देश के स्वतंत्रता संग्राम व आजादी के लिए बलिदान करने के नाम पर एकाधिकार के कई दावे अनेक परिवार व राजनीतिक दल करते हैं परन्तु वास्तविकता है कि देश को आजादी इतने सस्ते भाव में नहीं मिली। इस संघर्ष में देश के हर वर्ग के लाखों लोगों व परिवारों ने अपना योगदान दिया और रोचक बात है कि इन अज्ञात लोगों ने कभी स्वतंत्रता देवी के एकमात्र उपासक होने का दावा भी नहीं किया, बल्कि इसके विपरीत अनेकों क्रान्तिकारी तो ऐसे हैं जिनके बारे समाज जानता तक नहीं है। ऐसे ही अज्ञात नायक व महान क्रान्तिकारी थे पंजाब में जन्मे भाई महाराज सिंह जिन्होंने देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रान्ति से दस साल पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का शंखनाद कर दिया था।
संत बनकर जगाई क्रांति की अलख
भाई महाराज सिंह एक संत थे जो देश में पराधीनता की जंजीरों को काटने के लिए क्रान्तिकारी बन गए। उनका जन्म लुधियाना जिले के रब्बन गांव में निहाल सिंह के रूप में हुआ। वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे और वे नौरंगाबाद (वर्तमान में जिला तरनतारन) के एक संत भाई बीर सिंह के प्रभाव में आ गए। वे वहां लंगर व आने वाली संगत की सेवा करने लगे। साल 1844 में भाई बीर सिंह के देहांत के बाद वे नौरंगाबाद डेरे के प्रमुख बने।
अंग्रेजों ने रखा इनाम
महाराज सिंह देश की परतंत्रता से व्यथित थे और वे गुलामी की जंजीरों को काटने के लिए बेताब रहने लगे। संदेह होने पर उनकी गतिविधियों को अंग्रेजों ने नौरंगाबाद तक सीमित कर दिया, पर वे भूमिगत हो गए। सरकार ने अमृतसर में उनकी संपत्ति जब्त कर ली और उनकी गिरफ्तारी के लिए इनाम की घोषणा की।
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भाई महाराज सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी गतिविधियां तेज कर दीं, जब उन्हें पता चला कि सिख जरनैल दीवान मूलराज ने अप्रैल 1848 में मुल्तान में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया तो वे उनका साथ देने के लिए 400 घुड़सवारों के साथ रवाना हुए। लेकिन जल्द ही इन दोनों नेताओं के बीच मतभेद पैदा हो गए। महाराज सिंह अंग्रेजों को भगाने की अपनी योजना में अन्य सिख जरनैल चतर सिंह अटारीवाला की सहायता लेने के लिए जून 1848 में मुल्तान से हजारा चले गए।
अकेले ही लड़ाई जारी रखने का लिया संकल्प
नवंबर 1848 में, वे रामनगर में राजा शेर सिंह की सेना में शामिल हुए और युद्ध के मैदान में अपनी घोड़ी पर सवार होकर सिख सैनिकों को अपने देश की खातिर अपनी जान कुर्बान करने के लिए प्रेरित करते रहे। इसके बाद उन्होंने चेलियांवाला और गुजरात की लड़ाइयों में हिस्सा लिया, लेकिन, जब राजा शेर सिंह ने 14 मार्च 1849 को रावलपिंडी में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, तो उन्होंने अकेले ही लड़ाई जारी रखने का संकल्प लिया।
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वे जम्मू चले आए और पंजाब में बटाला को अपना गुप्त मुख्यालय बना लिया। दिसंबर 1849 में, वह होशियारपुर आ गये और सिख रेजिमेंट से मिलकर उनका समर्थन प्राप्त किया।
चुम्ब घाटी के जंगलों में तैयार की योजना
वे सिख क्रांतिकारियों की उस पंक्ति से थे जो उन्हें गुरुओं के साथ जोड़े रखना चाहते थे। भाई महाराज सिंह ने शक्तिशाली अंग्रेजों के खिलाफ कार्रवाई की योजना चुम्ब घाटी के जंगलों में तैयार की थी। इनका उद्देश्य था –
- 1. महाराजा दलीप सिंह (महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र) को लाहौर किले से छुड़ाना।
- 2. सभी ब्रिटिश विरोधी ताकतों का संयुक्त मोर्चा संगठित करना।
- 3. ब्रिटिश खजानों और छावनियों पर तोडफ़ोड़ और गोरिल्ला हमले।
