राष्ट्रीय जीवन एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में छत्रपति शिवाजी महाराज की महत्ता एवं योगदान को रेखांकित-मूल्यांकित करने के लिए तत्कालीन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखना पड़ेगा। सदियों की गुलामी ने हिंदू समाज के मनोबल को भीतर तक तोड़ दिया था। पराधीन एवं पराजित हिंदू समाज को मुक्ति का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और लोकरक्षक श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों का आदर्श सम्मुख होने के बावजूद वर्तमान दुरावस्था ने उन्हें हताशा और निराशा के गर्त्त में धकेल दिया था। सनातन समाज के अंतर्मन में संघर्ष और विजय की कामना तो पलती थी, पर परकीय शासन की भयावहता और क्रूरता उन्हें चुप्पी साध लेने को विवश करती थी। देश में विधर्मी-विदेशी आक्रांताओं का राज्य स्थापित हो जाने के पश्चात हिंदू जनता और अधिकांश हिंदू राजाओं के हृदय में गौरव, उत्साह और विजिगीषा के लिए कोई विशेष अवकाश शेष नहीं था।
उनके सामने ही उनके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्त्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान किया जाता था। गुलामी और संघर्ष के बावजूद अपनी किसी-न-किसी सामाजिक-सांगठनिक-सैन्य दुर्बलता, रणनीतिक चूक या भीतरघात आदि के कारण लगातार मिलने वाली पराजय के परिणामस्वरूप शनैः-शनैः एक ऐसा भी कालखंड आया, जब लोगों ने अपने साहस, शौर्य, स्वत्व एवं स्वाभिमान को तिलांजलि देकर ‘दिल्लीश्वरो जगदीश्वरोवा” की धारणा को सत्य मानना प्रारंभ कर दिया। फिर भी यह कहना सरलीकृत निष्कर्ष होगा कि विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं का हम भारतीय साहस-संघर्ष के साथ सामना नहीं कर सके और बिना लड़े आत्मसमर्पण कर दिया या पराजित हुए। अपितु सत्य यही है कि हम लड़े और क्या खूब लड़े! ऐसे कि हमने शत्रुओं को पीछे हटने पर विवश कर दिया। उन्हें एकछत्र और निरापद शासन देश के किसी भूभाग और प्रांत में नहीं करने दिया।
सत्य यही है कि निराशा और हताशा के घटाटोप अंधकार भरे उस प्रतिकूल परिवेश में भी भारतीय नभाकाश पर छत्रपति शिवाजी जैसे तेजोद्दीप्त सूर्य का उदय हुआ। शिवाजी का उदय केवल एक व्यक्ति का उदय मात्र नहीं था, बल्कि वह जातियों के उत्साह और पुरुषार्थ का उदय था, गौरव और स्वाभिमान का उदय था, स्वराज, सुराज, स्वधर्म व सुशासन का उदय था और इन सबसे अधिक वह आदर्श राजा के जीवंत और मूर्त्तिमान प्रेरणा-पुरुष का उदय था। उनका राज्याभिषेक केवल किसी व्यक्ति विशेष के सिंहासन पर बैठने की घटना भर नहीं थी। बल्कि वह समाज और राष्ट्र की भावी दिशा तय करने वाली एक युगांतकारी घटना थी। वह सदियों की सोई हुई चेतना को झकझोर कर जागृत करने वाली घटना थी। शिवाजी महाराज केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक सोच थे, संस्कार थे, संस्कृति थे, पथ-प्रदर्शक, क्रांतिकारी मशाल थे, युगप्रवर्तक शिल्पकार थे।
उनका राज्याभिषेक और हिंदवी साम्राज्य की स्थापना उनके सुदीर्घ चिंतन और प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम था। वह उनके अथक प्रयासों और अभिनव प्रयोगों की सार्थक परिणति थी। सदियों से पराधीन जाति की सुषुप्त चेतना व स्वत्व को जगाने का यह उनका असाधारण व सुविचारित प्रयास था। पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिंदू जाति तुर्कों-मुगलों के निरंतर आधीन रही। ऐसे में शिवाजी ने पहले समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना