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देवेन्द्र स्वरूप दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणाम

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Jul 4, 2002, 12:00 am IST
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दिंनाक: 04 Jul 2002 00:00:00

जय-पराजय का सचआज अखबारों के पहले पन्ने पर मुख्य समाचार के रूप में दिल्ली नगर निगम के चुनाव-परिणाम छाये रहे। देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली में बहुशासन प्रणाली का दृश्य है। इसे अंशत: केन्द्र शासित क्षेत्र भी कहा जा सकता है। कानून-व्यवस्था और वित्तीय पोषण का भार केन्द्र ही वहन करता है। दिल्ली में एक विधानसभा जैसी चीज भी है, जिसका अपना मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल और सचिवालय है, जो आभास पैदा करता है कि दिल्ली पर वास्तविक शासन करने का अधिकार उसे होना चाहिए किन्तु केन्द्र ने उसके हाथ-पांव बांध रखे है। विधानसभा से नीचे तीन स्थानीय निकाय हैं-एक नगर निगम, दूसरा नई दिल्ली नगर पालिका और तीसरा छावनी बोर्ड। अर्थात् स्थानीय धरातल पर भी नगर निगम का पूरे दिल्ली राज्य पर एकाधिकार नहीं है। इसलिए नगर निगम के चुनावों का इतना महत्व नहीं हो सकता कि स्वयं को राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मानने वाले अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर पहले समाचार का दर्जा उन्हें प्राप्त हो। किन्तु यही तो दिल्ली की विशेषता है। देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली में राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय प्रचार माध्यमों का जमघट है। यहां सुई के गिरने की आवाज भी पहले पन्ने का धमाका बन जाती है।दिल्ली का चुनावी इतिहासफिर इस बार के चुनाव परिणाम तो मीडिया के दिल को गदगद करने वाले थे। कारण- मीमांसा में जाए बिना भी यह तो कहा ही जा सकता है कि दिल्ली के मीडिया का मुख्य स्वर हिन्दुत्व और संघ विचार परिवार विरोधी है। इस समय देश में जो राजनीतिक युद्ध चल रहा है, उसमें मीडिया केवल तटस्थ दर्पण न होकर स्वयं तलवार भांज रहा है, पक्षधर बन गया है। इसलिए दिल्ली नगर निगम के चुनावों में भाजपा की भारी पराजय को पहले पन्ने पर उछालना उसकी लड़ाई का हिस्सा है। जो लोग दिल्ली के इतिहास से परिचित हैं, वे जानते हैं कि आजादी के बाद से ही दिल्ली का चुनावी युद्ध कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अथवा उसके पूर्वावतार भारतीय जनसंघ के बीच ही लड़ा जाता रहा है। और यह भी कि यहां की जनता ने किसी भी दल को दोबारा नहीं चुना। वह बारी-बारी से इन दो पक्षों के बीच झूलती रही है। 5-7 प्रतिशत मतदाताओं की करवट एक शिविर को सूना कर देती है तो दूसरे की झोली को भर देती है। 1998 के विधानसभा चुनावों में भी यही हुआ था। भाजपा का 1993 के चुनाव का भारी बहुमत केवल 12 सीटों पर सिमट गया था। इस बार नगर निगम चुनावों में भी वही इतिहास दोहराया गया है। 