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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम सौहार्द के अनूठे उदाहरण

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Jul 3, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jul 2004 00:00:00

एक स्वयंसेवक के लिए मंगल खान की दुआ

-महेन्द्र प्रसाद गुप्त

रामपुरा अर्थात् पूर्व नवाबों की मुस्लिमबहुल रियासत अंग्रेजी शासन के प्रति पूर्णतया समर्पित थी। बात 1945 की है, मैं आठवीं कक्षा का छात्र था और संघ का स्वयंसेवक भी था। नवाबी स्कूल के योग्य अध्यापकों के सम्पर्क में आया। वहीं कक्षा में अंग्रेजी के अध्यापक श्रीयुत अशरफ अली अशरफ अली साहब मुस्लिम लीग का बिल्ला अपने कोट पर लगाकर कक्षा में अध्यापन कार्य किया करते थे। जनाब अशरफ अली पर मुस्लिम लीग का प्रभाव मुझे उद्वेलित करने लगा। अत: एक रात्रि बैठकर कपड़े पर तिरंगे झंडों को अपनी तूलिका से रंगा और लगभग 20 बिल्ले कक्षा में साथियों में बांट दिये। एक नया दृश्य था। अध्यापक के कोट पर लीग का बिल्ला तो छात्रों के वस्त्रों पर तिरंगा बिल्ला। मुस्लिम लीग से संबद्ध श्रीयुत अशरफ अली खां साहब ने मेरे साहस को दुस्साहस मानने के बजाय मुझे प्रोत्साहन दिया, पढ़ने और दिमाग को खुला रखने का पाठ सिखाया।

वर्ष था 1948। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात् देशभर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं की गिरफ्तारियां हो रही थीं। रामपुर में आचार्य वृहस्पति और महेन्द्र कुलश्रेष्ठ आदि नेता रियासतकालीन शासन द्वारा जेल भेजे जा चुके थे। उस समय मैं 17वें वर्ष में प्रवेश कर चुका था। अत: मैंने सहर्ष भूमिगत रहकर तत्कालीन रियासती सरकार और कांग्रेस शासन के विरुद्ध आन्दोलन चलाए रखने का दायित्व स्वीकार कर लिया। प्रतिदिन वितरित होने वाले पत्रकों के पीछे मेरी सक्रिय भूमिका का रियासती शासन को आभास हो चुका था किन्तु मेरी गिरफ्तारी में शासन असफल रहा। अन्तत: मेरे पिताजी को महेन्द्र गुप्ता का नाम देकर जब गिरफ्तार किया जाने लगा तो मैंने आत्मसर्पण कर दिया। 6 मास के सश्रम कारावास की सजा का आदेश हुआ। जेल में प्रवेश करते ही जानकारी मिली कि संघ के बन्दियों की बैरक मेरा साथी मंगल खां अत्यन्त क्रूर है। बैरक में पहुंचा तो मंगल खान की निगाहों से क्रूरता टपकती दिखाई दी। मैंने लघुशंका के लिए अनुमति मांगी तो अप्रिय भाषा में बैरक के पास की कोठरी में जाने का आदेश मंगल खान ने दिया। प्रथम अवसर था जेलयात्रा का। लघुशंका के लिए निर्मित टैंक की दो फुट उंची दीवार पर खड़े होकर लघुशंका करने के बजाय टैंक में उतर गया और पैर फिसलते ही धड़ाम की आवाज के साथ गिर गया। मंगल खान दौड़ा आया। गन्दगी में सने रा.स्व. संघ के कार्यकर्ता को गोद में लेकर वक्ष से लगा लिया। मैं मंगल खान के अन्तर्मन से आने वाली ममतासिक्त आवाज और अपने पिता के विदा देते आंसुओं में समानता को समझकर, क्रूर कहे जाने वाले मुसलमान साथी के वक्ष से लिपट गया। मंगल खान नेे फरवरी की ठंड में ही मेरे गन्दे वस्त्रों को धो दिया और मुझे अपने लम्बे कपड़ों से ढंककर सुला दिया। सम्पूर्ण जेल अवधि में दो कुर्सियां प्रतिदिन मंगल खान के निर्देशन में बुनता रहा। हत्या के अपराधी, मुस्लिम और क्रूर कहे जाने वाले साथी ने कभी नहीं सोचा कि वह संघ के स्वयंसेवक के प्रति मानवीय ही नहीं अपितु पितातुल्य व्यवहार कैसे करता जा रहा है। मेरी रिहाई पर मंगल खान जिन आंसुओं से रोया था, उन आंसुओं में संघ के एक स्वयंसेवक और मुस्लिम सम्प्रदाय के क्रूर कहे जाने वाले व्यक्ति में कहीं भेद था ही नहीं, बल्कि साम्य था, सहानुभूति थी और थी सहभागिता की भावना।

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