इस्लाम और सेकुलर राजनीति की एक पहेली देखिए -इस्लाम कभी इंसानों में भेदभाव से परे नहीं हो सकता और मजहब से दूर होने का दम भरने वाली ‘कथित’ सेकुलर राजनीति कभी मजहब से मुंह नहीं मोड़ सकती।
तो क्या यह अंतर्द्वंद्व सेकुलर राजनीति की फांस बनेगा?
प्रश्न बड़ा है।
जो राजनीति खुद को सेकुलर बताती है, उसकी सच्चाई यह है कि वह मुस्लिम तुष्टीकरण के बिना चार कदम चलते ही हांफने लगती है।
दो बिंदुओं पर ध्यान दें –
पहला, इस्लाम जब इस देश में आया तो तलवार के साथ इस तर्क का प्रसार करते हुए फैला कि उसके यहां ऊंच-नीच का भेद नहीं है, हिंदुओं की तरह जाति नहीं है।
दूसरा, जब भारत स्वतंत्र हुआ तो संविधान निर्माताओं ने उन जातियों के उत्थान के लिए विशेष व्यवस्था की, जिनके प्रति हिंदू समाज पर भेदभाव करने के आक्षेप लगते थे।
अब आता है तीसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण विषय-आरक्षण।
दरअसल, आरक्षण वह मुद्दा था जहां जातियों को मिलने वाले लाभ के लालच में वह इस्लामी सूरमा भी मुंह में दही जमाकर बैठ गए जो इसे जातियों से मुक्त व्यवस्था बताते थे।
इसके साथ ही वंचित जातियों के हितों पर घात लगाने के खेल में वह राजनीति भी चुपचाप शामिल हो गई जो इस हुजूम को अपने एकमुश्त वोटबैंक के रूप में देखती थी।
कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल, तेलंगाना, तमिलनाडु सहित कई राज्यों में मुस्लिमों को ओबीसी कोटा देकर देश के पिछड़े वर्ग की अनदेखी की गई। अभी ओबीसी को जो आरक्षण मिला है, उस पूरे आरक्षण पर यह गिद्ध दृष्टि लगी है।
सेकुलर राजनीति भी पिछड़ी जातियों का हिस्सा खाने की इस मजहबी चाल को चुपचाप बढ़ावा देती रही। चाहे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) हो या जामिया मिल्लिया इस्लामिया (जिनकी स्थापना संसदीय कानून के अंतर्गत हुई)। यहां अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण रखा गया था, लेकिन उसे भीतर ही भीतर मुसलमान खा गए और बाहर आवाज तक नहीं आने दी। सब हुआ किन्तु राजनीतिक हलकों में इस पर चर्चा तो दूर, सुगबुगाहट तक नहीं हुई।
ध्यान दें, संविधान के अनुच्छेद-8 के अनुसार, एएमयू सभी लिंग, जाति, वर्ण और वर्ग के लिए है। लेकिन कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए पहली बार 1981 में असंवैधानिक तरीके से एएमयू कानून में संशोधन किया और विश्वविद्यालय की परिभाषा बदल दी। फिर मुस्लिम छात्रों को 50 प्रतिशत आरक्षण की मंजूरी भी दे दी।
20 अगस्त, 1989 को एएमयू अदालत ने मुस्लिम छात्रों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव पारित किया, लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने इसे असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया कि मजहबी आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसके बाद संप्रग सरकार के काल में 2005 में मुस्लिम छात्रों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का एक और प्रयास हुआ, किंतु गैर-मुस्लिम छात्रों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से गुहार लगाई और न्यायालय ने आरक्षण को असंवैधानिक बताया।
एएमयू और संप्रग सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन वहां भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। प्रश्न है कि स्थापना के 100 वर्ष बाद भी एएमयू में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को दाखिले के लिए इंतजार क्यों करना पड़ रहा है, जबकि आरक्षण उनका संवैधानिक अधिकार है!
- आश्चर्य है कि इस्लाम के जातिमुक्त और न्यायप्रिय होने का दम भरने वाले विद्वान मुसलमानों द्वारा लाभ के लिए जाति का लबादा ओढ़ने और पिछड़ों का ‘हक’ मारने के इस खुले अन्याय पर मौन हैं।
- आश्चर्य है कि मायावी आंबेडकर भक्त भीम-मीम एकता की दिखावटी बातें करतें हैं किन्तु एएमयू और जामिया में अनुसूचित जातियों के अधिकारों की बात नहीं करते।
- आश्चर्य है कि पिछड़ों के आरक्षण में मुस्लिम सेंध का रास्ता बनाने वाली कांग्रेस स्वयं चीजें बदलने के खेल में शामिल रहती है और फिर भी कहती है-‘वे‘ आए तो आरक्षण बदल देंगे!
बहरहाल, राजनीति एकबारगी धूर्त हो सकती है, किंतु लोकतंत्र में समाज की सामूहिक समझ और चतुराई का सामना यह नहीं कर सकती।
यह लोकतंत्र के महापर्व का समय है। आश्चर्य नहीं कि कोटे के चक्कर में नीयत के खोट का खेल जनता एक झटके में पलट दे।
@hiteshshankar
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