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कोई पूजन योग्य नहीं हैखण्डित हुई सभी प्रतिमाएंकोई नहीं वरेण्य बचा है, कुंठित फिर सारी इच्छाएं।। 1।।तन-मन-धन, सर्वस्व-समर्पणअंजुलि में सब खुशियां लेकरपुष्प-धूप-नैवेद्य सजाए-पूजन थाल चला था लेकर।मन्दिर के पट बन्द मिले हैं, टूट रही सारी मर्यादाएं।। 2।।तपती धूप सहन की मैंनेसौंप पथिक को अपनी छायामैं तो अश्रु दूसरों के भी-अपने अश्रु समझता आया।छलनाएं सब छली गईं, तो मन को कहां-कहां भरमाएं।।3।।कण्ठ-कण्ठ अवरुद्ध हो गए,मर्म नहीं समझी पीड़ाएं।एक विकल्प बचा है केवलसब खारे आंसू पी जाएं।कंपित सांसों की गति-लय से,तोड़ रही दम अब प्रतिभाएं।।4।।पनघट-पनघट खाली गागर,दिन अंधियारे, शाम उजाली।जेठ माह में तृप्त धरा तो-सावन में फिर झुलसी डाली।पूजा में फिर फूल चम्पई, बदल रही सब परिभाषाएं।।5।।जो संस्कृति के परिचायक थेदेखा तो वह झूठे निकले।पथ-दर्शक, पथ-भ्रमित हो गएऐसे तथ्य अनूठे निकले।नवयुग के इन यज्ञों के हित,-मिलकर लिखें नवीन ऋचाएं।।6।।द्रुपद-सुता फिर नग्न हो रहीजहर उगलते फिर विषधर हैं।छल के पासे चले जा रहे-संभावित फिर महासमर है।पाञ्चजन्य के उद्घोषों से, पुन: सुदर्शन चक्र उठाएं।।7।।कोई नहीं वरेण्य बचा है,कुंठित फिर सारी इच्छाएं।कोई पूजन योग्य नहीं है, खण्डित हुई सभी प्रतिमाएं।।8।।द महेश शुक्ल27
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