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मुशर्रफ की नई चाल

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Jun 1, 2002, 12:00 am IST
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दिंनाक: 01 Jun 2002 00:00:00

बरेलवियों से प्यार…देवबंदियों को दुत्कारद मुजफ्फर हुसैनभारत के मुस्लिम समाज में शिया-सुन्नी संघर्ष अब इतिहास की भूली-बिसरी बात हो गई है। पाकिस्तान में तो आज भी शिया-सुन्नी दंगे हो जाते हैं लेकिन भारत और बंगलादेश में अब कोई ऐसा रक्तरंजित संघर्ष नहीं दिखाई पड़ता। एक समय था कि लखनऊ में यह आग कभी-कभी सुलग जाती थी लेकिन अब वह भी मृतप्राय: हो चुकी है। आज जो टकराव है वह बरेलवी और देवबंदियों के बीच है। पाकिस्तान में इन दोनों विचारधाराओं के संघर्ष में वर्ष में औसतन साढ़े तीन सौ लोगों की जानें चली जाती हैं। यह खूनी दृश्य मस्जिदों में उस समय भी देखने को मिलता है जब नमाज पढ़ी जा रही हो। किसी भी गुट का कोई बंदूकधारी आएगा और लोगों को छलनी करके चला जाएगा। इसलिए पाकिस्तान की मस्जिदों में हर समय सशस्त्र पुलिस तैनात रहती है।हर पंथ के प्रचार-प्रसार में सदैव दो प्रकार की विचारधाराएं काम करती हैं। एक विचारधारा उदार होती है, जो उस दर्शन को समयानुकूल प्रचारित करने का प्रयास करती है। और दूसरी विचारधारा कट्टरता का प्रतिनिधित्व करती है। जो विचारधाराएं इस दूसरे प्रकार के वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है उनमें देवबंदी विचारधारा भी एक है। जब सऊदी अरब में सऊदी बादशाह अब्दुल अजीज को विजय मिल गई तो उसने सरकारी पंथ के रूप में घोर कट्टरतावादी और रूढ़िवादी विचारों को अपनाया। उस समय उसका प्रतिनिधित्व करने वाला व्यक्ति अब्दुल वहाब था। इस व्यक्ति का अनुसरण करने वाले वहाबी हो गए। वास्तव में देखा जाए तो मिस्र की इखवान ब्रादरहुड, जो सभी उग्रवादी संगठनों की मां कहलाती है, और भारत एवं आस-पास के देशों की जमाते इस्लामी वहाबियों का ही दूसरा रूप है। इसी वहाबियत ने आगे चलकर मुसलमानों में आतंकवाद की लहर चलाई और इस बात पर जोर दिया कि मुसलमान यदि छठी शताब्दी के इस्लामी वातावरण में पहुंच जाएंगे तो उनके सभी दु:ख दूर हो जाएंगे। इसलिए आधुनिकता से दूरी, महिलाओं में पर्दा और पुरुषों में इस्लाम को जीवन शैली बना लेने पर जोर दिया जाता है। भारत में इस दर्शन को जिस मदरसे में पढ़ाया जाता है वह उत्तर भारत के देवबंद नामक नगर में स्थित है, इसलिए इसे देवबंदी कहा जाता है।देवबंद के समान ही बरेलवी भी एक विचारधारा है, जो देवबंदियों की तुलना में उदारवादी इस्लाम के पक्षधर हैं। इसका भी मुख्यालय उत्तर प्रदेश के नगर बरेली में स्थित है, इसलिए इसे बरेलवी की संज्ञा दी जाती है। बरेलवी, इस्लाम के जितने भी सिद्धांत हैं उन्हें अन्य विचारधाराओं की तरह ही मानते हैं, लेकिन वे इस्लाम के उन सूफी-संतों में भी आस्था रखते हैं जिन्होंने इस्लाम को प्रचारित किया। इसलिए उनकी कब्राों पर जाकर उन्हें याद करना, उनके बतलाए मार्गों को अपनाना और अपने कष्टों के निवारण के लिए मनौतियां मानने में वे वि·श्वास रखते हैं। जबकि देवबंदियों का मत है कि शुद्ध इस्लाम केवल अल्लाह और पैगम्बर साहब की बात करता है। कुरान में बतलाए गए मार्ग का ही शब्दश: पालन करता है। देवबंदियों का आरोप है कि बरेलवी अल्लाह और उसके बंदे के बीच में किसी तीसरे को लाकर इस्लाम की सच्ची तस्वीर पेश नहीं करते। इन दोनों पंथों की विचारधारा के मतभेद दोनों में टकराव पैदा करते हैं। देवबंदी इजतिमाअ (एकत्रीकरण) को अपना माध्यम बनाते हैं, जबकि बरेलवी सूफी-संतों के मनाए जाने वाले उर्स और मेलों को महत्व देते हैं। इस्लामी वेशभूषा के नाम पर जो कट्टरता का बाह्र आवरण देखने को मिलता है वह सब देवबंदियों की देन है। इसलिए उन्हें तालिबान का पितामह कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हद तो यह है कि देवबंदी और वहाबी जैसे कट्टरवादियों ने पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब की माताश्री आमेना की कब्रा के नामोनिशान भी सऊदी अरब में मिटा दिए, वे इसे इस्लाम की सेवा कहते हैं। लेकिन बरेलवी जैसे करोड़ों मुसलमानों का मानना है कि इस प्रकार की हरकत को मुस्लिम समाज में कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है?