जनजातीय समाज के बीच कन्वर्जन का मुद्दा नया नहीं है। आर्थिक और अन्य प्रलोभनों की आड़ में देश की विभिन्न जनजातियां लंबे समय से कन्वर्जन का शिकार होती रही हैं। समाज सेवा की आड़ में मिशनरियां अपने एजेंडे पर काम करती हैं। इसमें अब आरक्षण भी एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है। अपनी संस्कृति, रीति-रिवाजों और मान्यताओं को छोड़कर कन्वर्ट होने वाला हर व्यक्ति दोहरी मलाई खाता है। एक ओर वह ‘अल्पसंख्यक’ कोटे का लाभ लेता है वही दूसरी ओर आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुद को एससी, एसटी और ओबीसी भी साबित कर देता है।
हाल ही में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केवल आरक्षण का लाभ लेने के लिए कन्वर्ट होना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। न्यायालय ने साथ ही मद्रास उच्च न्यायालय के उस निर्णय को भी सही ठहराया जिसमें एक महिला को एससी प्रमाण-पत्र देने से इनकार कर दिया गया था। दरअसल, उक्त महिला पुडुचेरी में अपर डिविजन क्लर्क की नौकरी के लिए एससी प्रमाण-पत्र चाहती थी, जबकि वह ईसाई मत में कन्वर्ट हो चुकी थी। लेकिन प्रमाण-पत्र पाने के लिए उसने खुद को हिंदू बताया था।
ईसाई महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि महिला ईसाई मत को मानती है और नियमित रूप से चर्च जाती है। फिर भी नौकरी के लिए खुद को हिंदू और एससी बता रही है। ऐसा दोहरा दावा ठीक नहीं है। जो व्यक्ति ईसाई है, लेकिन आरक्षण के लिए खुद को हिंदू बताता है, उसे एससी का दर्जा देना आरक्षण के उद्देश्य के खिलाफ है। यह संविधान के साथ धोखा है।
कुछ दिन पहले राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने भी कन्वर्जन के बाद आरक्षण का लाभ लेने वालों का विरोध किया था। आयोग के अध्यक्ष किशोर मकवाणा ने कहा था कि ऐसे लोगों की जांच की जा रही है। केंद्र सरकार ने जांच आयोग को एक वर्ष का विस्तार दिया है। संविधान में अनुसूचित जातियों को अनुच्छेद-341 के तहत रखा गया है। इसके तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के अलावा किसी दूसरे मत-मजहब को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति का नहीं माना जा सकता। बता दें कि अक्तूबर 2022 में केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केजी बालकृष्ण के नेतृत्व में एक जांच आयोग का गठन किया था।
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