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कांग्रेस-कम्युनिस्ट राज में तुष्टीकरण का विषफल-2मदरसों में आखिरपढ़ाया क्या जा रहा है?-सुशील अग्रवालमदरसे में कुरान पढ़ता हुआ एक छात्रइस्लामी सिद्धान्त क्या हैं इस बारे में दो विचार हो सकते हैं। एक, इस्लामी सिद्धान्तों की परम्परागत अवधारणाएं, जिन्हें इस्लामी विद्वानों ने स्पष्ट किया है। दूसरे, 12वीं सदी के सूफी इब्न-अरबी की व्याख्या।सन् 1165 में जन्मे मोहिउद्दीन इब्न-अल-अरबी अपने युग के महानतम सूफी थे। उन्होंने पवित्र कुरान को आधार बनाकर अल्लाह और मनुष्य के बीच के सम्बंधों की जो आध्यात्मिक व्याख्या की, वह भारत के वेदान्त के सिद्धान्तों से मिलती-जुलती थी। इब्न-अरबी के सिद्धान्त को नाम मिला “वाहदत-अल-वजूद” (अस्तित्व में ऐक्यभाव)। यह सिद्धान्त वेदान्त के इस विचार के निकट था कि प्रत्येक प्राणी ईश्वरीय तत्व का अंश है। “वाहदत-अल-वजूद” का सिद्धान्त मुसलमानों और गैरमुसलमानों में भेद करने की जरूरत नहीं समझता था और यह मानता था कि हर मानव प्रयास करने पर ईश्वरीय सत्ता की निकटता पा सकता है। परम्परावादी मुस्लिम सूफियों और विद्वानों को इब्न-अरबी के विचार इस्लाम विरोधी लगते थे, अत: उन्होंने इन सिद्धान्तों का घोर विरोध किया। भारत में “वजूद” का यह सिद्धान्त 14वीं सदी के अंत तक मुस्लिम समुदाय में एक सीमा तक प्रचलित हो गया था। इसका प्रभाव लगभग 300 वर्ष तक रहा। कबीर।, बुल्लेशाह, दारा शिकोह जैसे अनेक सूफी और विद्वान इस सिद्धान्त के पक्षधर थे। परन्तु उन्होंने परम्परावादी मुसलमानों के हाथों बहुत प्रताड़ना सही। कबीर, दारा शिकोह आदि को तो अपनी जान भी गंवानी पड़ी। “वजूद” के सिद्धान्त और वेदान्त के सिद्धान्तों की समानता के कारण उस काल में वजूदियों और हिन्दुओं के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बंध थे।मुस्लिम विद्वानों ने पवित्र कुरान और हदीस के जो अनुवाद और व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं, उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि इस्लामी सिद्धान्त का बड़ा हिस्सा इस बात की चर्चा करता है कि गैरमुसलमानों के बारे में मुसलमानों का रुख क्या हो। गैरमुसलमानों के लिए इन विचारों को जानना अति आवश्यक है, क्योंकि ये उनके जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। मुस्लिम विद्वानों के अनुवादों और व्याख्याओं से स्पष्ट होता है कि हिन्दुओं के दिल में जो भय और आशंकाएं हैं, वे आधारहीन नहीं हैं। इस्लामी सिद्धान्त की मूल मान्यता है कि केवल इस्लाम ही सच्चा मजहब है और शेष सभी मत और मजहब अधूरे या झूठे हैं और अल्लाह को केवल इस्लाम पसन्द है और बाकी नापसन्द। सभी गैरइस्लामी मजहबों और उसके अनुयायियों को अल्लाह द्वारा बताई गई सच्चाई स्वीकार करके इस्लाम में प्रवेश कर जाना चाहिए। गैरइस्लामी मजहबों का संसार में बने रहना अल्लाह के प्रति जुल्म है और उनका खात्मा हो जाना अल्लाह की मर्जी। इस्लाम की मान्यता है कि गैरइस्लामी लोग (काफिर) निकृष्ट जीव हैं और मुस्लिमों की घृणा के पात्र हैं। उन्हें इस्लाम में लाना उन्हीं के कल्याण के लिए है। अल्लाह ने मुसलमानों को धरती पर अपना प्रतिनिधि (खलीफा) घोषित किया है, मुसलमानों को “अल्लाह की पार्टी” (हिज्बुल्लाह) और गैरमुस्लिमों को “शैतान की पार्टी” कहा है। अत:, मुसलमान अल्लाह की मर्जी पूरी करने के औजार हैं और अल्लाह की मर्जी है इस्लाम का अन्य सभी मजहबों पर वर्चस्व। इस्लाम ने मुसलमानों के हाथों गैर मुसलमानों को प्रताड़ित करने का अधिकार भी दिया है ताकि उन्हें इस्लाम न अपनाने के लिए अल्लाह का दंड मिल सके।