पाकिस्तान के वर्तमान शासक परवेज मुशर्रफ ने इस बात को महसूस कर लिया कि तालिबान के समर्थन में जो आन्दोलन हो रहा है, वह सब देवबंदी ही कर रहे हैं। इसमें जमाते इस्लामी हो या कोई अन्य मौलाना, इन सब कट्टरवादियों को सऊदी अरब से खाद-पानी मिलता रहा है। पाकिस्तान के दैनिक समाचार पत्र औसाफ, उम्मत और मिल्लत ने इस प्रकार के सम्पादकीय और आलेख प्रकाशित किए हैं जिससे यह स्वर उभरता है कि पाकिस्तान सरकार ने यह समझ लिया है कि जिहाद का नारा लगाकर पाकिस्तान में अराजकता पैदा करने वाले कोई और नहीं बल्कि देवबंदी हैं। देवबंदी केवल जिहाद को इस्लाम की सर्वोच्चता कायम रखने का एकमात्र उपाय मानता है। अफगान युद्ध के दौरान इस समुदाय को पाकिस्तान सरकार का संरक्षण प्राप्त होता रहा, जिस कारण इसका प्रभाव तेजी से बढ़ा। अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने वाले अधिकांश तालिबान इन्हीं मदरसों में से पढ़कर निकले हैं। पाकिस्तान में मजहबी गुटों ने तालिबान के समर्थन में जुलूस निकाले, सीमा पार कर अफगानिस्तान जाने की कोशिश की और मुशर्रफ सरकार पर दबाव बढ़ाया ताकि वह तालिबान के विरुद्ध युद्ध में शामिल न हो, उनमें देवबंदियों ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसलिए सैनिक सरकार अब इन देवबंदी मौलानाओं के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है। सरकार ने इस रिक्त स्थान को भरने के लिए बरेलवी मौलानाओं से सांठगांठ कर ली है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में बरेलवी विचारधारा के लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। यद्यपि बरेलवी और देवबंदी दोनों ही सुन्नी पंथ की शाखाएं हैं, लेकिन देवबंदियों की संख्या बरेलवियों की तुलना में बहुत कम है।पाकिस्तान सरकार ने बरेलवी विचारधारा और उससे जुड़े मजहबी नेताओं को बढ़ावा देने की योजना तैयार कर ली है। इस योजना के तहत प्रारम्भ में इस समुदाय के कुछ प्रमुख नेताओं को सरकार में समायोजित किया जाएगा। सूत्रों के अनुसार बरेलवी समुदाय के प्रभावशाली नेताओं की जल्द ही संघीय, प्रांतीय और जिला स्तर के पदों पर नियुक्ति की सम्भावना है।देवबंदियों को राजनीति में महत्व देने की शुरुआत जनरल जिया के समय में हुई थी। जिया अपनी कुर्सी मजबूत करने के लिए हाथ-पांव मार रहे थे। उस समय उनके मामा अब्दुल गफूर जमाते इस्लामी के अध्यक्ष थे। उन्होंने अपने भांजे को यह तरकीब बताई कि इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान में वे अपना शिकंजा मजबूत कर सकते हैं। मामा ने इस्लामीकरण की रट लगाई और फिर भांजे ने शरीयत का राज घोषित कर दिया। पाकिस्तान का इस्लामीकरण जिया को रास आया और वे पाकिस्तान के सर्वेसर्वा बन गए। जमाते इस्लामी का जादू ऐसा चला कि पाकिस्तान हरे रंग में रंग गया। कट्टरवाद की शुरुआत हुई और फिर इसी मुंडेर पर तालिबान की बेल चढ़ने और बढ़ने लगी। जमाते इस्लामी ने अपने लिए यह स्वर्ण अवसर समझा। जनरल जिया के राज में पाकिस्तान की नौकरशाही में बड़े पैमाने पर देवबंदियों की घुसपैठ होने लगी। जमाते इस्लामी के पत्र दैनिक जसारत और साप्ताहिक तकबीर धूम मचाने लगे। हर सरकारी कार्यालय में उन्हें खरीदना और बाइबिल की तरह पढ़ना अनिवार्य हो गया। उन दिनों यह कहा जाता था कि सरकारी नौकरी पाने के लिए एक दाढ़ी, एक शेरवानी और जमाते इस्लामी के किसी सदस्य की सिफारिश सबसे बड़ा प्रमाण पत्र साबित होगा। मदरसे के मुल्ला और मस्जिद के इमाम कहीं तहसीलदार बन गए तो कहीं शरीयत न्यायालय में न्यायाधीश। बाद में वे इतने ताकतवर हो गए कि जब पाकिस्तान में लोकतंत्र आया तो भी इनका कुछ नहीं बिगड़ा। बेनजीर और नवाज शरीफ इस नौकरशाही को अपने अंकुश में नहीं रख सके। तालिबान जितने बढ़ते गए उसी तेजी से देवबंदियों का भी वर्चस्व बढ़ता चला गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज परवेज मुशर्रफ के लिए वे सबसे बड़ी चुनौती बन गए। इसलिए पाकिस्तान सरकार बरेलवियों को निकट लाकर और देवबंदियों को उनकी औकात बताकर अपनी ऐतिहासिक गलती को सुधार लेना चाहती है।26

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