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शिव ओम अम्बरअग्निरेखा-सी महादेवीअभिव्यक्ति मुद्राएंप्यार की लिक्खी हुई ये चिट्ठियां हैं,जान से ज्यादा हमारी बेटियां हैं।-सुधीर कुशवाहसबके सब हो गये सयाने अब,फिर भला किसकी कौन माने अब।-राजेन्द्र तिवारीदोस्ती के, प्यार के रिश्ते फसाने हो गये,अब बदल दो यार से कपड़े पुराने हो गये।-प्रभात शंकरमहीयसी महादेवी की अवसान तिथि (11 सितम्बर) पर अनायास उनकी अन्तिम कृति “अग्निरेखा” चेतना में दीप्त हो रही है। उल्लेखनीय है कि अपने जीवन की अन्तिम वेला में महादेवी स्वयं को अत्यन्त आहत, विवश और वंचित महसूस करने लगी थीं। तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थितियों से उपजा आक्रोश उन्हें विचलित करता था। एक ओर तो वह अपने अदृश्य प्रियतम को अघ्र्य अर्पित करने के लिए वेदमन्त्रों का भावानुवाद करती रहती थीं और दूसरी ओर दिग्भ्रमित राष्ट्र को आग्नेय सम्बोधन देने के लिए चिनगारियों से भरे गीत भी रचती रहती थीं। उनके इन्हीं गीतों का संग्रह “अग्निरेखा” उनके अवसान के उपरान्त राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। उसके प्रकाशकीय वक्तव्य की कुछ उल्लेखनीय पंक्तियां इस प्रकार हैं-“महादेवी जी की यह अन्तिम काव्य-कृति है और उनकी अनुपस्थिति में पहली। इसके प्रकाशन-सन्दर्भ में यह तथ्य रोमांचित करता है कि इसका नाम उन्हीं का रखा हुआ है और पांडुलिपि पर भी एक हद तक वे स्वयं कार्य कर गई थीं। उनके सर्वमान्य और स्थापित काव्य-स्वर से इनका स्वर निश्चय ही भिन्न है किंचित परुष और आग्नेय। इन्हें पढ़ते हुए लगातार उस विषम काल-प्रवाह का अनुभव होता है, जो पिछले एक-डेढ़ दशक से महादेवी जी को क्षुब्ध और अशान्त किये हुए था।””नीरभरी दुख की बदरी” की संज्ञा से साहित्य-जगत् में प्रख्यात महादेवी को छायावाद के देव मन्दिर की निर्वात-निष्कम्प दीपशिखा के रूप में मान्यता मिली। कभी उन्हें वेदना के वटवृक्ष की अमृता शाखा की संज्ञा दी गई तो कभी महाप्राण निराला की दृष्टि ने उनमें “स्फूर्ति-चेतना-रचना की कल्याणी प्रतिमा” का साक्षात्कार किया। अपने अदृश्य प्रियतम के प्राणों की पीड़ा को भी आत्मसात कर लेने को उत्सुक, वह आधुनिक मीरा के रूप में भी समीक्षित तथा अभिवन्दित हुईं। किन्तु “अग्निरेखा” के पृष्ठ हमें एक दूसरी ही महादेवी से परिचित करवाते हैं। अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचकर महादेवी क्रान्ति की उद्घोषिका बन जाती हैं। नयनों में व्यथा की अनलिखी पाती बांचने के बाद अब वह अपनी श्वासों से चिनगारियों की वर्णमाला लिखने की बात कहती हैं-अब नहीं दिन की प्रतीक्षा हैन मांगा है उजाला,श्वास ही अब लिख रहीचिनगारियों की वर्णमाला।तथा युवा पीढ़ी को आंधी में बदल जाने की प्रेरणा देती हैं-कड़ियां शत-शत गलें स्वयंअंगारों पर बिछ लो,पूछो न प्रात की बात आजआंधी की राह चलो!समाधान के शामक विराम चिन्ह देने वाली महादेवी अपनी अन्तिम कृति में एक प्रज्वलित प्रश्नचिन्ह में परिवर्तित होकर हुंकार उठती हैं-पंक-सा रथ-चक्र से लिपटा अंधेरा हैयह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है?महादेवी की पुण्यतिथि पर हम उनके इस सात्विक आक्रोश का, इस परिवर्तनकारी अमर्ष का स्मरण करें – यह स्मरण हमें सचेत रखेगा।