134 सदस्यों वाली नगर निगम में भाजपा पिछली बार के 79 से गिरकर केवल 17 पर अटक गयी है और कांग्रेस पिछली बार के 45 से उछलकर 107 पर पहुंच गयी है। अन्यों की संख्या पिछली बार जितनी ही इस बार भी 10 ही है। सामान्यत: देखने पर दिल्ली के चुनाव इतिहास में यह कोई बहुत अनहोनी स्थिति नहीं है। किन्तु मीडिया इन चुनाव-परिणामों को पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों से जोड़कर इस तरह प्रस्तुत कर रहा है कि यह भाजपा और संघ विचार परिवार की विचारधारा की पराजय है। भाजपा का वैचारिक जनाधार समाप्त हो रहा है और अब भाजपा का राजनीतिक सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है। यह परिदृश्य खड़ा करना उस लड़ाई का महत्वपूर्ण अंग है जिसका तात्कालिक उद्देश्य केन्द्र सरकार को गिराना है। इसके लिए राजग के घटकों के मन में यह भय पैदा करना जरूरी है कि वे एक डूबती नाव पर सवार हैं। यह भय पैदा करने में इससे अधिक सहायक तथ्य और क्या हो सकता है कि भाजपा के लगभग सभी दिग्गज नेता-वर्तमान महापौर शान्ति देसाई, पूर्व महापौर योगध्यान आहूजा और मीरा कांवरिया, स्थायी समिति के अध्यक्ष पृथ्वीराज साहनी, उप महापौर राजेश गहलौत, शिक्षा समिति की अध्यक्ष विशाखा शालानी, स्थायी समिति के पूर्व अध्यक्ष महेशचन्द शर्मा आदि आदि कांग्रेसी टिकट पर पहली बार चुनाव मैदान में उतरे युवा नौसिखियों के सामने पराजय की धूल फांक रहे हैं। इन चुनाव परिणामों में भाजपा विरोधियों की विजय का भारी अन्तर भी चौंकाने वाला है। नगर निगम के चुनाव में 20 हजार, 19 हजार, 18 हजार, 16 हजार मतों का अन्तर कोई सामान्य बात नहीं है। वह गंभीर चिन्ता और विश्लेषण का विषय होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार कांग्रेस को 30 से 35 प्रतिशत तक मत प्राप्त हुए जबकि भाजपा का आंकड़ा गिरकर 15 प्रतिशत पहुंच गया। पिछले चुनावों में सीटों का अन्तर बहुत अधिक रहने पर भी कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों के प्रतिशत में इतना अन्तर कभी नहीं आया। मतदान के दो दिन पहले से अखबारों में छप रहा था कि इस बार चुनाव में पैसा और शराब पानी की तरह बहाया गया है। इससे संकेत मिलता था कि इस बार मतदान का प्रतिशत ऊपर जाएगा। किन्तु मतदान के दिन दिखायी दिया कि मतदान का प्रतिशत नीचे गिरा और मतदान लगभग फीका रहा। तब हार-जीत में इतना भारी अन्तर क्यों? इसका अर्थ है कि किसी एक वर्ग के मतदाता बड़ी मात्रा में मतदान केन्द्रों पर पहुंचे और किसी दूसरे वर्ग के मतदाता पूरी तरह उदासीन रहे। उन्होंने अपने मताधिकार का उपयोग नहीं किया। मतदान के अगले दिन सभी समाचारपत्रों में छपा कि यह उदासीनता मध्यम वर्गीय मतदाताओं ने ही दिखायी। यह वर्ग मत देने गया ही नहीं। इस प्रवृत्ति का गहरा विश्लेषण आवश्यक है।जीत को हर कोई वरता है और हार का कोई नाम लेवा नहीं होता। कांग्रेस में विजय का सेहरा बांधने के लिए कई सर आगे बढ़ आए हैं और भाजपा में पराजय का ठीकरा सब एक-दूसरे के सर पर फोड़ रहे हैं। मीडिया अपनी कारण मीमांसा में यह उभारने की कोशिश कर रहा है कि भाजपा की पराजय का मुख्य कारण आयोध्या आन्दोलन और गुजरात की घटनाएं हैं। अर्थात यह भाजपा की साम्प्रदायिक विचारधारा की पराजय है। जो लोग दिल्ली की प्रवृत्ति से परिचित हैं वे जानते हैं कि ये दोनों विषय भाजपा की पराजय का नहीं, बल्कि उसकी भारी विजय का ही कारण बन सकते थे। दैनिक समाचारपत्रों में रोज प्रकाशित होने वाले अंतरताना सर्वेक्षणों से प्रकट है कि इन दोनों प्रश्नों पर मध्यम वर्ग पूरी तरह से भाजपा के साथ खड़ा है, वह बहुत उद्वेलित है। और यदि ये दो विषय ही इस समय दिल्ली के मतदाता पर पूरी तरह हावी होते तो इन चुनावों का परिणाम बिल्कुल भिन्न होता।