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माटी का मन बाबूराव ने

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Jan 9, 2002, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Jan 2002 00:00:00

क्यों की आत्महत्या?द डा. रवीन्द्र अग्रवालअपनी फरियाद लेकर गए एक सूखा-पीड़ित किसान से एक जिलाधिकारी को शांति भंग होने का खतरा महसूस हुआ और इसलिए उन्होंने किसान को नियंत्रित करने के लिए पुलिस अधिकारियों को बुला लिया। फरियाद सुनने के बजाए पुलिस बुला लिए जाने से किसान को इतनी आत्मग्लानि हुई कि उसने अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर ली। इस अपेक्षा में कि शायद इससे जिलाधिकारी को शांति मिल जाए।उड़ीसा के बारगढ़ जिले में बिस्मत नगर निवासी 45 वर्षीय किसान के. बाबूराव पर भी सूखे की मार पड़ी। सूखे से परेशान बाबूराव ने अपनी जरूरत के समय एक चावल मिल को धान बेचा। उसे पैसे की सख्त जरूरत थी। इसीलिए वह धान का भुगतान जल्दी मांग रहा था। परन्तु चावल मिल वाला भुगतान करने के नाम पर टालमटोल कर रहा था। चार दिन तक भी भुगतान न मिलने पर उसने इसकी शिकायत जिलाधिकारी को करनी चाही। इसी अपेक्षा में वह दोपहर में जिलाधिकारी कार्यालय गया। उसे उम्मीद थी कि जिलाधिकारी उसकी फरियाद सुन उसका भुगतान दिलाने में उसकी मदद करेंगे। परन्तु जिलाधिकारी ने उसकी शिकायत तो सुनी नहीं, उल्टे उसे शांति भंग करने का दोषी ठहरा दिया। और पुलिस अधिकारियों को बुलवा लिया जिससे उसे शांति भंग करने से रोका जा सके। पुलिस को आया देख बाबूराव इतना बेचैन हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली।देश में ऐसे अनेक बाबूराव हैं जिन्हें जिला प्रशासन शांति भंग करने का दोषी मानता है। इसमें दोष किसका है? कह सकते हैं कि बाबूराव को भुगतान नहीं मिल रहा था तो जिलाधिकारी इसमें क्या करे? पर किसी के प्रति शिकायत होने पर लाचार किसान कहां फरियाद करे? बाबूराव का यह सोचना ही उसके लिए घातक सिद्ध हुआ कि वह जिलाधिकारी के पास शिकायत लेकर जाए। जब से उसने होश सम्भाला, तभी से वह लोकतंत्र की बातें सुन रहा था। इन्हीं बातों को सुन-सुन कर उसे वि·श्वास हो चला था कि जिलाधिकारी को जनता की समस्याओं का समाधान करने के लिए ही तैनात किया जाता है और वह जनता का सेवक है। यहीं उससे गलती हो गई। यह ठीक है कि जिलाधिकारी सेवक है परन्तु जनता का नहीं। जनता उसका बिगाड़ भी क्या सकती है? जनता तो जनता, केन्द्रीय मुख्य सतर्कता आयुक्त भी एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी का बाल बांका नहीं कर सकते सिवाय इसके कि गड़बड़ी करने वाले अधिकारियों के नाम अन्तरताने पर डाल दें। मानवाधिकार आयोग के पास तो खैर इन छोटे-मोटे मानवाधिकार हनन के मामलों को सुनने की फुर्सत ही नहीं है। ऐसे में परेशान आदमी कहां जाए? क्या वह भी बाबूराव का रास्ता अपनाए? नहीं यह पलायनवादी रास्ता ठीक नहीं। आवश्यकता है नौकरशाहों को रास्ते पर लाने की, उन्हें जनतन्त्र की अपेक्षा के अनुरूप ढालने की। यह सब होगा तभी स्वतन्त्रता दिवस की सार्थकता है। अन्यथा यह आजादी किताबी आजादी से ज्यादा कुछ नहीं। द7

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