भाई महाराज सिंह ने खुद ही आम विद्रोह की तैयारी शुरू कर दी। जुलाई से अक्टूबर 1849 तक वे साजूवाल (बटाला जिला) में रहे, जहाँ उन्होंने होशियारपुर और जालंधर की छावनियों पर हमला करने का फैसला किया। कुछ लोगों को काबुल और कंधार भेजा गया। योजना को लागू करने के लिए अफग़ान शासकों अमीर दोस्त मोहम्मद खान और सुल्तान मोहम्मद खान से संपर्क किया।
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पंजाब की पहाडिय़ों में बेदी बिक्रम सिंह इस आंदोलन में शामिल हो गए। कांगड़ा शासकों ने कुछ अन्य परिवारों के साथ मिलकर इस आंदोलन के लिए 1000 माचिस (बारूद), 10000-20000 रुपये और करीब 10000 मन अनाज की आपूर्ति की।
सरकारी खजाना लूटने और छावनी पर हमले की योजना
इसके बाद भाई महाराज सिंह सजुवाल छोडक़र होशियारपुर जिले में चले गए, जहां उन्होंने प्रभावशाली लोगों से संपर्क किया। उन्होंने उन्हें बताया कि योजना के अनुसार, बजवाड़ा में सरकारी खजाने को लूटने और नई होशियारपुर छावनी पर हमला करने की योजना बनाई।
भाई महाराज सिंह ने व्यक्तिगत रूप से सिख लायंस (रेजिमेंट) का दौरा किया और रेजिमेंट के अधिकारी प्रेम सिंह, सुखा सिंह, फतेह सिंह, जय सिंह हवलदार आदि से सहायता का वादा प्राप्त किया। इस बीच, जानकारी मिली कि हाजीपुर के पास दातारपुर में लगभग 4,000 लोगों को इकठ्ठा करने की व्यवस्था पूरी हो गई थी और माझा, मालवा और हजारा में भी इसी तरह की तैयारियां पूरी हो गई थीं।
मुस्लिम मुखबिर की सूचना पर हुई गिरफ्तारी
इनके द्वारा होशियारपुर और जालंधर की छावनियों पर आक्रमण करने की तिथि 3 जनवरी, 1850 तय की गई। जैसे-जैसे आक्रमण का दिन नजदीक आता गया, महाराज सिंह ने जालंधर दोआब के कई केन्द्रों का शीघ्रतापूर्वक दौरा किया, जहां उनके एजेंट गुप्त रूप से काम कर रहे थे। सर्वेक्षण पूरा करने के बाद वे 28 दिसंबर 1849 को आदमपुर पहुंचे, जहां एक मुस्लिम मुखबिर की सूचना पर उन्हें अंग्रेज अधिकारी वैनसिटार्ट ने उन्हें अनुयायियों के साथ गन्ने के खेत में गिरफ्तार कर लिया। भाई महाराज सिंह, जिनके सिर पर 10,000 रुपये का इनाम था, को 28 दिसंबर 1849 को आदमपुर में गिरफ्तार कर लिया गया।
सिंगापुर जेल जाने वाले पहले स्वतंत्रता सेनानी
उन्हें जालंधर जेल में रखा गया और फिर अनुयायियों के साथ इलाहाबाद भेज दिया गया। एक महीने के भीतर ही उन्हें कलकत्ता भेज दिया गया। वहाँ से गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने उन्हें सिंगापुर भेजने का आदेश जारी किया। 14 जून 1850 को उनका दल सिंगापुर पहुँचा। भाई महाराज सिंह को एक कमरे में रखा गया। उनकी कोठरी में दो खिड़कियाँ दीवार से बंद कर दी गईं और बरामदे में एक मजबूत लोहे का गेट लगा दिया गया। वे सिंगापुर जेल भेजे जाने वाले पहले भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे।
एकांत कारावास में हुए गठिया के शिकार
तीन साल तक एकांत कारावास में रहने के बाद, भाई महाराज सिंह न केवल अंधे हो गए, बल्कि उन्हें गठिया के दर्द भी होने लगे और वे कंकाल मात्र रह गए। उनके खराब स्वास्थ्य को देखते हुए, 1853 में सिविल सर्जन ने सिफारिश की कि उन्हें कभी-कभार खुले में टहलने की अनुमति दी जाए, लेकिन अंग्रेज नहीं माने। भाई महाराज सिंह का स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया।
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इस दिव्य देशभक्त की आत्मा 5 जुलाई, 1856 को वे स्वर्ग सिधार गई। भाई महाराज सिंह देश एक अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देश को आजाद कराने के प्रयास किए। आज 5 जुलाई को पूरा देश अपने इस महान क्रान्तिकारी को नमन कर रहा है।
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