भाजपा की हार का कारणतब क्या भाजपा में व्याप्त गुटबाजी या नगर निगम के कुशासन व जन समस्याओं को सुलझाने में विफलता को इसका कारण माना जाए? यदि गुटबाजी को ही पराजय का एकमात्र कारण माना जाए तो कांग्रेस की स्थिति कौन-सी बेहतर थी। पहले दिन से शीला दीक्षित के खिलाफ बगावत के समाचार छपते रहे हैं। कांग्रेस की गुटबंदी जगजाहिर है। गुटबंदी तो इस राजनीतिक प्रणाली का अभिन्न अंग है। व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा प्रत्येक राजनीतिज्ञ की मुख्य प्रेरणा बन गयी है। दल और विचारधारा उस सत्ताकांक्षा की पूर्ति के आवरण मात्र रह गए हैं। दरअसल हर स्तर पर सत्ता के लिए मारधाड़ चल रही है। सत्ता पाने के बाद कोई वहां से हटना नहीं चाहता, किसी दूसरे को अपने बराबर तक पहुंचने नहीं देना चाहता। नए लोगों को आगे बढ़ने, अवसर देने का विचार तो दुर्लभ हो गया है। अत: हर जगह गुटबंदी है। इस बार भी समाचार पत्रों में आये दिन पढ़ने को मिलता था कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने बागियों से परेशान हैं। फर्क हो सकता है तो मात्र इतना कि किसी दल में यह परिपक्वता अधिक मात्रा में होगी कि मेरे अपने राजनीतिक भविष्य के हित में मुझे दल की जीत में योगदान करना चाहिए। दल जीतेगा तो शायद मुझे भी अवसर मिल सकेगा।मीडिया की भूमिकाजहां तक जन समस्याओं को हल करने या जनाकांक्षाओं को पूरा करने का सवाल है, भ्रष्टाचार में डूबे स्वार्थी और विखंडित समाज में कोई भी लोकतांत्रिक सरकार स्वच्छ प्रशासन या सब वर्गों की परस्पर विरोधी आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकती, सब समस्याओं को हल नहीं कर सकती, क्योंकि उसका प्रत्येक निर्णय किसी न किसी वर्ग को असन्तुष्ट करने का कारण बनेगा। और फिर, दिल्ली जैसे बहुशासन ढांचे में, जहां विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग राजनीतिक दलों का कब्जा हो, वहां तो समस्या बहुत ही जटिल हो जाती है। दिल्ली में केन्द्र में भाजपानीत गठबंधन और भाजपा नियंत्रित नगर निगम के बीच विधानसभा पर काबिज कांग्रेस ने इस स्थिति का जिस तरह इस्तेमाल किया, वह समझने की बात है। कुशासन और असफलताओं के लिए किसी सरकार और दल की छवि खराब हो सकती थी तो दिल्ली के हजारों छोटे उद्योगों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर पचासों हजार परिवारों को बर्बादी की कगार पर धकेलने के कलंक को धोना दिल्ली की कांग्रेस सरकार के लिए असंभव होता। प्रदूषणरहित दिल्ली के नाम पर बस व्यवस्था को ध्वस्त करके सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना- अवमानना करके दिल्ली की कांग्रेसी सरकार ने दिल्ली के लाखों नागरिकों को जो घोर यातना दी, वह उसकी नाव को डुबोने के लिए पर्याप्त होती। भाजपा नियंत्रित नगर