दिंनाक: 07 Jul 2002 00:00:00 |
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विदेशी पूंजीकितनी सही, कितनी गलत?स्वागत योग्य कदम-बलबीर पुंज,भाजपा सांसद एवं प्रख्यात स्तम्भकारयह एक स्वागतयोग्य कदम है। पहले से ही इलेक्ट्रानिक मीडिया, इंटरनेट आदि क्षेत्रों में शत-प्रतिशत तक सीधे विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति थी। दूसरी ओर प्रिंट मीडिया में इस तरफ की कोई सुविधा नहीं थी। इस कारण एक भारी विसंगति उत्पन्न हो गई थी। चूंकि एक तरु एक संचार माध्यम में तो शत प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश संभव था तथा अर्थात् एक ही क्षेत्र में एक समान नियम नहीं थे।टेलीविजन के आने के बाद यूं भी विज्ञापनों का बहुत बड़ा हिस्सा इलैक्ट्रानिक मीडिया की ओर चला गया था। प्रिंट मीडिया की आय के स्रोत तो कम थे ही, पूंजी निवेश के स्रोत भी अपेक्षाकृत कम हो गए थे। अत: सरकार ने यह निर्णय लेकर इस विसंगति को दूर करने का प्रयास किया है।जहां तक इस निर्णय से होने वाली कठिनाइयों का प्रश्न है तो आज संचार माध्यमों की दुनिया के तीव्र विकास को देखते हुए कहा जा सकता है कि इंटरनेट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से पूरा विश्व एक हो गया है। इन परिस्थितियां में आप प्रिंट मीडिया को अलग-थलग नहीं रख सकते। हां, यह अवश्य किया जाना चाहिए कि जिस प्रकार प्रिंट मीडिया में 26 प्रतिशत के विदेशी निवेश के अंतर्गत संपादकीय एवं प्रबंधन भारतीय स्वामित्व में रहने की बात कही गई है, वैसा ही प्रतिबंध इलेक्ट्रानिक मीडिया पर भी लगना चाहिए। तभी यह निर्णय संचार माध्यम के क्षेत्र में विसंगतिरहित बन सकेगा।द साहसिक निर्णय-शेखर गुप्तामुख्य सम्पादक, इंडियन एक्सप्रेसयह कार्य बहुत पहले हो जाना चाहिए था। जब आप सारी अर्थव्यवस्था को शेष दुनिया के लिए खोल रहे हैं, स्पद्र्धा और निवेश को साथ-साथ न्योत रहे हैं तो एक क्षेत्र को पूरी तरह से बंद रखने का कोई औचित्य नहीं है। टेलीविजन, रेडियो, डाट काम में विदेशी पूंजी निवेश के प्रावधान तो हैं ही, अन्य ऐसे क्षेत्र भी हैं जिनके द्वारा वे अन्य पूंजी बाजारों से भी पूंजी जुटा सकते हैं। अत: यह ठीक नहीं था कि केवल प्रिंट मीडिया को इस सुविधा से वंचित रखा जाए। किसी भी प्रतियोगिता क्षेत्र में नियमों का स्तर एक समान हो तो विकास की संभावनाएं अधिक होती हैं। इस कदम के दूरगामी परिणामों को लेकर आशंकाएं जताना व्यर्थ होगा। आज भारत के प्रत्येक प्रमुख क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश मान्य है तो फिर प्रिंट मीडिया में क्यों नहीं? विदेशी हस्तक्षेप तो किसी और रास्ते से भी हो सकता है। यदि भारतीय पत्रकारों की नीयत खराब हो, वे बिकने को तैयार हों, तो विदेशियों को इतनी महंगी दरों पर 26 प्रतिशत के अंशधारक बनने की आवश्यकता ही क्या होगी? इस तरह का भय निर्मूल है। वास्तव में यह हम भारतीयों के आत्मवि·श्वास और चेतना का प्रश्न है। प्रत्येक औद्योगिक क्षेत्र का भारत के विकास में अपनी निश्चित भूमिका है। यदि हम यही सोच कर चलेंगे कि विदेशी पूंजी का अर्थ देशहित के विरुद्ध कार्य करना होगा तो भूमण्डलीकरण के इस दौर का किस प्रकार सामना करेंगे? इस कदम से भारतीय प्रिंट मीडिया में पारदर्शिता आएगी। प्रतियोगिता तो बढ़ेगी ही, सबसे अधिक लाभ उपभोक्ताओं को होगा। सरकार ने बहुत हिम्मत के साथ इस संवेदनशील मुद्दे पर निर्णय लिया है।