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देवेन्द्र स्वरूप इराक में इस्लामी जिहादियों द्वारा 12 नेपाली श्रमिकों की निर्मम हत्या पर गुस्से से उबला नेपालबेकाबू काठमाण्डूजिहादी और माओवादी हिंसा में फंसा नेपालकाठमाण्डू में पुलिस और आमजनता आमने-सामनेहमारा पड़ोसी देश नेपाल दो पाटन के बीच बुरी तरह फंस गया है। एक ओर माओवाद का दावानल, दूसरी ओर इस्लामी जिहाद की लपटें। अभी तक कहा जाता था कि नेपाल पृथ्वी तल पर अकेला घोषित हिन्दू राष्ट्र है। चारों ओर पहाड़ियों से घिरा होने के कारण बहुत सुरक्षित है किन्तु वह नेपाल भी इस्लामी जिहाद की लपटों में घिरता जा रहा है। 1751 किलोमीटर से अधिक लम्बी भारत-नेपाल सीमा पर मदरसों का जाल बिछ गया है। दाऊद इब्राहीम के पैसे से नेपाल में स्पेस टाईम नेटवर्क नामक बहुआयामी मीडिया कम्पनी ने अपने पैर जमा रखे हैं। नेपाल जैसे देश में जहां इस्लामी मतावलम्बियों का नाम तक नहीं सुना जाता, वहां के सूचना एवं प्रसारण मंत्री पद पर मुहम्मद मोहसिन नामक मुस्लिम विराजमान हैं। कुवैत और भारत में सक्रिय खाड़ी देशों की मरती कम्पनियां जीविकार्जन के लिए तरस रहे नेपाली नवयुवकों को हजारों की संख्या में बहलाकर खाड़ी देशों में ले जा रही हैं। 10 से 15,000 तक ऐसे युवक खाड़ी देशों में पत्थर ढो रहे हैं, मकानों-दूकानों पर पहरा दे रहे हैं, गाड़ियां चला रहे हैं या अर्दली बनकर जी रहे हैं। नेपाल सरकार के प्रतिबंध का उल्लंघन करके भी कुवैती कम्पनियां गैर कानूनी तौर पर नेपाली युवकों को युद्धरत इराक में खतरे के मुंह में झोंक रही हैं। अपने ही गृहयुद्ध में फंसी नेपाल सरकार इस पूरी स्थिति को असहाय-मूक बनकर देख रही है।यह चलता ही रहता अगर इराक के एक जिहादी संगठन अंसार-उल-सुन्ना ने बारह नेपाली कर्मियों का अपहरण न कर लिया होता यह आरोप लगाकर कि वे इस्लाम के विरुद्ध अमरीकी सेना का साथ दे रहे थे। इस आतंकवादी संगठन ने अपने इस कारनामे को इस्लामी वेबसाइट पर पूरी दुनिया में प्रचारित किया और घोषणा की कि शीघ्र ही हम इन अपहृतों के चित्र भी अपने वेबसाइट पर प्रचारित करेंगे। नेपाल ने अनेक इस्लामी संगठनों और देशों से इस्लाम के नाम पर अपील की कि रोजी-रोटी की खोज में गए इन अभागे निरीह नेपालियों को छोड़ दिया जाए। उनका न इस्लाम से विरोध है, न अमरीका से प्यार। वे तो सिर्फ दो वक्त की रोटी कमाने के लिए स्वदेश से हजारों मील दूर मशक्कत कर रहे हैं। पर, नेपाल की इस याचना का कोई असर नहीं हुआ। और समाचार आ गया कि इस्लाम को बचाने के लिए इन निरीह इंसानों को जिहाद की वेदी पर कुर्बान कर दिया गया। इस निरर्थक रक्तपात ने नेपाल के आहत मन में क्रोध का दावानल सुलगा दिया और पहली बार नेपाल की राजधानी काठमांडू में नेपाली जनता का गुस्सा कुवैत जैसे इस्लामी देशों के संस्थानों और उन्हें जोड़ने वाली मस्जिद पर टूट पड़ा। इस क्रोध-प्रदर्शन के समय भी नेपाली जनता ने आम मुसलमानों की हत्या का रास्ता नहीं अपनाया, क्योंकि इतने भयंकर क्रोध के विस्फोट में भी केवल दो जाने गईं।