निगम को पंगु बनाने के लिए उसे वित्तीय पोषण मिलने में केन्द्र सरकार ने जो अड़ंगे लगाये वे उसके गले की हड्डी बन गए। किन्तु हमारा लोकतंत्र वास्तविक कार्य और समस्या निवारण पर नहीं, केवल छवि निर्माण और छवि ध्वंस पर पल रहा है। इस लोकतंत्र में किसी दल की सफलता का मुख्य सूत्र आदर्शवाद और विचारधारा नहीं, ईमानदार समाज सेवा नहीं, सुशासन नहीं, बल्कि अपनी छवि को चमकाने और अपने विपक्षी की छवि को खराब करने की कुशलता में है। और यह कार्य मीडिया प्रबन्धन के द्वारा ही संभव है। इस दृष्टि से कांग्रेस नेतृत्व अधिक सफल सिद्ध हुआ है। दिल्ली के मीडिया पर वामपंथी और अन्य हिन्दुत्वविरोधी तत्वों का वर्चस्व होने के कारण मीडिया स्वयं भी भाजपाविरोधी युद्ध में कांग्रेस को सहायता देने के लिए प्रस्तुत है। इस स्थिति का लाभ उठाकर कांग्रेस ने दिल्ली में लघु उद्योगों के स्थानांतरण, परिवहन-अव्यवस्था, नगर निगम की आर्थिक कठिनाइयों आदि सब समस्याओं के लिए केन्द्र की भाजपानीत गठबंधन सरकार अर्थात् भाजपा को कठघरे में खड़ा कर दिया। मीडिया की शक्ति का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उसने 1998 के विधानसभा चुनावों के समय प्याज का कृत्रिम संकट खड़ा करवा कर भाजपाविरोधी प्रचार की आंधी खड़ी कर दी थी। हमारा लोकतंत्र अब षड्यंत्री राजनीति के भंवर में फंसा हुआ है। जो लोग अभी भी केवल आदर्शवाद और विचारधारा पर ही अबलम्बित रहेंगे, वे इस षड्यंत्री राजनीति के मैदान में अधिक दूर तक नहीं चल पायेंगे। या तो वे वहीं डूब जाएंगे या इस अखाड़े से बाहर निकल आयेंगे। जबसे भाजपा केन्द्र में सत्ता के शिखर पर पहुंची तभी से उसके छवि ध्वंस की षड्यंत्री राजनीति का खेल शुरू हो गया।दिल्ली का मानसइसका सबसे अधिक प्रभाव दिल्ली के विशाल माध्यम वर्ग पर पड़ा। यह वर्ग मीडिया की खिड़की से ही अपने पड़ोस और वि·श्व को देखता है। वह अखबार में पढ़कर ही सर्दी-गर्मी को अनुभव करता है। दूसरे, वह अपनी तात्कालिक सुविधा और हितों को राष्ट्रीय प्रश्नों से ऊपर रखता है। इसलिए लगातार अनेक वर्ष तक भाजपाविरोधी प्रचार पर पले इस मध्यम वर्ग का मन भाजपा की ओर से उचटने लगा था। जिसमें अन्तिम धक्का बजट में आयकर और रसोई गैस की कीमत वृद्धि ने लगा दिया। जिस दिन बजट आया, उसी दिन से मेरे पुत्र कह रहे थे कि इस बार भाजपा की लुटिया डूब जाएगी। हमारे कार्यालयों में जो लोग हमेशा भाजपा की विचारधारा के समर्थक थे, वे भी इस समय बहुत खिन्न और उदास हैं। रसोई गैस की कीमत वृद्धि से प्रत्येक घर प्रभावित हुआ है। 1000 से कम श्रमिकों वाले उद्योगों में छंटनी की छूट से श्रमिक वर्ग पर असुरक्षा का भय सवार हुआ है। देश आज आर्थिक कठिनाई से गुजर रहा है, विदेशी कर्ज से दबा हुआ है, प्रत्येक राज्य दिवाले के बिन्दु पर है, ऐसी स्थिति में आर्थिक संतुलन वाला बजट बनाना आसान नहीं है। इस समय देश की मानसिकता ऐसी है कि हर कोई अपने सुख में तनिक भी कमी किए बिना राष्ट्र की आर्थिक समस्या को हल करने की सलाह दे रहा है। कहीं भी कोई कटौती किसी को स्वीकार्य नहीं है। सब राज्य सरकारें अपने चुनावी हितों को ध्यान में रखकर घाटे के बजट बना रही हैं और स्वयं कर्जे से लदी केन्द्र सरकार से अपने घाटे को पूरा कराने की मांग कर रही हैं। ऐसी स्थिति में केन्द्रीय बजट की व्यापक प्रतिकूल प्रतिक्रिया स्वाभाविक है और इस प्रतिक्रिया का लाभ कांग्रेस को मिलना भी स्वाभाविक था।