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सम्पादकीय

by
Dec 12, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2004 00:00:00

उपकत्र्तृमप्रकाशं क्षन्तुं न्यूनेष्वयाचिंत दातुम्।

अभिसंधातुं च गुणै: शतेषु केचिद् विजानन्ति।।

अपने को प्रकट किए बिना उपकार करना, छोटों को क्षमा कर देना, बिना मांगे देना, गुणों से प्रेम करना बहुतों में से कुछ ही लोग जानते हैं।

-अमृतवर्धन

कुछ हिम्मत की बात करें

गत 3 दिसम्बर को श्रीनगर के पास सोपोर में केन्द्रीय आरक्षी पुलिस बल के शिविर पर इस्लामी आतंकवादियों के हमलों में पांच जवान शहीद हो गए और 3 जवान घायल। आतंकवाद का यह सिलसिला जहां एक ओर थमने का नाम नहीं ले रहा है वहीं शांति और सद्भाव के तमाशे बदस्तूर जारी हैं और घाटी से सैनिकों की वापसी जैसी घोषणाएं हमारे शहीदों के घावों पर नमक छिड़कने का काम कर रही हैं।

सवाल उठता है कि आखिर भारतीय सुरक्षा बलों के जवान किसके लिए काम कर रहे हैं? वे जब अपनी जान देते हैं तो क्या भाड़े के सिपाही के नाते जान देते हैं या यह उनका देश की राष्ट्रीयता की रक्षा के लिए बलिदान होता है? भाड़े के टट्टू तो जिहादी हैं जो पैसे और ऐश के लिए इस देश की अखंडता को घायल कर रहे हैं। एक ओर सरकार कहती है कि वह आतंकवाद को समाप्त करने और घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं की वापसी सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है, दूसरी ओर पाकिस्तान के साथ दोस्ती के लिए हम किसी भी सीमा तक जा सकते हैं तथा हुर्रियत नेताओं के पाकिस्तान जाने पर भी हमें कोई एतराज नहीं है जैसी बातें की जाती हैं। यह भ्रमित दिमाग का ही परिचय देती हैं।

भारत सरकार को चाहिए कि वह पाकिस्तान के असली मंसूबों को पहचाने और अमरीकी डोर से बंधी नीतियों के बजाय खुलकर इस बात की घोषणा करे कि जब तक घाटियों से आतंकवादियों का सफाया नहीं हो जाता और पाकिस्तान उन्हें समर्थन देने से पूरी तरह बाज नहीं आता तथा घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं की ससम्मान वापसी नहीं होती तब तक पाकिस्तान से कोई दोस्ती की शुरुआत एक पाखंड के सिवाय कुछ नहीं होगा।

शादियों का तमाशा

अकेले दिल्ली में एक ही दिन 16 हजार शादियों के आयोजन होने के समाचार हैं। दिल्ली ही क्यों देश के हर छोटे-बड़े नगर में नवम्बर की 28 और 29 तारीखों में शादियों की संख्या लाखों को पार कर गयी। अच्छी बात है। नवदम्पत्तियों को हम सभी शुभकामनाएं देना चाहेंगे। लेकिन इन शादियों के साथ जुड़ा हुआ है विलासिता, ऐश्वर्य के भौंडे प्रदर्शन तथा पैसे के निर्लज्ज और जुगुप्साजनक खर्च का पहलू। विशेषकर महानगरों में करोड़पति, अरबपति व्यापारियों और उद्योगपतियों के यहां ही नहीं, बल्कि राजनेताओं के परिवारों में भी जो शादियां होती हैं, उनमें वैभव का भौंडा प्रदर्शन होता है। इसे एक सामाजिक कलंक ही माना जाना चाहिए। दु:ख की बात है कि कोई भी नेता अथवा सामाजिक विचारक इस प्रकार के भौंडे प्रदर्शन के विरुद्ध खड़ा नहीं होता, न ही वह यह कहता है कि जिस विवाह में धन का निर्लज्ज एवं भौंडा प्रदर्शन होगा, उसमें मैं सम्मिलित नहीं होऊंगा। हमने देखा है कि चाहे किसी भी पार्टी के नेता हों वह न केवल इन विवाहों में सम्मिलित होते हैं और इस अवांछनीय प्रदर्शन को मान्यता देते हैं, बल्कि जब वे अपने बच्चों की भी शादियां करते हैं तो उसमें भी सादगी अथवा संयमित व्यवहार का प्रदर्शन नहीं करते। इसका नतीजा निकलता है समाज के सामान्य मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में इसी प्रकार की परम्परा का प्रसार होने में। आम आदमी समझने लगता है कि शादी तो वही अच्छी है जिसमें तड़क-भड़क हो, पैसे का खेल हो और अधिक से अधिक अतिथियों को आमंत्रित किया जाए। यह सामान्य नागरिक के परिवार पर कितना अधिक बोझा डालता है, इसकी कल्पना वे नहीं कर पाते जो बिना मेहनत के पैसा कमाकर धन-प्रदर्शन को अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक बना लेते हैं। यह समय है कि भारत जैसे देश में शादियों के सम्बंध में सामाजिक एवं धार्मिक नेता शालीनता का उदाहरण प्रस्तुत कराने में सहायक बनें।

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