जब हम भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों में बसी लगभग 300 जनजातियों के सपूतों की गौरव गाथा याद करते हैं तो एक स्वर्णिम नाम उभरता है- भगवान बिरसा मुंडा। जनजाति समाज, धर्म-संस्कृति और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को झारखंड के उलिहातू गांव में हुआ था। वे छोटा नागपुर पठार क्षेत्र की मुंडा जनजाति से थे। उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी अत्यंत निर्धन थे और दूसरे गांव जाकर मजदूरी किया करते थे। इसलिए बिरसा का अधिकांश बचपन माता-पिता के साथ एक गांव में नहीं बीता। उनके दो भाई एवं दो बहनें भी थीं। जब बिरसा कुछ बड़े हुए तो गरीब माता-पिता ने उन्हें अयुबहातु में उनके मामा को पास भेज दिया। वहां बिरसा ने भेड़-बकरियां चराने के साथ-साथ शिक्षक जयपाल नाग से अक्षर ज्ञान और गणित की प्रारम्भिक शिक्षा पाई। जयपाल नाग के कहने पर ही उनका परिवार ईसाई बना ताकि बिरसा का नाम चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में लिखवाया जा सके।
… और भड़क गई चिन्गारी
बिरसा का दाखिला मिशनरी स्कूल में हो गया। लेकिन वहां उनकी शिखा काट दी गई। वहां गोमांस भी खिलाया जाता था। इन सबसे उनके मन को बड़ा आघात लगा। वहां उन्होंने अपने धर्म पर संकट महसूस किया। उनके मन में विद्रोह की चिन्गारी सुलग उठी, जो तब ज्वाला में परिवर्तित हुई, जब मिशन के एक पादरी ने मुंडा समाज के लिए ठग, बेईमान और चोर जैसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया। दरअसल, मिशनरी ने चर्च के लिए मुंडा गांव की जमीन मांगी थी, जिस पर मुंडा समुदाय के लोगों ने आपत्ति जताई थी। इससे पादरी नाराज हो गया और समुदाय पर अभद्र टिप्पणी कर दी। उस समय बिरसा 14 वर्ष के थे। उन्होंने कहा कि मुंडा समाज पर जुल्म करने वाले और हमारी जमीन हड़पने वाले आप ही लोग चोर और बेईमान हैं। आप में और आततायी ब्रिटिश सरकार में कोई अंतर नहीं है। पादरी को खरी-खरी सुनाने के बाद बिरसा ने स्कूल छोड़ दिया।
स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा ने अपने समाज को अशिक्षा, गरीबी और अज्ञानता से बाहर निकालने का निश्चय किया। लिहाजा, उन्होंने मुंडा समुदाय के लोगों को संगठित करना शुरू किया। उन्होंने मुंडा युवकों का एक संगठन बनाया और सामाजिक सुधारों के साथ-साथ राजनीतिक शोषण के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया। इसी दौरान उनका आनंद पांडा से संपर्क हुआ, जो धार्मिक प्रकृति के थे और बंदगांव के जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशी थे। बिरसा ने उन्हीं के पास रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया, जिसका उनके मन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा।
धर्म के साथ जुड़ाव के बाद उन्होंने पाया कि इस पर ईसाइयत का प्रभाव है। इसलिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक और जनजातीय समुदाय को ईसाई में कन्वर्ट करने के मिशनरियों के प्रयासों के बारे में जागरूकता प्राप्त करने के बाद बिरसा ने अपना आध्यात्मिक संगठन ‘बिरसाइत’ शुरू किया। वे कहते थे ‘साहब-साहब एक टोपी’ यानी अंग्रेज सरकार और ईसाई मिशनरी एक ही है, दोनों की टोपियां एक हैं, दोनों के लक्ष्य एक हैं। वे हमारे देश को गुलाम बनाना और भ्रष्ट करना चाहते हैं। इसलिए ब्रिटिश सरकार और मिशनरी, दोनों और इन दोनों को सहयोग देने वाले जमींदार बिरसा मुंडा के सबसे बड़े शत्रु बन गए। बिरसा ने स्वतंत्रता के लिए नारा दिया ‘अबुआ दिशोम अबुआ राज का।’ बिरसा के ‘अपना देश, अपनी माटी’ शंखनाद से जनजाति युवा जाग उठे। चलकद ग्राम में एक आश्रम और एक आरोग्य निकेतन क्रांति का गढ़ बन गया। उधर अंग्रेज सरकार ने हर संभव उपाय कर बिरसा की क्रांति को कुचलने का आदेश दिया।
