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सुरेश सोनीप्रश्नोपनिषदप्रश्नोपनिषद् में देश के भिन्न-भिन्न स्थानों से आये सुकेशा, सत्यकाम, सौयमिणी, कौशल्य भार्गव और कबन्धी आदि विद्वानों द्वारा महर्षि पिप्पलाद से पूछे गये प्रश्न मुख्य रूप से इस प्रकार हैं-सम्पूर्ण प्रजा कहां से व कैसे उत्पन्न होती है?प्राण की उत्पत्ति कैसे है? वह शरीर में किस प्रकार आता है और किस मार्ग से बाहर जाता है?मनुष्य को जब स्वप्न आता है अथवा वह निद्रामग्न रहता है तब कौन सी इन्द्रिय सोती है? कौन जाग्रत रहता है? स्वप्न कौन देखता है? नींद में सुख किसे मिलता है और प्रगाढ़ निद्रा में इन्द्रियां कहां जाकर लीन होती हैं?जो मनुष्य लोक में मरणपर्यन्त ॐकार का ध्यान करता है उसे किस लोक की प्राप्ति होती है?सोलह कलाओं या तत्वों की जिससे उत्पत्ति होती है, वह पुरुष कौन है तथा वे सोलह कलाएं क्या हैं?इसी प्रकार के प्रश्न भिन्न-भिन्न उपनिषदों में खड़े किये गये और उनके समाधान में भारतीय तत्वचिंतन व अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उपनिषदों का यह ज्ञान भिन्न-भिन्न माध्यमों व प्रणालियों से दिया गया है। यह कुछ उपनिषदों की घटनाओं के विश्लेषण से हमें ज्ञात होता है।(अ) कथा-विधि- केनोपनिषद् में एक कथा द्वारा तत्व की अभिव्यक्ति हुई है। देवासुर संग्राम में विजय से उन्मत्त देवताओं को अहंकार हो गया। उसी समय बाहर एक विशालकाय यक्ष प्रगट होता है। वह कौन है, यह जानने के लिए इन्द्र, अग्नि को उसके पास भेजता है। अग्नि से यक्ष पूछता है कि तुम्हारी विशेषता क्या है? अग्नि कहता है, “मैं सब कुछ भस्म कर सकता हूं।” तब यक्ष एक तिनका उसके सामने रखता है और कहता हैं, “इसे जलाओ।” इसे देख अग्नि उपहास से हंसता है और उसे जलाने में प्रवृत्त होता है। पर आश्चर्य, अपनी सम्पूर्ण सामथ्र्य लागाने पर भी वह जला नहीं पाता। तब अग्नि लज्जित होकर वापस लौटता है। इन्द्र तब वायु को भेजता है। वायु से भी यक्ष पूछता है, “तुम कौन हो?” वायु कहता है, “मैं वायु।” तब यक्ष पुन: पूछता है, “तुम्हारी क्या विशेषता है?” वायु कहता है, “मैं सब कुछ उड़ा सकता हूं” तब यक्ष उस तिनके को उड़ाने को कहता है और आश्चर्य, वायु भी असफल होता है। पराभूत होकर वायु लौटता है तब इन्द्र स्वयं आता है और आश्चर्य यह कि “वह यक्ष गायब हो जाता है। तभी भगवती हेमा प्रकट होती हैं और फिर कहती हैं, सबकी शक्तियों का स्रोत एक तत्व है और फिर तत्व ज्ञान का उपदेश दिया जाता है।(ब) इन्द्र-विरोचन कथा- छांदोग्योपनिषद् में यह कथा आती है। असुरों का राजा विरोचन तथा देवताओं का राजा इन्द्र पापरहित, क्षयरहित, निर्मल, जरा, शोक, मृत्यु से रहित आत्म तत्व को जानने की इच्छा से कुछ भेंट सामग्री लेकर विनम्रतापूर्वक ब्राह्मा के पास आये। ब्राह्मा ने दोनों को ज्ञान देना स्वीकार किया तथा कुछ वर्ष साधना के बाद कहा, नेत्रों को जो दिखाई देता है, पुरुष ही आत्मा है। यह सुनकर इन्द्र और विरोचन ने सुन्दर वस्त्र, अलंकार पहनकर जल में, दर्पण में देखा। जल तथा दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब को देखकर दोनों लौटे। विरोचन ने सोचा शरीर ही आत्मा है। अत: शरीर के सुख व उसके लिए साधन जुटाना ही जीवन का ध्येय है। इस प्रकार असुर संस्कृति भोगवादी बनी। परन्तु इन्द्र के मन में प्रश्न आया, शरीर को रोग होता है, क्षय होता है। अत: आत्मा कुछ भिन्न तत्व होना चाहिए। अत: मात्र भोगों में न अटक कर वह पुन: कुछ वर्ष साधना करने के बाद कहता है कि, “गहरी निद्रा में स्वप्नशून्य अवस्था में जो रहता वह आत्मा है।” इन्द्र वापस लैटता है, पर सोचता है प्रगाढ़ निद्रा में तो कुछ भी ध्यान नहीं रहता, अत: पुन: ब्राह्मा के पास आता है। तब और कुछ वर्ष साधना करने के बाद इन्द्र आत्मज्ञान का अधिकारी होता है। तब ब्राह्मा उसे समझाते हैं। शरीर की इन्द्रियों द्वारा मनुष्य जाग्रत अवस्था तथा स्वप्नावस्था में देखता, सूंघता, चखता, स्पर्श करता और सुनता हुआ व्यवहार करता है, पर इस सब में शरीर इन्द्रिय आदि का जो उपयोग करता है और कहता है, मैं देखता हूं, सूंघता हूं, वही आत्मा है। इसकी अनुभूति होने पर मनुष्य दु:खों से मुक्त हो जाता है।(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित, पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार)24
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