गत 28 जनवरी से 6 फरवरी तक सेडम (कर्नाटक) का बीरनहल्ली गांव भारत ही नहीं, विदेश में भी चर्चा का केंद्र रहा। कारण था यहां आयोजित भारतीय संस्कृति उत्सव। यह उत्सव ‘श्री कोत्तलबसवेश्वर भारतीय शिक्षण समिति’ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर आयोजित हुआ। इसका आयोजन श्री कोत्तलबसवेश्वर भारतीय शिक्षण समिति, भारत विकास संगम और विकास अकादमी के तत्वावधान में किया गया। इस उत्सव में एक ऐसे भारत का दर्शन हुआ, जिसे अपने पर पूरा भरोसा है और जो आगे बढ़कर आने वाले सुंदर भविष्य का निर्माण करने में तल्लीन है। इस उत्सव में जिन लोगों ने भाग लिया उन्हें यह भी अनुभव हुआ कि समाज में सज्जन शक्तियां कितनी सक्रिय हैं और वे जीवन के विविध क्षेत्रों में कितना अच्छा काम कर रही हैं।
वास्तव में यह उत्सव भारत की प्राचीन ‘संगम’ परंपरा का ही एक नया रूप था। सज्जन शक्तियों के बीच संवाद, सहमति और सहकार का माहौल बने, इसके लिए 240 एकड़ के परिसर में एक नया संसार बसाया गया, जहां 9 दिन में 90 विचार नायकों, 9,000 कार्यकर्ताओं के साथ कई लाख लोगों की भागीदारी रही। इस उत्सव का उद्देश्य उन मूल्यों और विचारों को फैलाना था, जिनके आलोक में देश में अनेक लोग स्वयं की नहीं, दूसरे की भलाई के लिए कार्य कर रहे हैं।
यह उत्सव कर्नाटक के विजयपुरा स्थित ज्ञानयोगाश्रम के प्रमुख रहे श्री सिद्धेश्वर स्वामीजी को समर्पित रहा। स्वामी जी धर्म, संस्कृति, साहित्य के साथ ही प्रकृति के बड़े पूजक थे। यही कारण रहा कि आयोजन स्थल को ‘प्रकृति नगर’ नाम दिया गया। उत्सव से एक दिन पहले सेडम और कलबुर्गी में शोभायात्राएं निकाली गईं, जिनमें हजारों लोगों ने भाग लिया।
इसका विधिवत् उद्घाटन 29 जनवरी को पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने किया। उन्होंने कहा, ‘‘वेदोें में प्रकृति को दिव्यता का दर्जा दिया गया है। ऋग्वेद में प्रकृति और पर्यावरण के महत्व पर जोर दिया गया है। हर पर्व और उसकी अनूठी प्रथाएं देश के सांस्कृतिक मूल्यों को गहराई से दर्शाती हैं। प्राचीन भारतीय शिक्षा एक अत्यधिक विकसित, पूर्णत: संहिताबद्ध प्रणाली का प्रतीक है। इसका प्रारंभ वेदों, उपनिषदों से होता है और इसका अंत खगोल विज्ञान, आयुर्वेद, योग और गणित के विशिष्ट ग्रंथों के साथ होता है।’’ इस अवसर पर भारत विकास संगम के संस्थापक और प्रसिद्ध विचारक के.एन.गोविंदाचार्य सहित अनेक गणमान्यजन उपस्थित रहे। उद्घाटन के पश्चात् मातृ सम्मेलन हुआ। इसमें एक मां के प्रेम,उसकी संवेदनशीलता, उसके कर्तव्य एवं अनुशासन और समाज में उसकी अन्य भूमिकाओं पर चर्चा हुई।
30 जनवरी को शैक्षणिक सम्मेलन के अंतर्गत ‘ज्ञान-विज्ञान से होगा समाधान’ विषय पर वक्ताओं ने विचार रखे। वक्ताओं ने कहा कि सृष्टि का अंधकार मिटाने की शक्ति शिक्षा में है। आज हमारे देश में और दुनिया में जितनी भी समस्याएं हैं, उनका दीर्घकालिक निदान शिक्षा द्वारा ही संभव है।
31 जनवरी को युवा सम्मेलन हुआ। इसमें ‘सक्षम युवा, सशक्त राष्ट्र’ विषय पर गहन मंथन हुआ। वक्ताओं ने उन बिंदुओं पर चर्चा की, जिनसे युवा पुष्ट, परिपक्व और सार्थक परिवर्तन का वाहक बन सके।
1 फरवरी को ग्राम-कृषि सम्मेलन हुआ। इसका विषय था-‘समृद्ध गांव, खुशहाल किसान।’ वक्ताओं ने कहा कि भारतीय परंपरा में कृषि संस्कृति को संस्कृति का एक श्रेष्ठ रूप माना गया है। इसलिए कृषि कार्य को महत्व देना होगा। इसके साथ ही अनेक विशेषज्ञों ने किसानों को कम पूंजी में अधिक तथा स्वास्थ्य-वर्धक उपज लेने के तौर-तरीके बताए। इसी के साथ किसानों से जुड़े मुद्दों पर सवाल-जवाब हुए और कई आधुनिक तकनीकों को व्यावहारिक रूप में देखने-समझने का अवसर मिला।
2 फरवरी को आहार-आरोग्य सम्मेलन हुआ। इसमें ‘स्वस्थ तन, एकाग्र मन’ पर विचार-विमर्श हुआ। वक्ताओं ने कहा कि
