है, जितनी उसकी दुर्बलतम कड़ी की। उसी प्रकार समाज की शक्ति भी उतनी ही होती है, जितनी उसके एक दुर्बलतम घटक की, क्योंकि समाज के टूटने का खतरा यहीं से है। दलितों को अक्षम और अयोग्य समझकर सामाजिक न्याय के तकाजे को दरकिनार करना देश की एकता के लिए बहुत ही खतरनाक है।देश में जातिवाद के चलते जो थोड़ी-बहुत सहिष्णुता दलितों, जनजातीय लोगों के प्रति संविधान में प्रवृत्त प्रावधानों से आयी है, उससे इन लोगों के अन्दर आत्मविश्वास पैदा नहीं हो पा रहा है। क्योंकि आरक्षण एक प्रकार से भीख के तौर पर दिये जाने का प्रतिक्षण अहसास वंचितों को कराया जाता रहा है। सरकारी कार्यालयों, चलती रेलगाड़ियों और बसों में आरक्षण पर अनवरत परिचर्चा होती है, उससे आरक्षण के द्वारा चयनित होकर आये अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लोगों का मनोबल हर पल गिरता है। परन्तु ऐसी परिचर्चा में भाग लेने वाले अतिरंजित विचारधारा के लोग इस पर विचार नहीं करते कि भारतीय समाज ने दलितों के साथ निरन्तर अन्याय किया। सदियों ये लोग मानवाधिकारों से वंचित रहे। इन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया। अब जब प्रजातंत्र में सामाजिक न्याय के तकाजे ने विवश किया और कुछ समाज सुधारकों ने इन्हें बराबरी पर लाने के प्रयास किये तो पूंजीवादी और फिरकापरस्त ताकतें अयोग्यता एवं अक्षमता के बहाने पुन: इन्हें गुलाम बनाने पर उतारू हैं। इस पर कभी यह विचार क्यों नहीं किया जाता कि इनकी तथाकथित अयोग्यता का कारण भी भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था ही रही है, जिसने सदियों तक इन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा और जानबूझ कर उन पर अयोग्यता थोपी? शास्त्रोक्त कथन है कि सामान्यत: कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं होता। संस्कृत के निम्न श्लोक से यह और भी स्पष्ट है-अमंत्रमक्षरनास्ति नास्ति मूलमनौषधम्।अयोग्यं पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ:।।अर्थात् कोई भी अक्षर ऐसा नहीं जिसमें मंत्र की शक्ति न हो, कोई भी जड़ ऐसी नहीं, जिसमें औषधि का गुण न हो, कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जिसमें कोई योग्यता न हो। कमी है तो ऐसे योजक की जो सम्बन्धित व्यक्ति या वस्तु के गुणों को पहचान कर उनका ठीक उपयोग कर सके।राहुल बजाज की गलत धारणानिजी क्षेत्र में आरक्षण की बहस में हिस्सा लेते हुए बजाज ग्रुप के श्री राहुल बजाज ने अपने लेख “डिवाइड आफ मेरिट” (टाइम्स आफ इण्डिया 21 सितम्बर, 2004) में कहा है कि एक व्यक्ति जो जाति के आधार पर आरक्षण से चुनकर आता है, वह उस व्यक्ति से भिन्न प्रकार कार्य करता है, जो योग्यता के आधार पर चुना गया है। श्री बजाज के अनुसार आरक्षण के आधार पर चुना गया व्यक्ति अपने ओहदे को पूरी उम्र की गारन्टी समझता है और आरक्षण को ही वे सरकार के इकबाल में कमी का एक कारण मानते हैं। श्री बजाज की यह अवधारणा इस आधार पर गलत है, क्योंकि सरकारी सेवाओं में आई.ए.एस. व आई.पी.