का संचार कर उन्हें किसी बड़े ध्येय के लिए प्रेरित और संगठित किया। छोटे-छोटे कामगारों-कृषकों मेहनतकश जातियों, जुझारू मावलों को एकत्रित किया। उनमें विजिगीषु वृत्ति भरी। उनमें यह विश्वास भरा कि आदिलशाही-कुतबशाही-मुग़लिया सल्तनत कोई आसमानी ताकत नहीं है। ये सत्ताएँ अपराजेय नहीं हैं। अपितु थोड़ी-सी सूझ-बूझ, रणनीतिक कौशल, साहस, सामर्थ्य और संगठन से उन्हें हराया जा सकता है। न केवल हराया जा सकता है, अपितु प्रजाजनों की इच्छा के अनुरूप एक धर्माधारित-प्रजापालक राजकीय सत्ता और राज्य भी स्थापित किया जा सकता है।
उन्होंने छोटे-छोटे किलों को जीतकर पहले अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया। तत्पश्चात उन्होंने बड़े-बड़े किले जीतकर अपना राज्य-विस्तार तो किया ही; आदिलशाही, कुतबशाही, अफ़ज़ल खां, शाइस्ता खां, मिर्जा राजा जयसिंह आदि प्रतिपक्षियों और उनकी विशाल सेना से ज़बरदस्त मोर्चा भी लिया। कुछ युद्ध हारे तो बहुधा जीते। कभी संधि और समझौते किए। जब ज़रूरत पड़ी पीछे हटे, रुके, ठहरे, शक्ति संचित की और पुनः वार किया। उन्होंने हठधर्मिता और कोरी आदर्शवादिता के स्थान पर ठोस व्यावहारिकता का पथ चुना। व्यवहारिकता को चुनते समय न तो निजी एवं राष्ट्रीय जीवन के उच्चादर्शों व मूल्यों को ताक पर रखा, न ही प्रजा के हितों और समय की माँग की उपेक्षा की। वस्तुतः उनका लक्ष्य राष्ट्र और धर्म रक्षार्थ विजय और केवल विजय रहा। और अंततः इसमें वे सफ़ल रहे। वे एक प्रकार से मुग़लिया सल्तनत के ताबूत की आख़िरी कील साबित हुए। यदि औरंगज़ेब दक्षिण में मराठाओं से न उलझता तो कदाचित मुग़लिया सल्तनत का इतना शीघ्र अंत न होता। कल्पना कीजिए कि शिवाजी का नेतृत्व-कौशल, सैन्य-व्यूह और संगठन-शिल्प कितना सुदृढ़ रहा होगा कि उनके जाने के बाद भी मराठे मुगलों और अंग्रेजों से अनवरत लड़ते रहे, झुके नहीं।
न केवल मराठों में बल्कि शिवाजी महाराज की सफलता को देखकर अन्य भारतीय राजाओं में भी स्वतंत्रता की अलख जगी। वे भी पराधीनता की बेड़ियाँ उतार फेंकने को उद्धत हो गए। दक्षिण से लेकर उत्तर तक, राजस्थान से लेकर असम तक स्वाधीनता के प्रयास तीव्र हो गए। उनसे प्रेरणा पाकर राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में सब राजपूत राजाओं ने मुगलों-तुर्कों के विरुद्ध ऐसा आक्रमण छेड़ा कि दुबारा उन्हें राजस्थान में पाँव रखने की हिम्मत नहीं हुई। वीर छत्रसाल ने अलग रणभेरी बजा दी और स्वधर्म पर आधारित स्वशासन की स्थापना की। असम के राजा चक्रध्वज सिंह ने घोषणा की कि ”हमें शिवाजी जैसी नीति अपनाकर ब्रह्मपुत्र के तट पर स्थित राज्यों में मुगलों के क़दम नहीं पड़ने देना चाहिए।” कूच-बिहार के राजा रूद्र सिंह ने कहा कि ”हमें शिवाजी के रास्ते पर चलते हुए इन पाखंडियों को बंगाल के समुद्र में डुबो देना चाहिए।” दिल्लीश्वर के दरबार की शोभा बढ़ाने की बजाय कवि भूषण ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष एवं पराक्रम की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले वीर शिरोमणि महाराज शिवाजी पर ”शिवा बावनी” लिखी। उन्होंने औरंगज़ेब की चाकरी को लात मार दी।
