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संस्कृति सत्य

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Dec 9, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Dec 2004 00:00:00

वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”31.5.1930कोठी नं.9 बहावलपुर, लाहौर30-31 मई, सन् 1930की रात थी। क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद अपने साथियों, सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर को जेल से बलात् छुड़ाने की तैयारी में संलग्न थे; साथी यशपाल के बनाए तीन बम लाहौर की बहावलपुर स्थित कोठी संख्या 9 की एक अलमारी में रखे हुए थे। उस कोठी में चंद्रशेखर आजाद, धंवन्तरी, मदन गोपाल, मास्टर छैल बिहारी, विश्वनाथ वैशम्पायन, यशपाल, दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी सभी सो रहे थे। इनमें से कुछ क्रांतिकारी साथी कोठी के बाहर सोए थे और कुछ कोठी के भीतर। दुर्गा भाभी कोठी के बाहर सो रही थीं। 4 बजे उनकी नींद टूटी, तो वे अपने स्वर्गीय पति भगवती चरण वोहरा, जो दो दिन पूर्व ही रावी नदी के तट पर बम परीक्षण करते हुए बलिदान हो हुए थे, की याद में शोकाकुल हो रुदन कर उठीं। उनकी रुलाई रुक नहीं पा रही थी, यद्यपि सुशीला दीदी ने अन्दर के कमरे में सोये धंवन्तरी को जाकर जगा दिया और उनसे कहा-“तुम जरा दुर्गा भाभी को चुप कराओ।” वे दुर्गा भाभी के पास पहुंचे ही थे कि वहां आलमारी में रखे 3 बमों में से एक बम फट गया, पुलिस के आने का खतरा देख चन्द्रशेखर आजाद ने तुरन्त गोलियों से भरी अपनी पिस्तौल संभाली और कोठी के बाहर उस जगह आ खड़े हुए, जहां से कोठी का दूसरा हिस्सा शुरू होता था। आजाद ने बम धमाके के बाद साथी यशपाल, धंवन्तरी, वैशम्यायन सहित सभी साथियों को आदेश दिया, “अपनी जरूरी चीजें लेकर तैयार रहो।” धंवन्तरि ने दुर्गा भाभी और विश्वनाथ वैशम्यायन को साथ लिया और निकट ही रह रहे अपने एक मित्र के घर पहुंचा आए। छैल बिहारी और मदन गोपाल को सलाह दी कि “यहां से चल दो और विश्वविद्यालय के खेल के मैदान पर पहुंचोे। वहीं इन्तजार करना।” इसी बीच एक पड़ोसी इंजीनियर ने पुलिस को धमाके की खबर फोन पर दे दी तो पुलिस की गाड़ी वहां आ धमकी, जिससे पूरा मुहल्ला चौंक गया। फिर भी कोठी में घुसने का साहस किसी में नहीं था। हां, जल्दी में एक गलती हो गई थी। साथी सुखदेव राज पंजाब विश्वविद्यालय पुस्तकालय से दो पुस्तकें अपने नाम चढ़वाकर लाए थे। वे पुस्तकें वहीं छूट गईं। इससे पुलिस को पता चल गया कि इस कोठी में कौन लोग रहते थे। आजाद ने उसी दिन मास्टर छैल बिहारी को शिमला रवाना कर दिया और मदन गोपाल को भी लाहौर से दूर अन्यत्र भेज दिया। दोनों क्रांतिकारियों के साथ एक-एक परिचित यात्रा में भेजा गया ताकि पुलिस कोई संदेह न कर सके। स्वयं आजाद उस दिन सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी के साथ लाला अचिन्त्यराम के घर जाकर रहे। पर कुछ देर बाद आजाद को याद आया कि भाभी एवं दीदी के जो वस्त्र सूखने के लिए कोठी नं.9 में फैले थे, वे तो वहीं छूट गए हैं। आजाद ने किसी को बिना कुछ बताए फौरन एक साइकिल उठाई। अपना भरा हुआ रिवाल्वर जेब में रखा और उस कोठी के आगे पहुंच गए। देखा, अभी पुलिस आई नहीं है। आजाद सीधे कोठी में घुसे। अन्दर अलगनी से भाभी और सुशीला दीदी के कपड़े उठाए और उनको एक गठरी में बांधा। बाहर जाकर साइकिल के आगे हैण्डिल पर रखा और बंगले के पिछवाड़े से निकले ही थे कि सामने से गोरों का पुलिस दल आ भिड़ा। आजाद रुक गए। गोरों ने उनसे पूछा- “मैन! कहां जाटा हाय? तुम्हारा नाम?” आजाद ने ठेठ धोबियों के अंदाज में कपड़े धोने की प्रक्रिया प्रदर्शित करके बड़ी आजिजी से समझाया कि “धोबी हैं हजूर! कपड़ा धोबत हैं।” गोरों ने फिर पूछा-“किडर से कपरा लाया?” आजाद ने बेझिझक कहा-“हजूर” इसी बंगले के साहब का धोबी हूं। बताते समय बजाय कोठी नं.9 के दूसरे बड़े बंगले की ओर इशारा कर दिया और अंग्रेज आजाद को कोई देहाती धोबी मानकर आगे बढ़े गए। बाद में आजाद ने कहा था कि “गोरे न मानते तो मेरी जेब में रिवाल्वर था ही, गोली चलती। लड़ते-मारते खेत रहता था या फिर निकला भी जा सकता था, पर जिन्दा उनके हाथ यह शरीर कभी नहीं आता।”16

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