भाजपा की शक्तिकिन्तु भाजपा की वास्तविक शक्ति मीडिया में नहीं, उसके कार्यकर्ताओं में रही है। भाजपा अकेला ऐसा राजनीतिक दल है जिसे ऐसे कार्यकर्ताओं की विशाल फौज का सहयोग प्राप्त है जो राजनीतिक या चुनावी प्रक्रिया की उपज नहीं हैं, जिनकी एकमात्र प्रेरणा राष्ट्रभक्ति और आदर्शवाद में है। जिनकी निष्ठा व्यक्तियों के प्रति नहीं, विचारधारा के प्रति है। इस निष्ठा के कारण ही वे नि:स्वार्थ भाव से भाजपा की विजय के लिए काम करते हैं। मीडिया के भाजपाविरोधी होने पर भी यह कार्यकर्ता वर्ग भाजपा की छवि को अच्छा बताता है, उसके जनाधार का विस्तार करता है। इस चुनाव में सबसे बड़ी बात यह हुई कि यह कार्यकर्ता वर्ग पूरी तरह उदासीन हो गया। वह चुनाव के मैदान में उतरा ही नहीं। यह कार्यकर्ता अधिकांशत: मध्यम वर्ग से आता है, इसीलिए मध्यमवर्गीय मतदाता को मतदान केन्द्रों पर ले जाने का जमीनी प्रयास हुआ ही नहीं। और वह वर्ग जिसे शराब और पैसा प्रभावित कर सकता था, बड़ी मात्रा में मतदान केन्द्रों पर पहुंचा। जिस कारण कांग्रेस को बिना संगठन के भी भारी जीत मिल गई। और अब इस विजय को भाजपा की पराजय व सोनिया गांधी की व्यक्तिगत व वैचारिक विजय के रूप में उछाला जा रहा है।इन चुनावों ने दिल्ली के वर्गीय विभाजन को भी पूरी तरह नंगा कर दिया है। ओखला में ओसामा बिन लादेन के पक्ष में पोस्टर लगाने के आरोप में पिछले 6 महीने से जेल में बंद आसिफ मोहम्मद की मुस्लिमबहुल ओखला क्षेत्र से 14,287 मतों से विजय और मुस्लिमबहुल चुनाव क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी व जनता दल सेकुलर के पक्ष में भारी मतदान से स्पष्ट है कि हिन्दू समाज के इस वर्गीय विभाजन का लाभ मुस्लिम नेतृत्व इन दलों के कंधों पर सवार होकर उठा रहा है। ग्रेटर कैलाश जैसी धनिकों की बस्तियों में बहुजन समाज पार्टी का उभरना इस वर्गीय विभाजन का संकेत है।लड़ाई के इस स्वरूप को समझना उस कार्यकर्ता के लिए बहुत आवश्यक है जिसकी एकमात्र चिन्ता राष्ट्रीय एकता और अखण्डता है। उसे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को हमने अपनाया है उसके माध्यम से भ्रष्टाचारमुक्त, राष्ट्रभक्तिपूर्ण समाज की निर्मिति असंभव है। यह प्रणाली स्वयं में विभाजनकारी है, यह राष्ट्रीयता की भावना को दुर्बल करती है और संकुचित निष्ठाओं को गहरा बनाती है। इस प्रणाली के भीतर सत्ता के खेल में आदर्शवाद और विचारधारा का महत्व उत्तरोत्तर घटता जा रहा है। इस प्रणाली के भीतर सत्ता की लड़ाई का लक्ष्य आदर्शों की प्रतिष्ठापना कदापि नहीं हो सकता। केवल आदर्शवादी प्रवाहों पर सत्तालोभियों के आक्रमणों को रोकने के लिए रक्षा कवच तैयार करना हो सकता है। अपने समाज के अन्तरर्विरोधों को समझकर इस चुनाव प्रणाली के भीतर सत्ता की लड़ाई लड़ने की हमारी मजबूरी क्या है, इसका गहरा चिंतन कार्यकर्ता वर्ग को करना ही होगा। द (15-03-2002)13

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