देश के विकास और खुशहाली के लिए नागरिकों का स्वस्थ रहना अत्यंत आवश्यक है। यह स्वास्थ्य उचित आहार और आदर्श जीवन-शैली से प्राप्त होना चाहिए। तथापि, रोग होने की स्थिति में उचित औषधि का भी प्रबंध हो, यह अत्यंत आवश्यक है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सम्मेलन में प्राकृतिक चिकित्सा, योग, आयुर्वेद, यूनानी, होमियोपैथी के साथ-साथ विविध देशी उपचार पद्धतियों का प्रदर्शन किया गया।
3 फरवरी को स्वयं उद्योग सम्मेलन के अंतर्गत ‘अपना हाथ, जगन्नाथ’ विषय पर विशेषज्ञों ने कहा कि हमारे यहां लोक मान्यता है कि हम अपने हाथ से ही अपना भाग्य लिखते हैं। इसलिए कहा गया है कि अपना हाथ जगन्नाथ। हम अपने अनुभव से जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में हस्त कौशल, कारीगरी, गृह उद्योग, ग्रामोद्योग और लघु उद्योग आदि की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर हमें हर हाथ को काम देना है तो विकेंद्रित औद्योगीकरण ही एक मात्र उपाय है।
4 फरवरी को पर्यावरण सम्मेलन के तहत ‘प्रकृति बचेगी, तो हम बचेंगे’ पर मंथन हुआ। वक्ताओं ने कहा कि हम मानव केंद्रित विकास को छोड़कर प्रकृति केंद्रित विकास को अपनाएं। इसी में हम सब की भलाई है।
5 फरवरी को सेवा शक्ति सम्मेलन के अंतर्गत ‘नर सेवा- नारायण सेवा’ विषय पर विचार-विमर्श हुआ। वक्ताओं ने नि:स्वार्थ रूप से समाज की सेवा में लगे लोगों को ‘नव देवता’ और ऐसे ही सामाजिक संगठनों को ‘नव-तीर्थ’ कहते हुए संदेश दिया कि हम भी अपने-अपने गांव-शहर लौटकर यथासंभव सेवा के कार्यों से जुड़ें।
6 फरवरी को देश-धर्म-संस्कृति सम्मेलन हुआ। वक्ताओं ने कहा कि भारतीय संस्कृति के मूल में धर्म है। देश में फैले लाखों मंदिरों और साधु, संन्यासियों ने इस धर्मप्राण संस्कृति को आधार प्रदान किया है। यह आधार इतना मजबूत है कि तमाम झंझावातों को झेलने के बावजूद यह संस्कृति आज भी फल-फूल रही है।
उत्सव में कृषि, विज्ञान, कारोबार, अध्यात्म जैसे विषयों पर अलग-अलग नगर बसाए गए थे, जिन्हें ‘लोक’ नाम दिया गया था। ‘कृषि लोक’ में 11 एकड़ क्षेत्र में सर्वोत्तम कृषि पद्धतियों और एकीकृत-जैविक खेती को प्रदर्शित किया गया। छह एकड़ में फैले ‘विज्ञान लोक’ में बच्चों और आम जनता में विज्ञान के प्रति रूझान पैदा करने के लिए अनेक प्रयास किए गए। ‘कला लोक’ 2 एकड़ में था। यहां अलग-अलग तरह की कार्यशालाएं, प्रख्यात कलाकारों के कार्यों की प्रदर्शनी और विभिन्न कला रूपों को प्रदर्शित किया गया। ‘सेवा लोक’ उन व्यक्तियों और संगठनों को समर्पित था, जिन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय कार्य किए हों। कुटीर और गृह-आधारित उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों के प्रदर्शन और बिक्री के लिए ‘कायक लोक’ बनाया गया था। यहां स्वास्थ्य संबंधी उत्पादों को प्रमुखता दी गई थी। 10 वर्ष से कम आयु के बच्चों की रुचि और उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक विशेष प्रदर्शनी ‘बाल लोक’ में लगाई गई थी।
‘पुस्तक लोक’ में अनेक प्रकाशकों की पुस्तकें बिक्री के लिए रखी गई थीं। ‘ग्राम लोक’ में सेडम के आसपास के उन 15 गांवों के बारे में बताया गया था, जिन्हें भारतीय संस्कृति उत्सव को ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया है। इन गांवों की मुख्य विशेषताओं को लेकर एक प्रदर्शनी में लगाई गई।
चार एकड़ में फैले ‘स्वदेशी उद्यम लोक’ स्वदेशी विचारक राजीव दीक्षित की पुण्य स्मृति को समर्पित था। यहां सभी प्रकार के स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए दुकानदारों को स्थान दिया गया था। ‘उद्यम लोक’ में नए घरेलू उत्पादों को प्रदर्शित करने के लिए दुकानें लगाई गई थीं। ‘संस्कृति लोक’ के मुख्य मंच (अनुभव मंडप) पर प्रतिदिन शाम 5.30 बजे से रात 9 बजे तक प्रतिष्ठित कलाकारों द्वारा संगीत, नृत्य, नाटक सहित विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए।