मुंडा और उरांव समुदाय के लोग जल्द ही बड़ी संख्या में बिरसा के अनुयायी बनने लगे। यह चलन ब्रिटिश कन्वर्जन गतिविधियों के लिए एक चुनौती बन गया। धीरे-धीरे समाज में बिरसा का स्थान एक आध्यात्मिक महापुरुष के रूप में बनने लगा। लोग उन्हें भगवान मानने लगे। इसमें मुंडा, उरांव और अन्य कई समाज के हजारों लोग शामिल होने लगे। उनके उपदेश थे- शराब मत पियो, चोरी मत करो, गो हत्या मत करो, पवित्र यज्ञोपवीत पहनो, तुलसी का पौधा लगाओ, ऐसी छोटी-छोटी बातों से लोगों में एक आध्यात्मिक चेतना जाग्रत होने लगी। भगवान बिरसा के प्रयासों से समाज का स्वाभिमान जाग्रत हुआ तो लोगों ने जमींदारों के सामने झुकने से इनकार कर दिया और चर्च में जाना छोड़ कर बिरसा के साथ भजन-कीर्तन करने लगे।
बिरसा की इस बढ़ती ताकत को देख कर ब्रिटिश सरकार डर गई और उसने छल-प्रपंच से गिरफ्तार कर उन्हें हजारीबाग जेल में डाल दिया। लेकिन सरकार उन्हें ज्यादा दिन जेल में रख नहीं पाई। 25 अगस्त, 1895 को उन्हें गिरफ्तार किया गया था और वे 30 नवंबर, 1897 को रिहा हुए। 2 वर्ष बाद जब वे जेल से बाहर आए तो उनके स्वागत के लिए हजारों लोग वहां उपस्थित थे। जेल से छूटने के बाद तो बिरसा ने मानो अंग्रेज सरकार को उखाड़ फेंकने का निश्चय ही कर लिया था।
जनजातीय अस्मिता के महानायक
भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जनजाति समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। उन्होंने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य की शब्दावली रची।
उन्होंने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर जनजाति समाज अंधविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। जमींदारों, जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्ठी में जनजाति समाज झुलस रहा था। बिरसा ने समाज को शोषण की यातना से मुक्ति दिलाने के लिए तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा।
पहला, सामाजिक स्तर पर ताकि जनजाति समाज अंधविश्वास और ढकोसलों के चंगुल से मुक्त हो सके। इसके लिए उन्होंने जनजातियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया, शिक्षा का महत्व समझाया, सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया। साथ ही, काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। सामाजिक स्तर पर जनजातियों के जागरण से जमींदार-जागीरदार व तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, झाड़-फूंक करने वाले पाखंडियों की दुकानदारी भी ठप हो गई। इसलिए सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए। उन्होंने बिरसा को साजिश रचकर फंसाने के प्रयास शुरू किए।
दूसरा था, आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि जनजाति समाज को जमींदारों और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर जनजाति समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर जनजाति समाज के लोग शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। जनजातियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप, जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रुक गया। तीसरा था, राजनीतिक स्तर पर जनजातियों को संगठित करना। चूंकि बिरसा ने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर जनजातियों में चेतना की चिन्गारी सुलगा दी थी, अत: राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी।
आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए। बिरसा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर उस युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद थे। उनकी महान देशभक्तों में की जाती है। 1886 से 1890 के दौरान बिरसा मुंडा ने चाईबासा में काफी समय बिताया, जो सरदारों के आंदोलन के केंद्र के करीब था। सरदारों की गतिविधियों का युवा बिरसा के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे जल्द ही मिशनरी और सरकार विरोधी कार्यक्रम का हिस्सा बन गए। 1890 में जब उन्होंने चाईबासा छोड़ा, तब तक बिरसा आदिवासी समुदायों के ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन में मजबूती से शामिल हो चुके थे।
शक्ति और साहस के परिचायक