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उन्होंने भरे दरबार में कहा- ”कवि बेचा नहीं जाता। जो उज्ज्वल चरित्र और स्तुति योग्य है, उसी की स्तुति करता है। तुम स्तुति के लायक नहीं हो।” वस्तुतः शिवाजी महाराज के जीवन का उद्देश्य भी यही था। वे अपने उद्यम-पुरुषार्थ, सोच-संकल्प, नीति-नेतृत्व से संपूर्ण देश में सांस्कृतिक चेतना का संचार करना चाहते थे। उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को केवल महाराष्ट्र और उनके काल तक सीमित करना उनके साथ सरासर अन्याय होगा। यह निरपवाद सत्य है कि उन्होंने अपने समय और समाज की चेतना को तो झंकृत किया ही, आने वाली पीढ़ियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी वे ऊर्जा और प्रेरणा के सबसे दिव्य एवं प्रखर प्रकाशपुंज बने। पश्चिम के पास यदि ऐसा कोई योद्धा नायक होता तो वे उसे कला, सिनेमा, साहित्य के माध्यम से दुनिया भर में प्रचारित, प्रसारित एवं प्रतिष्ठित कर महानता के शिखर पर आरूढ़ करते। परंतु भारत में लोकमानस ने तो उन्हें सिर-माथे धारण किया, पर कतिपय इतिहासकारों ने उन्हें पहाड़ी चूहा, चौथ व लगान वसूलने वाला लुटेरा सामंत सिद्ध करने की कुत्सित चेष्टा की। पर तेजोद्दीप्त सूर्य को चंद बादल-गुच्छ भला कब तक रोक सका है, कब तक रोक सकेगा!
वे पहले आधुनिक शासक थे, जिसने चतुरंगिनी सैन्य-बल का गठन किया था। वे नौसेना के जनक थे। उन्होंने शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों की महत्ता समझी थी। उसके निर्माण के कल-कारखाने स्थापित किए थे। धर्मांतरितों की घर वापसी को कदाचित उन्होंने ही सर्वप्रथम मान्यता दिलवाई। उनका अष्टप्रधान बेजोड़ मंत्रीमंडल और शासन-तंत्र का उदाहरण था। उस समय के वंशवादी दौर में पेशवा का चलन, वास्तव में योग्यता का सम्मान था। अपनों को भी दंड देकर उन्होंने न्याय का उच्चादर्श रखा। जो जितने ऊँचे पद पर है, उसके लिए उतना बड़ा दंड-विधान जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करने की उनकी अनूठी शैली थी। साहस, निष्ठा व प्रतिभा को पुरस्कृत करने का अनेकानेक दृष्टांत उन्होंने प्रस्तुत किया। विधर्मी आक्रांताओं को जहाँ उन्होंने अपने कोपभाजन का शिकार बनाया, वहीं अ-हिन्दू प्रजाजनों के प्रति भी वे उतने ही सदाशय, सहिष्णु एवं उदार रहे। शिवाजी जैसा अमर, दिव्य एवं तेजस्वी चित्र अतीत के प्रति गौरवबोध विकसित करेगा और निश्चय ही वर्तमान का पथ प्रशस्त कर स्वर्णिम भविष्य की सुदृढ़ नींव रखेगा।
वे न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि एक कुशल एवं सुयोग्य प्रशासक भी थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं और समकालीन शासन प्रणालियों में समन्वय कर ठोस सिद्धांतों के आधार पर अपनी शासन-व्यवस्था विकसित की थी। यह उनकी प्रशासनिक क्षमता ही थी कि विजित भूभागों के निवासियों ने भी हृदय से उन्हें अपना अधिपति माना। शिवाजी महाराज की शासन-व्यवस्था लोकाभिमुख थी। वे एक निरंकुश शासक की बजाय लोककल्याणकारी शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। एक ऐसे शासक के रूप में जो प्रजा-हित को सर्वोपरि रखता था। उनकी शासन-पद्धत्ति में प्रजातंत्र के बीज मौजूद थे। दरअसल, उनका मुख्य उद्देश्य ही भारतीय न्याय-परंपरा पर आधारित शासकीय व्यवस्था विकसित करना था।
एक प्रशासक के रूप में उन्होंने कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया। वे अपने उन सैनिकों-सहयोगियों को भी पुरस्कृत करते थे जो राजा यानी व्यक्ति से अधिक राज्य के हितों के प्रति निष्ठा रखते थे। ऐसे अनेक दृष्टांत शिवाजी के जीवन में दिखाई देते हैं। निरंकुशता या एकाधिकारवादिता विकृति लाती है। यह राजा को स्वेच्छाचारी बना देती है। उस काल के अधिकांश राजा या सम्राट (बादशाह) निरंकुश प्रवृत्तियों से ग्रस्त थे। दुनिया के इतिहास में शिवाजी