गृहयुद्ध का शिकंजाअभी तक नेपाली इस्लामी खतरे के प्रति उदासीन था, क्योंकि वह स्वयं ही अपने गृहयुद्ध में बुरी तरह फंसा हुआ है। नेपाल एक स्वतंत्र देश है। उसके और भारत के बीच 1751 किलोमीटर लम्बी एक राजनीतिक विभाजन रेखा विद्यमान है। किन्तु भूगोल, संस्कृति और इतिहास दोनों देशों को जोड़ने का काम करते हैं। वे इस मानव निर्मित कृत्रिम विभाजन रेखा को पूरी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। यही कारण है कि नेपाल का राजनीतिक परिदृश्य भारतीय राजनीति की प्रतिच्छाया मात्र है। वही जाति, नस्ल, क्षेत्र और दलीय प्रतिस्पद्र्धा में विभाजित समाज वही टूटते, बिखरते सत्तालोलुप, अवसरवादी अनेक राजनीतिक दल, वही इस्लामी आतंकवाद और कम्युनिस्ट हिंसा की दोहरी मार। जो भारत भोग रहा है, वही नेपाल भोग रहा है। क्या दोनों देश हिन्दू चरित्र की त्रासदी से गुजर रहे हैं? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।ईसा की चौथी शताब्दी में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति साक्षी है कि नेपाल नाम तब भी था और समुद्रगुप्त के समय उसे भारत के पांच प्रत्यंत (सीमावर्ती) राज्यों में गिना जाता था। हिमालय की ऊंची दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं से सुरक्षित होने के कारण पूरे उत्तर भारत पर मध्यकालीन मुस्लिम विस्तारवाद का आधिपत्य हो जाने पर भी नेपाल में वह प्रवेश नहीं कर पाया। नेपाल एक स्वतंत्र राज्य के रूप में गर्व से अपना मस्तक ऊंचा किये खड़ा रहा। पुरानी राजतंत्रवादी व्यवस्था अपनी तेजस्विता और आदर्शवादी चेतना को खोकर भी वहां जिन्दा रह गई, व्यक्तिगत सत्ता-संघर्ष में उलझी रही। पड़ोसी भारत में बह रही लोकतंत्र की बयार से वह कब तक अछूता रहता। आखिर 1989-90 में व्यापक जनान्दोलन के सामने झुक कर राजमहल ने अपने अधिकारों का आंशिक त्याग करके लोकतंत्रीय संविधान का आवरण पहन ही लिया। किन्तु नेपाली लोकतंत्र का भी वही हश्र हुआ जो भारतीय लोकतंत्र का हो रहा है।राजमहल और राजनेता अपने लोकतंत्री खेल में मगन रहे पर इधर हिंसक राजनीति का खेल शुरू हो गया। सन् 1996 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने खूनी हिंसा का झण्डा उठा लिया। पिछले आठ सालों में 10,000 से अधिक नेपाली नागरिक इस माओवादी हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं। बताया जाता है कि नेपाल के 75 जिलों में लगभग प्रत्येक गांव में वे पहुंच गए हैं। लगभग दो तिहाई नेपाल में उनका हुक्म चलता है, 100 थाने भी ऐसे नहीं हैं, जो नेपाल सरकार का हुक्म पालन करते हों। वस्तुत: नेपाल के राजमहल, लोकतांत्रिक सरकार और माओवादियों के बीच कोई दीवार अभी टिकी हुई है तो वह है नेपाल की शाही सेना। माओवादी भारी जनाधार और हिंसक क्षमता अर्जित करके भी शाही नेपाल सेना से टक्कर लेने की स्थिति में स्वयं को नहीं पा रहे। प्रश्न है कि माओवादियों की असली विचारधारा क्या है, उनकी प्रेरणा क्या है, उनका लक्ष्य क्या है? कैसी विचित्र बात है कि 1996 में जब नेपाल में हिंसा ने माओवाद का आवरण पहना तब तक माओ का अपना देश चीन उन्हें पूरी तरह भुला चुका था, उनका मूर्तिभंजन कर चुका था। उनके व्यक्तिगत जीवन की विलासिताओं और विद्रूताओं को नंगा कर चुका था। माओवादी प्रयोग की विफलता को स्वीकार करके पश्चिम के बाजारवादी विकास के माडल के रास्ते पर पूरी तेजी से दौड़ पड़ा था। अगर आज भी चीन की शासक पार्टी स्वयं को कम्युनिस्ट पार्टी कहती है, कम्युनिस्ट झंडा अभी भी फहराती है तो वह इसलिए नहीं कि वह माक्र्स और माओ की विचारधारा के रास्ते पर अभी भी अटल है, अपितु केवल इसलिए कि कम्युनिस्ट पार्टी के आवरण को बनाए रखकर वह पुरानी एकदलीय अधिनायकवादी व्यवस्था को बनाए रख सकती है। कम्युनिस्ट पार्टी और उसका झंडा चीन के विकास माडल का नहीं, राजनीतिक स्वतंत्रता की दीवार बल्कि अधिनायकवादी व्यवस्था का आवरण मात्र है।