दस्वदेशी का जामा भी उतार दिया- मुरलीधर राव, राष्ट्रीय संयोजक, स्वदेशी जागरण मंचस्वदेशी जागरण मंच प्रारंभ से ही मीडिया के क्षेत्र में, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया, किसी भी प्रकार के विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करता रहा है। इस विरोध का कराण यह है कि मीडिया क्षेत्र किसी भी अन्य व्यावसायिक क्षेत्र के समान मात्र व्यावसायिक क्षेत्र नहीं है। हम मीडिया के क्षेत्र में सीमा पार के हितों अर्थात् विदेशी हितों के प्रवेश की अनुमति के विरुद्ध हैं। वर्तमान समय में जब विज्ञापन देने वाले बड़े समूह ही परोक्ष रूप से सम्पादकीय तथ्यों पर प्रभाव डालते हैं तो 26 प्रतिशत पूंजी निवेश करने वाले विदेशी समूह का हस्तक्षेप तो प्रत्यक्ष होगा ही। मीडिया के क्षेत्र में पूंजी निवेश करने वाले विदेशी समूह न केवल प्रिंट मीडिया में बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी वै·श्वीकरण की प्रक्रिया को और तेज करने का प्रयास करेंगे।यह कहना सही नहीं है कि प्रबंधन तथा सम्पादकीय क्षेत्र के सभी अधिकार भारतीयों के हाथ में रहने के कारण किसी भी प्रकार के विदेशी हस्तक्षेप की संभावना नहीं रहेगी। यह एक सिद्धांत है जबकि हस्तक्षेप एक गैरसैद्धांतिक वास्तविकता है। यह मिथ्या है कि विदेशी पूंजी निवेश वाले करने की विचारधारा का प्रभाव, दबाव नहीं पड़ेगा और सम्पादकीय नीति तय करने वाले पूरी तरह से स्वतंत्र रहेंगे। यह आधार गलत है कि अन्य क्षेत्रों में विदेश पूंजी निवेश हो रहा है तो प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में क्यों नहीं। अमरीका जैसे विकसित देशों ने भी समाचार पत्र-पत्रिकाओं के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति नहीं दी है।पत्र-पत्रिकाओं के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश के दूरगामी परिणाम होंगे। इस कारण से न केवल मीडिया क्षेत्र में बल्कि उद्योग, व्यापार तथा व्यावसायिक क्षेत्र में वै·श्वीकरण की गति बढ़ेगी। इसके साथ ही वे ऐसे स्तंभकारों और पत्रकारों को स्थापित करने की कोशिश करेंगे जो वै·श्वीकरण के समर्थक हों। मीडिया क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश के सामाजिक परिणाम भी होंगे। जिन गुणों के प्रचार-प्रसार से वै·श्वीकरण की प्रक्रिया को तर्कसंगत बनाया जा सकता है, उनका विकास किया जाएगा, उन गुणों को गौरवान्वित किया जाएगा। व्यक्तित्ववाद, बाजारवाद तथा उपभोक्तावाद को पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बढ़ावा दिया जाएगा। इस प्रस्ताव से राजनैतिक क्षेत्र में भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में हस्तक्षेप होगा। वर्तमान समय में भी कई औद्योगिक समूह विभिन्न प्रकार से राजनीतिक क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। इसलिए अखबार चलाने में 26 प्रतिशत का भागीदार राजनीति में प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप नहीं करेगा यह कहना ठीक नहीं है।यह अपवाद नहीं है कि भाजपानीत सरकार ने प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति दी। वे स्वदेशी का विचार पूरी तरह त्याग चुके हैं। अब स्वदेशी के दिशानिर्देश पर चलने, स्वदेशी के बारे में बोलने से उनका कोई सरोकार नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि यह सरकार स्वदेशी के अंतिम परीक्षण में भी विफल हो गई। इस सरकार ने स्वदेशी का जो जामा पहना था, वह उतार दिया है। सरकार पर स्वदेशी की परिछाईं भी नहीं है। दऐतिहासिक निर्णय-नरेन्द्र मोहन, सम्पादक, दैनिक जागरणप्रिंट मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति देकर सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय किया है। यह अनुमति इससे पहले भी थी, पर कुछ समय पूर्व अचानक इस पर रोक लगा दी गई थी।मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि इस प्रस्ताव के कारण विदेशी हस्तक्षेप बढ़ेगा। इस क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश के प्रश्न पर सर्वप्रथम प्रेस आयोग ने 50 के दशक में पूरी जांच-पड़ताल की थी। आयोग की राय थी कि अगर प्रबंधतंत्र भारतीयों के हाथों में रहे तो विदेशी पूंजी से कोई खतरा नहीं है। इसके अतिरिक्त 1955 में मंत्रिमण्डल का प्रस्ताव भी बहुत कुछ इसी तथ्य की ओर संकेत करता है। इसमें विदेशी समाचार पत्र-पत्रिकाओं के भारतीय संस्करण के प्रकाशन पर रोक तो है पर विदेशी पूंजी पर रोक नहीं है। किसी विदेशी व्यक्ति को पासपोर्ट या वीजा देते समय हम यह मानकर चलते हैं कि वह व्यक्ति उस देश का संभ्रांत नागरिक होगा। पर, किसी अराष्ट्रीय तत्व द्वारा यह सुविधा हासिल कर लेने पर उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। इसी प्रकार नियम तोड़ने वाले समाचार पत्रों का पंजीकरण तो रद्द होगा ही, उन्हें कठोर दण्ड भी दिया जाएगा। भारतीय समाचार-पत्रों की दुनिया में मुख्यत: कतिपय औद्योगिक घरानों का वर्चस्व रहा है या फिर साम्राज्यवादी शक्तियों के समर्थकों का। इस कदम से यह स्थिति कुछ हद तक टूटेगी। कुछ बड़े अंग्रेजी समाचार-पत्र, जो भारतीय समाचार-पत्रों के विकास में बाधक बने हुए थे, हो सकता है कि इस कदम से उन्हें सही रास्ते पर लाने की परिस्थतियां उत्पन्न हो जाएं। द जरूरी नहीं कि परिणाम हानिकारक ही हों-भरत झुनझुनवाला, आर्थिक पत्रकारइस मुद्दे के दो पक्ष हैं। पहले यह समझना चाहिए कि मूल रूप से विदेशी निवेश का चरित्र क्या है, और दूसरा, मीडिया में इसका क्या विशेष महत्व है? वैसे भी विदेशी पूंजी निवेश की भारत को कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि दीर्घकाल में यह हमारे गले का फंदा बन जाएगी।मीडिया क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश के पक्ष में दिए जाने वाले तर्को में यह कहा जा रहा है कि यह कदम दो-तीन बड़े समाचार-पत्रों का वर्चस्व तोड़ने तथा छोटे समाचार-पत्रों के लिए धन के अन्य स्रोत खोलने के उद्देश्य से उठाया जा रहा है। एक अन्य तर्क यह भी दिया जा रहा है कि कुल विदेशी पूंजी निवेश केवल 26 प्रतिशत तक ही होगा और इससे विदेशी हस्तक्षेप या नियंत्रण जैसी बात नहीं होगी। यदि वित्तीय स्रोत उपलब्ध करवाना ही एकमात्र उद्देश्य है तो सभी समाचार-पत्रों को अपने शेयर सीधे शेयर बाजार में बेचने की सुविधा दी जाए। विदेशी संस्थागत निवेशकों को मुम्बई शेयर बाजार से किसी भी कंपनी के शेयर खरीदने की छूट है। लेकिन सीधे विदेशी पूंजी निवेश को न्योतने का अर्थ है कि एक व्यक्ति को यदि 10 प्रतिशत की भी हिस्सेदारी मिलती है तो वह उक्त समाचार पत्र के प्रबंधन में दखल देने का प्रयत्न करेगा। किंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इस निर्णय के दूरगामी परिणाम हानिकारक ही होंगे। पिछले कुछ वर्षों में भारत के उद्योग जगत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक विदेशी निवेशक आए किंतु आज स्थिति यह है कि वे भारत से भागने की सोच रहे हैं। भारतीय उद्यमियों के सामने वे टिक नहीं पाए। दूरसंचार क्षेत्र का ही उदाहरण पर्याप्त है, जहां पहले-पहल आए विदेशी निवेशक अब स्वदेश लौटने की तैयारी में हैं। दराष्ट्र हित में नहीं-इन्दर मल्होत्रा, वरिष्ठ पत्रकारइस निर्णय के पश्चात अब कुछ विशेष कहने को नहीं बचता है। हां, कुछ समय बाद जब हानिकारक परिणाम सामने आने लगेंगे तो हो सकता है कि सरकार को इस निर्णय की पुन: समीक्षा करनी पड़े।पत्र-पत्रिकाएं भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। जब मात्र 5 प्रतिशत की हिस्सेदारी में काफी महत्वपूर्ण बातों में हस्तक्षेप किया जा सकता है तो 26 प्रतिशत के हिस्सेदार से आप किस प्रकार बाहरी हस्तक्षेप पर नियंत्रण की बात सोच सकते हैं। मुख्य मुद्दा ही यह है कि इस तरह अब राजनीतिक प्रक्रिया पर भी विदेशी नियंत्रण स्थापित हो जाएगा। क्योंकि प्रेस भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। इसमें विदेशी नियंत्रण या विदेशी हस्तक्षेप किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए। किन्तु इस निर्णय से ही होने वाला है, जो किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं है।27
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