पहले ऐसे सत्ताधीश थे, जिन्होंने स्वयं अपनी सत्ता का विकेंद्रीकरण किया था। आज जब श्रेष्ठ प्रबंधन का पाठ पढ़ाया जाता है तो उसमें उत्तरदायित्वों के विकेंद्रीकरण की बात सबसे ऊपर रखी जाती है। एक व्यक्ति के अपने गुण-दोष होते हैं, अपनी सबलता-दुर्बलता होती है, पसंद-नापसंद होते हैं, सोच-सामर्थ्य की अपनी सीमा होती है, शिवाजी इस सच्चाई को भली-भाँति जानते थे। वे उन दुर्बल प्रशासकों की भाँति नहीं थे, जिन्हें हर क्षण अपनी सत्ता और अधिकार खोने का भय सताता रहता है।
चुने हुए विशेषज्ञों द्वारा शिवाजी महाराज ने ‘राजव्यवहार कोष’ नामक शासकीय शब्दावली का बृहत शब्दकोश तैयार कराया था। यह उनकी प्रगल्भता और बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उसके अनुसार, उन्होंने शासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद बनाई थी, जिसे अष्ट प्रधान कहा जाता था। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा, राजनिष्ठा, ईमानदारी और बहादुरी ही उनके मंत्रीमंडल में किसी के सम्मिलित किए जाने की एकमात्र कसौटी थी। तत्कालीन चलन के विपरीत मंत्री पद के लिए आनुवंशिकता अनिवार्य नहीं थी।
‘पेशवा’ उस मंत्रीमंडल का प्रमुख होता था। ‘अमात्य’ वित्त और राजकीय कार्यभार वहन करता था। ‘सचिव’ राजा के पत्राचार और अन्य राजकीय कार्य संपन्न करता था। जिसमें शाही मुहर लगाना और संधि-पत्रों का आलेख तैयार करना भी सम्मिलित था। ‘मंत्री’ का प्रमुख कार्य विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ एवं गुप्त सूचनाएँ एकत्र कर उनका सत्यापन करना, राज्य में होने वाली घटनाओं और गतिविधियों पर निकट नज़र रखना, समाचारों को संकलित कर उस पर महाराज का ध्यान आकर्षित करवाना हुआ करता था। वह राजा का रोज़नामचा रखता था। अतिरिक्त व्यय होने पर उसे राजा से प्रश्न पूछने का अधिकार था। आप सोचिए क्या आज के कर्मचारी अपने अधिकारी या प्रमुख से आय-व्यय का ब्यौरा माँग सकते हैं?
‘सुमंत’ विदेशी मामलों की देखभाल करते हुए लगभग आज के विदेश मंत्री का कार्य संपादित करता था। वह अन्य राज्यों में राजा के प्रमुख प्रतिनिधि या वार्त्ताकार के रूप में बातचीत को आगे बढ़ाता था। ‘सेनापति’ सेना का प्रधान होता था। सेना में सैनिकों की नियुक्ति का सर्वाधिकार उसके पास सुरक्षित होता था। सेना के संगठन, अनुशासन, युद्ध-क्षेत्र आदि में तैनाती आदि की जिम्मेदारी भी उसी की हुआ करती थी। ‘पंडितराव’ धार्मिक मामलों और अनुदानों का उत्तरदायित्व निभाता था। ‘न्यायाधीश’ न्यायिक मामलों का प्रधान था। प्रत्येक प्रधान न्यायाधीश की सहायता के लिए अनेक छोटे अधिकारियों के अतिरिक्त ”दावन, मजमुआदार, फडनिस, सुबनिस, चिटनिस, जमादार और पोटनिस” जैसे आठ प्रमुख अधिकारी भी हुआ करते थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने आज की तरह अपना एक संविधान यानी शासन-संहिता तैयार कराई थी। उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण और शासन के लोकतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। वे भली-भाँति जानते थे कि व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य और शक्तिशाली क्यों न हो वह एक सुसंबद्ध तंत्र के बिना व्यवस्थाएँ नहीं संचालित कर सकता। इसलिए उनका जोर व्यक्ति-केंद्रित शासन-व्यवस्था के बजाय तंत्र-आधारित व्यवस्था खड़ी करने पर रहा। स्वयं एक सत्ताधीश होते हुए भी उन्होंने सामंतवाद को जड़-मूल से नष्ट करने का अपरोक्ष प्रयास किया। आज तमाम दलों एवं नेताओं द्वारा वंशवादी विरासत को पालित-पोषित करता देख शिवाजी का यह आदर्श कितना ऊँचा और दुर्लभ जान पड़ता है! वे स्वयं को राज्य का स्वामी न समझकर ट्रस्टी समझते थे। राज्य का स्वामी तो वे ईश्वर को मानते थे। इसीलिए उन्होंने अपना राज्य अपने मार्गदर्शक समर्थ गुरु रामदास के श्रीचरणों में सहर्ष अर्पित कर दिया था।