ऐसी स्थिति में 1996 में जन्मी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की हिंसक क्रांति की प्रेरणा और लक्ष्य क्या हो सकता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. एस.डी. मुनि जैसे विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि माओवादियों को 1996 से 2001 तक राजपरिवार के ही किसी एक गुट का वरदहस्त प्राप्त रहा है। और तथाकथित माओवादी क्रांति नेपाल की महली राजनीति का ही हिस्सा है। जन समर्थन को पाने के लिए वे नेपाल की गरीबी और बेरोजगारी की समस्या का दोहन करते रहे हैं। गरीबी और बेरोजगारी बहुत मात्रा में नेपाल की भौगोलिक स्थिति की देन है। यदि प्रकृति ने उस पहाड़ी प्रदेश को उत्पादन क्षमता नहीं दी, औद्योगिक विकास के अवसर बहुत सीमित कर दिए हैं तो राजनीति ने भारत से उसका सम्बंध-विच्छेद करके उसे ऊंची पहाड़ियों के बीच कैद करा दिया है। क्योंकि राजनीतिक स्वतंत्रता की यह दीवार भारत के साथ उसके पुराने भौगोलिक और सांस्कृतिक रिश्ते की छाती पर खड़ी की गई है। इसलिए नेपाल के राजनीतिक राष्ट्रवाद की मुख्य प्रेरणा भारत-विरोध बन गया है। नेपाल गरीब क्यों है? क्योंकि भारत ने उसका रास्ता रोका हुआ है, क्योंकि अपने आर्थिक विकास और जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह भारत पर निर्भर दिखाई देता है। भारत का अपराध यह है कि उसके प्राचीन भू-सांस्कृतिक शरीर में से नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बंगलादेश और पाकिस्तान जैसे क्षेत्र राजनीतिक राष्ट्र के रूप में अलग हो जाने के बाद भी वह अपने आकार में महाकाय है। और भूगोल व संस्कृति इन देशों के भारत के साथ अपने पुराने रिश्ते की याद ताजा रखती है। इसलिए नेपाली राष्ट्रवाद को जिन्दा रखने के लिए भारत-विरोधी उन्माद जगाना आवश्यक होता है। इसीलिए माओवादी हिंसा समय-समय पर भारत के साथ अपने सांस्कृतिक रिश्ते को तोड़ने के लिए ज्यादा व्याकुल दिखाई देती है। कहीं वह यज्ञोपवीत विरोधी अभियान चलाती है, कभी संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि से रिश्ता तोड़ने की बात कहती है, कभी वह पूजा और संस्कार विधि के परम्परागत रूप को त्यागने की बात करती है, कभी वे भारतीय फिल्में और टेलीविजन का बहिष्कार का नारा लगाती है। इस सबके पीछे एक ही भाव काम कर रहा है, कैसे भारत विरोध को उभारकर राजनीतिक नेपाली राष्ट्रवाद की लहर पैदा की जाए और उस लहर पर सवार होकर सत्ता पर कब्जा जमाया जाए।स्वाभाविक ही यदि नेपाली राष्ट्रवाद की मुख्य प्रेरणा भारत विरोध ही हो सकता है तो भारत का प्रत्येक प्रतिद्वन्द्वी और शत्रु नेपाली राष्ट्रवाद का मित्र होना चाहिए। भारत कितना भी चाहे नेपाल की ओर से अपना मुंह पूरी तरह नहीं मोड़ सकता। उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता का पूरी तरह आदर करते हुए भी उसके साथ अपने सांस्कृतिक सम्बंधों एवं उसके प्रति अपने आर्थिक दायित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता। आखिर, पशुपतिनाथ के पवित्र तीर्थ को वह कैसे भुला दे? नेपाल के साथ भाषा, लिपि नामकरण के रिश्तों की डोर को कैसे काट दे? सनातनकाल से चले आ रहे आर्थिक आदान-प्रदान के प्रवाह को एकाएक कैसे अवरुद्ध कर दे? उसकी यह मजबूरी ही माओवादी हिंसा का हथियार बनी हुई है।