अल्लाह ने मुसलमानों को अल्लाह की राह में जिहाद करने का आदेश दिया। जिहाद का अर्थ है जी-तोड़ कोशिश, जिसमें युद्ध करना, आर्थिक सहायता करना व अन्य हर प्रकार की कोशिश शामिल है जिससे इस्लाम का विस्तार हो सके। जिहाद हर मुसलमान का फर्ज है और अल्लाह हर मुसलमान की जांच करेंगे कि उसने जिहाद किया या नहीं। जिहाद की अवधारणा मुसलमानों और गैरमुसलमानों के बीच निरंतर चलने वाले युद्ध की अवधारणा है जो तभी समाप्त होगी जब सब मनुष्य इस्लाम कबूल कर लेंगे। जिहाद का सिद्धान्त इस्लामी सिद्धान्त का कितना महत्वपूर्ण हिस्सा है, यह बात 18वीं सदी के महान् इस्लामी विद्वान शाह वली अल्लाह के विचारों से ज्ञात होती है। इन विचारों को सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी ने अपनी पुस्तक “शाह वली-अल्लाह एंड हिज टाइम्स” में प्रस्तुत किया है। उसका एक उद्धरण इस प्रकार है-“शाह वली-अल्लाह के अनुसार जिहाद किया जाना ही शरीयत का पूर्णता से लागू होना है। शरीयत के अनुसार एक मुसलमान के फर्ज को वे घर के एक सेवक से तुलना करके बताते थे। यदि यह सेवक घर के अन्य सेवकों को बीमारी की दवाई जबरदस्ती पिला दे तो इसमें कुछ भी गलत नहीं हालांकि नरमाई से दे तो और भी अच्छा है। परन्तु, शाह कहते थे, लोग अपने घटियापन के कारण अपने पुराने मजहबों से चिपके रहते थे और पैगम्बर मुहम्मद की सलाह और आदेश की अवहेलना करते थे। ऐसे लोगों की हलक के नीचे इस्लाम जबरदस्ती उतारा जाना ही ठीक है जैसे एक बच्चे को कड़वी दवा पिलाना। यह तभी सम्भव है जब गैरइस्लामी समुदायों के नेताओं का कत्ल कर दिया जाए, इन समुदायों की ताकत तोड़ दी जाए, सम्पत्ति छीन ली जाए और ऐसी स्थिति बना दी जाए कि उनके अनुयायी और वंशज खुद ही इस्लाम कबूल कर लें। शाह का कहना था कि बिना जिहाद के इस्लाम का पूरी दुनिया पर वर्चस्व सम्भव नहीं।” (पृ. 285-86)उपरोक्त सभी बातों को मुस्लिम विद्वानों द्वारा प्रकाशित अनुवादों और व्याख्याओं को पढ़कर विस्तार से जाना जा सकता है। प्रश्न यह उठता है कि इस्लामी मदरसों में इस्लाम का कौन-सा पक्ष पढ़ाया जाता है। क्या इब्न-अरबी की उदारवादी व्याख्या पढ़ाई जाती है या फिर परम्परावादी मान्यताएं पढ़ाई जाती हैं, जो इस्लाम को विस्तारवादी और एकाधिकारवादी के रूप में बताती हैं तथा मुसलमानों और गैर-मुसलमानों को मोमिन-काफिर युद्ध की न बुझने वाली आग में झोंकती हैं। आश्चर्य की बात है कि सेकुलरवादी और कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों तथा मीडिया ने इसका कभी गहराई से चिंतन नहीं किया। अपनी सारी बौद्धिक शक्ति उन्होंने हिन्दू समाज को नीचा दिखाने और शर्मिन्दा करने में ही लगा रखी है।(।हिन्द पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित सुदर्शन चोपड़ा की पुस्तक संत कवि कबीर के पृष्ठ-858 पर उल्लेख है। “कबीर का जन्म नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति के यहां संवत् 1455 यानी “ईस्वी सन् 1398 में तथा मृत्यु संवत् 1551 अर्थात् सन् 1494 के आसपास हुआ। जब सिकन्दर लोदी काशी आया। मृत्यु का प्रामाणिक कारण भी सिकन्दर लोदी के आदेश से काजी द्वारा हाथी के पैरों तले कुचलवाया जाना ही है।”)30
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