पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहलेवर्ष 9, अंक 25, पौष कृष्ण 5, सं. 2012 वि., 2 जनवरी, 1956, मूल्य 3आनेसम्पादक
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पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहलेवर्ष 9, अंक 25, पौष कृष्ण 5, सं. 2012 वि., 2 जनवरी, 1956, मूल्य 3आनेसम्पादक

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Jul 11, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 Jul 2004 00:00:00

पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहलेवर्ष 9, अंक 25, पौष कृष्ण 5, सं. 2012 वि., 2 जनवरी, 1956, मूल्य 3आनेसम्पादक : गिरीश चन्द्र मिश्रप्रकाशक – श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म कार्यालय, सदर बाजार, लखनऊछात्रों द्वारा “गीता” का मजाकमुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानंद द्वारा छात्रों की भत्र्सना(विशेष प्रतिनिधि द्वारा)लखनऊ: प्रचलित पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली से दीक्षित नवयुवकों में ही नहीं तो शिक्षा विशारदों में भी भारतीय सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों के प्रति किस प्रकार उपहास का भाव वृद्धिगत होता जा रहा है इसका एक लज्जाजनक उदाहरण उस समय उपस्थित हुआ जिस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द जी प्रयाग में अधिकारी दक्षा विद्यालय (आई.ए.एस. तथा पी.सी.एस. अफसरों का ट्रेनिंग स्कूल) के किसी समारोह में भाग लेने के लिए पहुंचे।विद्यालय के प्रिंसिपल द्वारा एक छात्र को गीता की पैरोडी (काव्य हास्यानुकृति) पढ़ने का आदेश दिया गया। पैरोडी में बाटा, फ्लेक्स आदि जूतों का अनेक बार उल्लेख किया गया था। संस्कृत श्लोकों में जूतों की प्रशंसा करते हुए कहा गया था कि जब उनसे ऋषियों की पिटाई हुई तो किस प्रकार का जादू का सा प्रभाव हुआ। इसके अतिरिक्त पैरोडी में कृष्ण और अर्जुन वार्ता के बीच अर्जुन ने कृष्ण से जूतों के गुण बखानने की भी प्रार्थना की। कुछ मिनट तक तो सम्पूर्णानन्द जी इस प्रकार की बेहूदी बातें सुनते रहे बाद में उनका क्रोध उबल पड़ा। उन्होंने बुरी तरह नाराज होते हुए कहा “मुझे गहरी वेदना है। मेरे ह्मदय पर आघात हुआ है। अत्यंत आश्चर्य का विषय है कि ऐसी बातों की प्रशंसा की गई। मैं इसे अत्यंत बेहूदा समझता हूं।” डा. सम्पूर्णानन्द ने आगे कहा, “यदि कोई विदेशी इसे देखे और सुने तो हमारे बारे में क्या सोचेगा? जब आप विदेशों को जाएंगे तो भारत के धर्म और संस्कृति का क्या इसी गन्दे ढंग से प्रचार करेंगे?”राज्य-पुनर्गठन की समस्यापरामर्शदात्री समितियों का संगठन सम्भव नहींएकता के पुनर्जागरण के लिए प्रभावी प्रयत्नों की आवश्यकता(पं. दीनदयाल उपाध्याय का वक्तव्य)इन्दौर: भारतीय जनसंघ के महामंत्री पं. दीनदयालजी उपाध्याय द्वारा पत्रकार सम्मेलन में दिया गया वक्तव्य:- राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रतिवेदन के पश्चात् देश के विभिन्न भागों में जो अवांछनीय घटनाएं हुई हैं तथा जिस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रदेशों के सम्बंध में मांगें रखी जा रही हैं उनसे यह स्पष्ट हो गया है कि राष्ट्रीय एकता का भाव निर्बल होकर उसके स्थान पर प्रादेशिक एवं अन्य साम्प्रदायिक भावनाएं प्रबल होती जा रही हैं। देश के सभी विचारक, पं. नेहरू सहित, इस आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं कि आज का विधान जो स्वायत्त अथवा अद्र्ध स्वायत्त राज्यों की कल्पना एवं निर्मिति पर आधारित है, भारत की एकता और राष्ट्रीयता के उपयुक्त नहीं है। भारतीय जनसंघ प्रारंभ से ही राष्ट्र्रीय एकता पर श्रद्धा रखता है। भारत की एकता को बनाए रखने की जो अपील पं. जवाहर लाल नेहरू ने की है, हम उसका समर्थन करते हैं, और देश के सभी राष्ट्रीय शक्तियों से हमारा अनुरोध है कि वे इस विषय में प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत करें। भारतीय जनसंघ राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से एकात्मक शासन में विश्वास करता है। आज के भाषा, साम्प्रदायिकता एवं जातीयवाद पर आधारित विघटनकारी तत्वों का यदि मुकाबला करना है तो हमें संविधान में आधारभूत संशोधन करना पड़ेगा। भारत की एकता और अखंडता के प्रति हमारी श्रद्धा को विभाजन के कारण जो धक्का लगा है उसे इस प्रकार के साहसी और क्रांतिकारी पग से ही पुन: प्रस्थापित किया जा सकता है। नेहरूजी ने राज्यों के पुनर्गठन के उपरान्त जिस प्रकार की परामर्शदात्री समितियों के गठन का सुझाव रखा है वे कारगार नहीं हो सकेंगी। यह तो टांग काटकर चलने के लिए वैशाखी देने के समान होगा।मातृमण्डलअध्यापिका संघ(श्रीमती प्रभावती नारायण)ऐसी विधवाएं, जिन्हें जीवनयापन का दूसरा आधार नहीं, ऐसी सुहागिनियां-अपंग, वृद्ध, रोगग्रस्त पतियों का जिनके कंधों पर दायित्व है अथवा ऐसे पतियों की बेबस पत्नियां, जो दुराचार, क्षणिक मौज और उत्तेजक आनन्दों या मन:स्थितियों को भुलाने वाले व्यसनों में अपनी आय स्वाहा कर देते हैं, आज जीविकोपार्जन के लिए सम्मानपूर्ण दरवाजे ढूंढ रही हैं। त्रस्त और भीत, संतप्त और प्रताड़ित, क्षुधित और अद्र्धनग्न ऐसी महिलाओं का एक बड़ा समूह समाज में तैयार हो गया है, जिनमें से कुछ के जीवन की साध पाठशाला की पटियों पर घिस-घिस कर समाप्त हो जाती है, कुछ की जिन्दगी तकदीर की फटी चादर सिंगर या उषा मशीन की सुइयों से सीते बीत जाती है और कुछ को यह भी नसीब नहीं होता। अध्यापन कार्य में स्त्रियों की शक्ति का विनियोग समाज के लिए मंगलकारी है। बालकों की प्राथमिक शिक्षा की सफलता मां-बहनों के स्नेह और प्रयत्न पर ही निर्भर है। नन्हे-नन्हे कोमल शिशुओं के संस्कार और लोक-व्यवहार यहीं बनते हैं। माताएं ही बच्चों की प्रथम गुरु हैं।19

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