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पुरुषार्थ की अवधारणा भारतीय चिंतन को विशिष्ट बनाती है-प्रो. विद्यानिवास मिश्रविख्यात साहित्यकारएकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि के अवसर पर गत 25 सितम्बर को नई दिल्ली में पं. दीनदयाल उपाध्याय स्मृति व्याख्यान का आयोजन किया गया। दीनदयाल शोध संस्थान तथा एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित उक्त व्याख्यानमाला का विषय था- विराट पुरुष एवं पुरुषार्थ। पर यह व्याख्यान विख्यात साहित्यकार प्रो. विद्यानिवास मिश्र द्वारा दिया गया। समारोह की अध्यक्षता केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने की।भरतीय दर्शन में पुरुषार्थ की परिकल्पना को स्पष्ट करते हुए प्रो. विद्यानिवास मिश्र ने कहा कि पुरुषार्थ का अर्थ है इस व्यापक ब्राह्माण्डवादी चेतना को पूरी तरह से समझना और उसे समझने के लिए क्या-क्या उपाय हो सकते हैं, उन्हें जानना। वे उपाय एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। प्रो. मिश्र ने कहा कि चिंतन में जिसे महापुरुष कहते हैं, वह वस्तुत: सृष्टि के अर्थ को पूरी तरह समझने वाला तथा अपने आचरण से समझाने वाला होता है।इस अवसर पर अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में डा. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि जब तक किसी राष्ट्र, समाज या समूह में विराट का जागरण और चिति का प्रकाश नहीं होता, वह विनाश की ओर जाता है। डा. जोशी ने कहा कि पूरा ब्राह्मण्ड एक-दूसरे से जुड़ा है। इसे सम्पूर्णता में ही देखा जा सकता है और इस विराट से ही सूक्ष्म को समझा जा सकता है। यही पं. दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन भी है। डा. जोशी ने खण्डित दृष्टि को विनाशकारी बताते हुए कहा कि आतंकवाद इसी विखण्डित दृष्टि का परिणाम है। अत: आज आवश्यकता है कि भारतीय मनीषा के आधार पर समाज की रचना हो।समारोह में एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष डा. महेश चंद्र शर्मा, दीनदयाल शोध संस्थान के प्रमुख सचिव श्री भरत पाठक सहित अनेक केन्द्रीय मंत्री, भाजपा के पदाधिकारी, साहित्यकार एवं गण्यमान्यजन उपस्थित थे। — प्रतिनिधि25
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