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दीनानाथ मिश्र
शादी: आगे झंझट, पीछे झंझट
तीन आंकड़े मुझे याद हैं- लखनऊ साढ़े 12 हजार, दिल्ली 16 हजार, मुम्बई 8 हजार। ये आंकड़े हैं 28 नवम्बर को हुईं शादियों के। मालूम नहीं शादी को लोग एकवचन की तरह इस्तेमाल क्यों करते हैं? यह जब होती है, दो की होती है। एक अकेला क्या शादी करेगा और इसलिए जो भी आंकड़े आए हैं, उसमें दो का गुणा करना चाहिए। अगर सारे हिन्दुस्थान के आंकड़े जोड़ लिए जाएं तो इसी एक दिन में कम से कम 25 लाख लोगों की शादियां हुई होंगी। मगर मैं अखबारी आंकड़ों पर विश्वास कम करता हूं।
जिस भी संवाददाता ने आंकड़ा लिखा होगा, अंदाजा ही लगाया होगा क्योंकि शादियां जब तय होती हैं तो सरकारी या किसी गैर-सरकारी संस्था में सूचना देने के बाद तय नहीं होती। कोई थानेदार, डाकिया, पटवारी अथवा गैर-सरकारी संगठन यह नहीं बता सकता कि उसके इलाके में कितनी शादियां हुईं या होने वाली हैं। अगर कोई टेंट वालों से पूछे तो वे ज्यादा से ज्यादा अपने यहां हुए ठेकों की संख्या बता सकते हैं। अकेले दिल्ली में कोई दस हजार टेंट वाले होंगे। मैं ऐसे किसी संवाददाता को नहीं जानता, जो पूरा हिसाब-किताब करके शादियों की संख्या का आकलन करेगा। घोड़ी वालों की बात तो और भी अलग है, क्योंकि आजकल घोड़ी का रिवाज कुछ घट गया है। दूल्हे राजा अक्सर कारों में ही जाते हैं।
अलबत्ता बैण्ड बाजा अभी तक जरूर अनिवार्य बना हुआ है। मगर वह भी ठीक संख्या लिखने के मामले में किसी संवाददाता की मदद नहीं करते। हां, ऐसे समाचारों का एक फायदा जरूर होता है। जिस बैण्ड वाले की दर दस हजार होती है, वह समाचार छपते ही दर को बढ़ाकर चालीस-पचास हजार रुपए कर देता है। इसी तरह घोड़ी वाले, बत्ती वाले, टेंट वाले, भोजन के ठेके वाले, साज-सज्जा वाले, फूल वाले, शहनाई वाले, इस एक खबर से भावों को कई गुना उछाल देते हैं। संवाददाता तो बड़े आराम से आकलन कर लेता है। और बेटा व बेटी वाले पर शादी का खर्चा बढ़कर दो-ढाई गुणा हो जाता है। वैसे तो वित्त मंत्रालय सोया रहता है। इनमें वे अधिकारी भी सम्मिलत हैं, जो प्रोन्नत होकर संयुक्त सचिव तक पहुंच गए हैं और जिन्हें अनिद्रा की बीमारी है। लेकिन इस बार जब दिल्ली में यह खबर छपी कि 28 तारीख को हुई शादियों में 20 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए तो वित्त मंत्रालय की लार टपकने लग गई। तत्काल उन्होंने शादी को उद्योग का दर्जा दे दिया और सेवा कर की उगाही के लिए फाइलें दौड़ने लग गईं। मुझे मालूम नहीं कि जिस संवाददाता ने जोड़जाड़ कर 20 करोड़ का आंकड़ा बनाया, उसमें सोना और हीरे-पन्ने से जड़े हुए जेवरातों का आकलन शामिल था या नहीं। वर-वधू के लिए विशेषज्ञों द्वारा निर्मित वस्त्रों की कीमत का कोई हिसाब- किताब किया था या नहीं? वंधुओं के चेहरे की विशेष सौन्दर्यीकरण के खर्चों के बारे में सोचा था या नहीं? पांचतारा होटलों में एक-एक चेहरे के सौन्दर्यीकरण पर कई-कई हजार रुपए लग जाते हें। शादी कोई एक उद्योग नहीं है। यह तो उद्योगों का महासंघ है। फूलवालों से लेकर कार वाले तक इसमें जुटे होते हैं। केवल उद्योगों का महासंघ नहीं है यह। कलाकारों का महासंघ भी इसमें जुटा रहता है। संगीत, नृत्य, अल्पना, सारी ललित कलाओं की शादी के मौसम में चांदी होती है।
मुझे कोई एक उद्योग और एक कला बताएं, जिसकी पांचों उंगलियां शादी के इस मौसम में घी में नहीं होती। शुरुआत तो ज्योतिष वाले पंडित जी करते हैं। और शादी हो जाने पर कुछ न करने वाले किन्नर भी अपना मुंहमांगा हिस्सा ले जाते हैं। मुंहमांगा इसलिए कि उनकी राशि सुविचारित होती है। जिस गरीब की शादी में कुल एक लाख रुपए ही खर्च हुए हों, उसे 100 रुपए पर वे छोड़ देते हैं। लेकिन तगड़े तामझाम के साथ हुई शादी के मुख्य कर्ताधर्ता को मोटी रकम लिए बिना वह छोड़ते नहीं। अब भला बताइए, जिसे किन्नर भी नहीं छोड़ते, उसे वित्त मंत्रालय क्यों छोड़े? अब आगे से शादियों में तरह-तरह से अपनी सेवा प्रदान करने वाले ज्यादा सावधान रहेंगे। शादी के लिए सौदा करते समय सेवा कर का भी हिसाब लगा लेंगे। देख लिया न आपने, शादी के साथ झंझट ही झंझट जुड़े हुए हैं। शादी के आगे झंझट, शादी के पीछे झंझट और शादी के समय तो झंझट होता ही है। इन्हीं झंझटों से बचने के लिए कुछ शहरों में मैत्री-करार का चलन चल पड़ा है। बिना शादी के झंझट के जोड़े साथ-साथ रहने लग जाते हैं। मगर ऐसे झंझटों से पीछा नहीं छूटता।
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