एस. दलितों की भागीदारी केवल पांच प्रतिशत ही है। क्या इन पांच प्रतिशत अधिकारियों से सरकार की कार्यकुशलता में कमी आ सकती है? यह कदाचित एक पूंजीवादी अतिरंजित अवधारणा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। क्योंकि सरकार की कार्यकुशलता और साख में कमी आती है सत्ता के शिखर पर बैठे राजनीतिज्ञों में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा ऐसे लोगों को सरकार द्वारा महिमामण्डित करने से, जिन पर चोरी डकैती, हत्या और बलात्कार के दर्जनों मामले चल रहे हों और सरकार उनका बचाव यह तर्क देकर कर रही हो कि अभी मामले विचाराधीन ही हैं तथा अभी तक सजा नहीं हुई है। जबकि इसके विपरीत दबे, कुचले लोगों के प्रति समरसता प्रदर्शित करने और उन्हें सामाजिक न्याय के जरिये बराबरी पर लाने के उपायों से तो सरकार का इकबाल बढ़ता है। श्री राहुल बजाज समरसता और बराबरी के उपायों को सरकार के इकबाल में कमी का कारण बता रहे हैं, जो सरासर गलत है।भारतीय जनमानस में ऐसी भी कुछ किंवदन्तियां प्रचलित हैं, जिनसे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का दोष भी दलितों के सिर मढ़ने के प्रयास होते रहे हैं। मुझे स्मरण आता है कि जब मैं 14 वर्ष पूर्व राज्य सरकार के अधीन प्रथम श्रेणी सेवा में कार्यरत था तो एक बार धामपुर (बिजनौर), जहां मैं रहता हूं के स्थानीय कार्यालय का निरीक्षण करने मेरे एक समकक्ष सहयोगी अधिकारी आये। मैं शिष्टाचारवश उनसे भेंट करने सरकारी डाक बंगले गया तो वहां भारतीय डाक सेवा (आई.पी.एस.) के एक अन्य अधिकारी भी बैठे थे। संभवत: वे दोनों अधिकारी नहीं जानते थे कि मैं किस जाति से हूं। भ्रष्टाचार पर बातें होने लगीं तो तपाक से दोनों अधिकारी एक मत होकर कहने लगे कि सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार का प्रादुर्भाव तब से हुआ है, जब से दलित आरक्षण के आधार पर दलित जातियों के लोग सेवाओं में चयनित होकर आ रहे हैं। मुझे यह अतिरंजित विचार अच्छा नहीं लगा और मैंने प्रतिक्रियावश उनसे प्रश्न किया कि उनकी राय में सरकारी सेवाओं में कितने प्रतिशत लोग भ्रष्ट होंगे? उनका उत्तर था कि 90 प्रतिशत से अधिक जनसेवक भ्रष्ट हैं। मैंने कहा कि दलित आरक्षण के आधार पर तो केवल 18 प्रतिशत लोग ही चुन कर आये होंगे तो शेष 72 प्रतिशत किन जातियों के लोग भ्रष्ट हैं? दोनों ही अधिकारी इस पर अनुत्तरित रह गये। इस प्रकार दलितों के विरुद्ध अयोग्य, अक्षम और भ्रष्ट होने का आरोप केवल जातिवाद से ग्रस्त अतिरंजित मानसिकता का द्योतक है। अमरीका में जब अहसास किया गया कि कुछ वंचित लोगों के साथ सामाजिक न्याय नहीं हो पा रहा है तो वहां राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे वंचित लोगों को आरक्षण देकर समाज की इस समस्या का समाधान ढूंढ लिया गया। जब अमरीका में इस तरह के आरक्षण से न तो सरकार के इकबाल में कमी आयी है तथा न ही वहां गुणवत्ता व प्रबन्धन प्रभावित हो पाये हैं तो फिर इस तरह के बहाने हमारे देश में ही ढूंढने के प्रयास क्यों किये जा रहे हैं? कहना न होगा कि यह सब होते हुए भी अमरीका आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में विश्व का सिरमौर बना हुआ है।दोहरा चरित्रउद्योग जगत दलितों को अपने यहां समायोजन से पल्ला झाड़ रहा है। क्या उद्योगों को सरकार वैश्वीकरण के नाम पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाने की क्षमता उत्पन्न करने के लिए उन्हें सब्सिडी और अन्य सुविधाएं नहीं दे रही? क्यों नहीं उद्योग जगत बिना सरकारी सहायता के प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता उत्पन्न कर पा रहे हैं और जब वे अपने आप को इसमें अक्षम पाते हैं तो सरकार को कोसते हैं। यह उद्योग जगत का दोहरा चरित्र दर्शाता है।(शेष अगले अंक में)NEWS
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