शासन की सुविधा के लिए उन्होंने ‘स्वराज’ कहे जाने वाले विजित क्षेत्रों को चार प्रांतों में विभाजित किया था। हर प्रांत के ‘सूबेदार’ को ‘प्रांतपति’ कहा जाता था। उसके पास गाँव की अष्टप्रधान समिति होती थी। हर गाँव में एक ‘मुखिया’ होता था। उनके समय में तीन प्रकार के कर प्रचलित थे। ‘भूमि-कर, चौथ एवं सरदेशमुखी।” उल्लेखनीय है कि किसानों से केवल भूमि-कर वसूल किया जाता था। ग़रीब किसानों से उनके ज़मीन के रकबे और उपज के आधार पर कर वसूला जाता था। उनके राज्य के सभी सैनिक, अधिकारी, सरदार, मंत्री आदि वेतनधारी होते थे। उनकी तरह की सुनियोजित और समृद्ध वेतन-प्रणाली अन्य किसी राजा ने प्रभावी तरीके से लागू नहीं की थी। शिवाजी की यह दूरदर्शिता भ्रष्टाचार और कामचोरी पर अंकुश लगाने में सहायक थी।
समाजवाद और साम्यवाद का गुण गाने वाले लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि शिवाजी पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने वतनदारी और जमींदारी को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा कि ओहदा रहेगा, पर सत्ता नहीं रहेगी। उस समय सरदारों-जागीरदारों की अपनी निजी सेनाएँ होती थीं। उन्होंने सेना को स्वराज्य के केंद्रीय प्रशासन के अंतर्गत लेते हुए उन्हें वेतन देना प्रारंभ कर दिया, जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि सैनिकों की निष्ठा व्यक्तियों के प्रति न होकर राष्ट्र-राज्य से जुड़ गई। उन्होंने सामाजिक स्तर पर भी अनेक परिवर्तन किए। नेताजी पालकर, बजाजी निंबालकर जैसे धर्मांतरित योद्धाओं को पुनः शास्त्रोक्त पद्धत्ति से हिंदू धर्म में वापस लिया। न केवल वापस लिया अपितु उनसे अपना पारिवारिक संबंध जोड़ घर-वापसी को सामाजिक मान्यता भी दिलाई। वे अपने समय से आगे की सोच रखते थे। इसलिए उन्होंने अरब और यूरोप की आधुनिक कलाओं और युद्ध-तकनीकों को अपनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया।
मुद्रण, छापाखाना, तोपें, तलवारें आदि बनाने की कला को उन्होंने हाथों-हाथ लिया। नौसेना का गठन करके सिंधुदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग जैसे जलदुर्ग बनवाए। कुल मिलाकर उन्होंने युगानुकूल शासन-तंत्र की व्यापक रचना की। और इन सब दृष्टांतों एवं प्रसंगों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि शिवाजी आधुनिक भारत के सच्चे निर्माता थे। आज यह प्रश्न पूर्णतः न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण होगा कि किनकी कुटिल योजना और परोक्ष-प्रत्यक्ष षड्यंत्रों से शिवाजी जैसे कुशल प्रशासक एवं महान योद्धा को पाठ्य-पुस्तकों के चंद पृष्ठों या यों कहिए कि अनुच्छेदों में समेट दिया गया? क्या यह शिवाजी जैसे राष्ट्रनायकों के साथ घोर अन्याय नहीं है? जागरूक एवं स्वाभिमानी पीढ़ियाँ न केवल अपने राष्ट्रनायकों का सम्मान करती हैं, अपितु उनके पदचिह्नों का दृढ़तापूर्वक अनुसरण भी करती हैं।
(डिस्क्लेमर: स्वतंत्र लेखन। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं; आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)
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