0 0 0हा-हा हिन्दी दुर्दशा न देखी जाएये ऊंचाई है तुलसी की ये सूर-सिन्धु की गहराई,टंकार चन्दबरदाई की ये विद्यापति की पुरवाई।जयशंकर का जैकार निराला का ये अपराजेय ओज,ये गर्जन अपनी संस्कृति का ये गुञ्जन अपनी भाषा का।करते हैं तन-मन से वन्दन अपनेपन की परिभाषा का,आराधन अपनी संस्कृति का अभिनन्दन अपनी भाषा का।हिन्दी-वन्दना की उपर्युक्त पंक्तियां लिखने वाले कविवर सोम ठाकुर, जो इस समय उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष हैं, अक्सर कहा करते हैं कि हिन्दी के साथ हमारे संविधान ने वही व्यवहार किया है जो कभी शकुन्तला के साथ दुष्यन्त ने किया था। उनके रूपक को आगे बढ़ाते हुए मैं कहना चाहता हूं कि जिस प्रकार चक्रतीर्थ में कभी शकुन्तला की मुंदरी गिर गई थी, उसी प्रकार राजनीति के दुश्चक्रतीर्थ में हिन्दी की अभिज्ञान-मुद्रिका गिर गई है। और जिस प्रकार एक मत्स्य का पेट चीरने पर किसी धीवर को वह प्राप्त हुई थी तथा राजा दुष्यन्त तक पहुंची थी, उसी प्रकार तुष्टीकरण के मत्स्य का पेट चीरने वाला दक्ष-धीवर ही पुन: उसे पाएगा और तभी दुष्यन्त के पश्चाताप तथा प्रायश्चित की भूमिका बनेगी। वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में हिन्दी पिछड़ेपन की प्रतीक है और दूरदर्शन तथा विविध टी.वी. चैनलों की कृपा से वह बड़ी तीव्र गति से “हिंग्लिश” में बदलती जा रही है। आने-वाले कुछ ही दशकों में शुद्ध गंगाजल की तरह शुद्ध हिन्दी भी इस देश के अतीत का पृष्ठ बन सकती है। “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल” नामक मंत्र देने वाले भारतेन्दु आज होते तो सिर पर हाथ रखकर अनायास कह उठते-“हा-हा हिन्दी दुर्दशा न देखी जाई!”0 0 0पुरवा सुहानी आई रे!उस दिन अचानक सब टी.वी. के श्री अशोक चक्रधर द्वारा संचालित एक कार्यक्रम में श्रीमती सरिता शर्मा, डा. कुंअर बेचैन तथा सन्तोष आनन्द जी के गीतों को सुनकर चित्त अनुरंजित हुआ, आनन्दित भी। पावसी पृष्ठभूमि में संयोजित इस सुरुचिपूर्ण काव्य-गोष्ठी के माध्यम से तथाकथित “पोप कल्चर” के चलते निरन्तर हाशिये पर होते जा रहे गीत को पुन: केन्द्र में स्थापित करने की स्तुत्य चेष्टा की गई। जिस समय डा. कुंअर बेचैन अपना प्रख्यात गीत “बदरी बाबुल के अंगना जइयो” को भावपूर्ण स्वर में प्रस्तुत कर रहे थे, आमंत्रित श्रोताओं के मध्य बैठी अनेक महिलाओं को बार-बार आंखें पोंछते देखा जा सकता था। सर्वान्त में, “पुरवा सुहाई आई रे” को सन्तोष आनन्द जी के मुख से सुनकर बहुत सुखद अनुभूति हुई। बहुतों को तो पता ही नहीं था कि यह लोकप्रिय फिल्मी गीत सन्तोष आनन्द जी का ही है। अपनी संचालकीय टिप्पणी में श्री अशोक चक्रधर ने पश्चिमी धारा से प्रभावित युवा वर्ग से पूर्वी संस्कृति के वाग्वैभव से जुड़ने का अनुरोध किया। जब वह पछुआ के दीवानों को पुरवा की तरफ मोड़ने की कोशिश कर रहे थे, मेरे चित्त में कविवर उदय प्रताप की कुछ पंक्तियां उभर रही थीं जो हमें हमारे दीवानेपन के अंजाम के प्रति सचेत करती हैं-एक शाम रवि के प्रति दैन्य भाव जागा,डूबने को चढ़ता है व्योम में अभागा।नाम बोला और भला क्या होगा उसका जोपूरब में जन्म लेकर पश्चिम को भागा!25
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