इस समय भी नेपाल में पंजीकृत 800 औद्योगिक प्रतिष्ठानों में से 300 में भारतीय भागीदारी है। नेपाल के निर्यात और आयात का बड़ा प्रतिशत भारत के माध्यम से होता है। नेपाल के राजस्व का बड़ा हिस्सा भारतीय व्यापार से आता है। नेपाल के पर्यटन उद्योग में भारत की भागीदारी सर्वाधिक है। नेपाल की राजधानी काठमांडू की जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति भारत करता है- पेट्रोल-पदार्थ, सब्जी, फल, कागज, कपड़ा, सब कुछ हर रोज हजारों ट्रकों से लदकर काठमांडू जाता है। काठमाण्डू के बाजार में हर तरफ भारतीय चेहरे, भारतीय दुकानें दिखाई देते हैं। भारतीय सीमा से काठमाण्डू को जोड़ने वाली पृथ्वी राजमार्ग नेपाल की जीवन-रेखा से कम नहीं हैं। अभी 16 अगस्त को माओवादियों ने काठमांडू की आर्थिक नाकाबंदी की घोषणा करके इस जीवन-रेखा को ही काटने की कोशिश की, 8 दिन तक काठमांडू इस आर्थिक नाकाबंदी का शिकार रहा। नेपाल सरकार के अनुसार 1 करोड़ रुपए रोज की आर्थिक हानि हुई। 12 बड़ी कम्पनियां जो 45,000 व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रोजगार देती हैं और 2 लाख से अधिक को अप्रत्यक्ष लाभ पहुंचाती हैं बंद हो गईं। यह चरम पग क्यों उठाया गया? तीन मांगें रखी गईं थीं, ये कम्पनियां माओवादी मजदूर संगठन के साथ ठीक व्यवहार करें, माओवादी नेताओं की हत्या की घटनाओं की जांच हो और गिरफ्तार माओवादी कामरेडों का ठीक पता-ठिकाना हमें बताया जाए।उमड़ा आक्रोशपर इस आक्रोश प्रदर्शन का मुख्य कारण बताया जा रहा है कि कुछ समय पूर्व एक माओवादी आतंकवादी को प. बंगाल के सिलीगुड़ी जिले से गिरफ्तार कर लिया गया था। अब खबरें मिल रही हैं कि भारत-विरोधी नाटक करने वाले माओवादी भी भारत को ही अपनी शरणस्थली मानते हैं। नेपाल की सीमा से लगे हुए उत्तराञ्चल, उत्तर प्रदेश, बिहार अौर प. बंगाल में उन्होंने अनेक गुप्त शरणस्थल तैयार कर लिए हैं। यह 1751 किलोमीटर लम्बी सीमा रेखा अभेध, अलंघ्य नहीं है।वह किसी को भी आने-जाने से रोकती नहीं है। हजारों-लाखों लोग इस सीमा को पार करते हैं। अभी 28 अगस्त को माओवादी आतंकवादियों के आक्रमण से बचने के लिए एक सीमा सुरक्षा सैनिक भारत के उत्तराञ्चल राज्य में भाग आया तो उसका पीछा करते सशस्त्र माओवादी भी आ गए। उन्होंने अंधाधुंध गोलियां चलाईं जिससे दो वर्ष की एक बच्ची बुरी तरह घायल हो गई। भारत-नेपाल के सम्बंधों और उसकी सीमा रेखा के रूप को देखते हुए इन घटनाओं की उपेक्षा की जा सकती है।किन्तु इस समय ज्यादा चिन्ताजनक और खतरनाक स्थिति यह है कि नेपाल के माओवादियों ने भारत के बिहार, प. बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और आन्ध्र प्रदेश में सक्रिय तथाकथित नक्सली गिरोहों के साथ भी अपना सीधा रिश्ता स्थापित कर लिया है और नेपाल से आन्ध्र प्रदेश में सक्रिय तथाकथित नक्सली गिरोहों के साथ भी अपना सीधा रिश्ता स्थापित कर लिया है। और नेपाल से आन्ध्र प्रदेश तक सशस्त्र हिंसा के द्वारा माक्र्स-माओस्थान स्थापित करने का स्वप्न देखा जा रहा है। एक सूचना के अनुसार बस्तर के अबूजमाड़ नामक स्थान पर भारत, नेपाल, बंगलादेश और श्रीलंका के अनेक कम्युनिस्ट आतंकवादी गुटों के नेताओं ने एकत्र होकर दक्षिण एशिया की माओवादी पार्टियों की समन्वय समिति (सी.सी.ओ.एम.पी.ओ.एस.ए.) का गठन कर लिया है। कोई क्रांतिकारी अन्तरराष्ट्रीय आंदोलन जैसी रचना भी खड़ी की गई है। इन समाचारों में कितना सत्य है यह कहना अभी कठिन है। पर यदि इसमें कुछ भी सत्य है तो यह एक बड़े खतरे की घंटी है जिस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। (3-9-2004)10
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