कुल मिलाकर यह उत्सव भारत, भारतीयता और हर उस व्यक्ति को समर्पित रहा, जो इस पुणय भूमि के लिए नि:स्वार्थ रूप से कुछ न कुछ कर रहे हों।
नवाचार के अग्रदूत
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भारतीय संस्कृति उत्सव में कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ छोटे कारोबारी भी अपने उत्पादों के साथ शामिल हुए। हैदराबाद से आईं 74 वर्षीया के.बी.टी. सुंदरी की मेहनत को देखकर हर कोई दंग रह गया। वे ताड़ के पत्तों से बॉक्स, सजावटी सामान, माला, चटाई आदि बनाती हैं और बेचती हैं। यही नहीं, वे इस तरह का सामान बनाने का प्रशिक्षण भी देती हैं। इतनी आयु में आप यह सब कैसे कर लेती हैं? इस पर उन्होंने कहा, ‘‘कुछ नया करना मेरा शौक है। इसलिए काम में उम्र की कोई बाधा अब तक नहीं आई है।’’
दावनगेरा (कर्नाटक) से आए शिवराज और गणेश बाबू पैकेट में नारियल पानी का पाउडर बेचते मिले। उन दोनों ने बताया, ‘‘आप नारियल को यात्रा में नहीं ले जा सकते हैं। ऐेसे ही अनेक अस्पतालों में नारियल ले जाना मना है। इसे देखते हुए हम दोनों ने नारियल पानी का पाउडर बनाने का निर्णय लिया,जिसे आप आसानी से कहीं भी ले जा सकते हैं और जब मन करे एक गिलास पानी में मिलाकर उसे पी सकते हैं। इसका स्वाद बिल्कुल नारियल पानी जैसा ही होता है।’’
शाहपुर (कर्नाटक) के राजकुमार कभी गरीबी में रहते थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब श्रीअन्न के बारे में बोलना शुरू किया तो उन्हें लगा कि वे रागी (मड़वा) से कुछ नया कर सकते हैं। इसके बाद उन्होंने रागी का पापड़ बनाने का काम शुरू किया। आज उनका भी काम बहुत अच्छा चल रहा है। महबूबनगर (तेलंगाना) से आए वेणुगोपाल नवाचार के दूत हैं। वे सीताफल की कुल्फी बनाते हैं। कहते हैं, ‘‘सीताफल से कुल्फी बनाने का विचार मेरे लिए अच्छा साबित हुआ है।’’
बता दें कि सीताफल केवल ठंड में मिलते हैं। इन्हीं दिनों वे सीताफल खरीदते हैं और उसके अंदर के हिस्से को निकालकर ‘डीप फ्रीजर’ में रख लेते हैं और जरूरत के हिसाब से उससे कुल्फी बनाकर बाजार में बेचते हैं। इस कारोबार को शुरू करने में उन्हें शुरुआती लागत करीब 12 लाख रुपए की आई है। उनका पूरा परिवार इसी काम में लगा है। कलबुर्गी से आए शिल्पकार एरन्ना पी. कम्बर की कला साधना ने दर्शकों का ध्यान खूब आकृष्ट किया। वे लकड़ी, फाइबर और धातु से पूजा घर या मंदिर के द्वार बनाते हैं। उन्होंने बताया कि यह उनका पुश्तैनी काम है। यही काम मेरी पहचान है, मेरी पूजा है, मेरा जीवन है।
सातवां उत्सव
सेडम में सातवां संस्कृति उत्सव आयोजित हुआ। इससे पहले यह उत्सव क्रमश: वाराणसी, चुनार, कलबुर्गी, कनेरी-कोल्हापुर, विजयपुरा और कलवाकुर्ती में आयोजित हुआ था। इसके पीछे मुख्य रूप से ‘भारत विकास संगम’ नामक संगठन है, जिसके संस्थापक हैं प्रसिद्ध विचारक श्री के.एन. गोविंदाचार्य। पिछले 20 वर्ष में यह संगठन एक ऐसे खुले मंच के रूप में विकसित हुआ है, जहां समाज की सृजनात्मक शक्तियों के बीच हर स्तर पर संवाद, सहमति और सहकार की प्रक्रिया को प्रोत्साहन दिया जाता है। इस उद्देश्य के लिए, भारत विकास संगम की ओर से समय-समय पर चयनित कार्यकर्ताओं और संबद्ध संगठनों हेतु विविध प्रकार की कार्यशालाओं और संवाद सत्रों का आयोजन किया जाता है। इसी प्रक्रिया में हर तीन साल के अंतराल पर भारतीय संस्कृति उत्सव के नाम से एक महासम्मेलन का आयोजन होता आया है, जिसमें पूरे समाज को आमंत्रित किया जाता है।
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