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत भूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए, जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया है। एक छोटी-सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती, बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए इसकी जीती जागती मिसाल थे-बिरसा मुंडा। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। अपने कार्यों और आंदोलन की वजह से बिहार और झारखंड के लोग उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं। बिरसा ने ब्रिटिश शासन, जनजातियों पर अत्याचार करने वाले जमींदारों के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया और नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों से सरकार को लगान न देने का आह्वान किया था।
1895 तक बिरसा मुंडा सफल नेता के रूप में उभरने लगे, जो लोगों में जागरूकता फैलाना चाहता था। 1894 के अकाल के दौरान उन्होंने मुंडा समुदाय व अन्य लोगों के लिए अंग्रेजों से लगान माफ करने की मांग को लेकर आंदोलन किया था। बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। उन्हें लोग ‘धरती आबा’ बुलाते थे और उनकी पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। 1897 से 1900 के बीच मुंडा समाज व अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा और उनके अनुयायियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। अगस्त 1897 में बिरसा और तीर-कमान से लैस उनके 400 सिपाहियों ने खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडा आंदोलनकारियों की भिड़ंत अंग्रेज सेना से हुई, जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गई, लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से जनजाति नेताओं की गिरफ्तारी हुई।
1899 में उन्होंने जल, जमीन और जंगल के अधिकारों के लिए अंग्रेज सरकार के खिलाफ एक प्रखर आंदोलन शुरू किया। इसकी शुरुआत छोटा नागपुर से हुई, जिसे उन्होंने ‘उलगुलान’ यानी महाविद्रोह नाम दिया। इस विद्रोह को ‘मुंडा विद्रोह’ भी कहा जाता है, जिसे स्वतंत्रता संग्राम में मील का पत्थर माना जाता है। मुंडा समुदाय के विद्रोह से अंग्रेज सरकार कांप गई थी। 9 जनवरी, 1900 को बिरसा ने जोजोहातु के निकट डोम्बारी पहाड़ी पर एक सभा आयोजित की थी, जिसमें हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हुए थे। कमिशनर स्ट्रीट फील्ड को यह खबर मिली तो उसने पूरी पहाड़ी को घेर लिया। आंदोलनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं गईं। इधर बंदूकें थीं और उधर पत्थर और तीर-धनुष। पहाड़ी पर भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें बहुत सी महिलाएं और बच्चे मारे गए। खून से पहाड़ी लाल हो गई। अंतत: जीत अंग्रेजों की हुई। अंग्रेजों ने डोम्बारी पहाड़ी पर कब्जा कर लिया, लेकिन मुक्ति नायक बिरसा उनके हाथ नहीं लगे। कहा जाता है कि यह जलियांवाला बाग जैसा ही एक भयंकर एवं सुनियोजित हत्याकांड था।
इस विफलता से झल्लाए अंग्रेजों ने बिरसा को पकड़ने का निश्चय किया। उन्हें डर था कि अगर वे अधिक दिन बाहर रहे, तो बहुत बड़ा खतरा बन जाएंगे। इसलिए अंग्रेजों ने भगवान बिरसा की गिरफ्तारी पर 500 रुपये का इनाम घोषित कर दिया। फिर भी अंग्रेज सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाई। दुर्योग से दो गद्दार अंग्रेजों से जा मिले। गुप्तचरों और भेदियों की मदद से 3 फरवरी को उन्हें चक्रधरपुर के बंदगाव से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें हथकड़ी पहनाकर रांची जेल लाया गया, जहां 9 जून, 1900 को संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। हालांकि, अंग्रेज सरकार का दावा था कि उनकी मौत हैजे के कारण हुई, लेकिन कहा जाता है कि अंग्रेज शासन ने जहर देकर उनकी हत्या कर दी। फिर चुपचाप एक नाले के किनारे उनके शव को जला दिया।
25 वर्ष की अल्पायु में भगवान बिरसा मुंडा की जीवन लीला समाप्त हो गई, लेकिन स्व-धर्म, संस्कृति व स्वदेश की रक्षा की जो ज्योति उन्होंने प्रज्वलित की थी, उसी को सहारा बना कर सैकड़ों क्रांतिकारियों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। बिरसा मुंडा जनजाति अस्मिता के ऐसे महानायक थे, जिनकी प्रेरणा आज भी हमें धर्म-संस्कृति के प्रति जागरूक रहने का संदेश देती है। ल्ल
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