ईसाई मिशनरियां पूरे देश में तेजी से पैर पसार रही हैं। दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर में जड़ें जमाने के बाद अब उन्होंने उत्तर भारत में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। कन्वर्जन के साथ गांवों में चर्च भी बनाए जा रहे हैं। बीते कुछ दिनों की खबरों पर निगाह डालें तो चर्च का प्रपंच अच्छे से समझ में आ जाएगा। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि चर्च मिशनरियों के निशाने पर हिंदू समाज विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समाज है।
कन्वर्जन के लिए मिशनरियों को स्थानीय चर्च से पैसे मिलते हैं। ये चर्च मिशन नाम से संस्था बनाते हैं, जिन्हें दान के माध्यम से धन प्राप्त होता है। इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर राजनेताओं और संबंधित राज्य सरकारों से भी इन्हें संरक्षण और आर्थिक सहायता मिलती है। अगर चर्च के आसन्न खतरे को समझना है तो खासतौर से पूर्वोत्तर के राज्यों का अवलोकन करना होगा, जहां तीन राज्यों का पूरी तरह ईसाईकरण हो गया है और बाहरी शक्तियों की सहायता से ईसाई बहुल क्षेत्रों को काट कर अलग ईसाई देश बनाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।
60 वर्ष में 16 प्रतिशत घटे हिन्दू
कुछ समय पूर्व झारखंड उच्च न्यायालय में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ और संथाल प्रमंडल में जनसांख्यिकीय परिवर्तन के षड्यंत्र की जांच कराने की मांग को लेकर एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी। इस पर उच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगा था। केंद्र सरकार ने12 सितंबर, 2024 को इस मामले में एक विस्तृत रिपोर्ट दाखिल की थी, जिसमें कहा गया है कि 1951 की तुलना में 2011 तक संथाल क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी 16 प्रतिशत कम हो गई है, जबकि ईसाई आबादी 6,000 गुना बढ़ गई है।
यानी इन 6 दशक में हिंदुओं की आबादी 44.67 प्रतिशत से घटकर 28.11 प्रतिशत हो गई। 1951 में संथाल परगना क्षेत्र में हिंदुओं की आबादी 23,22,092 थी। इसमें हिंदू 90.37 प्रतिशत जबकि ईसाई मात्र 0.18 प्रतिशत थे। 2011 में इस क्षेत्र की आबादी बढ़कर 69,69,097 हो गई, लेकिन हिंदू घटकर 67.95 प्रतिशत और ईसाई बढ़कर 4.21 प्रतिशत हो गए। जनजातीय आबादी में गिरावट का मुख्य कारण ईसाइयों द्वारा कन्वर्जन कराना है।
प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के अनुसार, 0.4 प्रतिशत हिंदू ईसाई बन चुके हैं। इनमें 48 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर अनुसूचित जाति से थे, जबकि अनुसूचित जनजाति से 14 प्रतिशत और 26 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग से थे। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ईसाई मत में कन्वर्ट होने वाले तीन चौथाई यानी 74 प्रतिशत हिंदू अकेले दक्षिण भारतीय राज्यों से हैं।
प्यू रिसर्च सेंटर ने नवंबर 2019 से मार्च 2020 के बीच देशभर के अलग-अलग हिस्सों में एक सर्वेक्षण किया था। इसमें 17 भाषाओं के लगभग 30,000 लोगों से बातचीत के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की थी। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) की सदस्य शमिका रवि ने एक शोध पत्र में बताया है कि भारत में 1950 से 2015 के बीच हिंदुओं की आबादी 7.82 प्रतिशत (84.68 प्रतिशत से 78.06 प्रतिशत) घट गई। इन 65 वर्षों में ईसाई आबादी 2.24 प्रतिशत से बढ़कर 2.36 प्रतिशत हो गई, जबकि मुस्लिम आबादी 9.84 प्रतिशत से बढ़कर 14.09 प्रतिशत हो गई। उल्लेखनीय है यहां मिशनरियों द्वारा कराए जा रहे कन्वर्जन पर गौर किया गया है।’
कन्वर्जन की रफ्तार
जोशा प्रोजेक्ट की वेबसाइट, जो अमेरिका से संचालित होती है, के अनुसार भारत में हर वर्ष लगभग 24 लाख लोगों को ईसाई बनाया जा रहा है। इस पर दी गई जानकारी के अनुसार भारत की वर्तमान जनसंख्या 143 करोड़ है, जिसमें 6.7 करोड़ से अधिक लोगों को कन्वर्ट किया जा चुका है। इस हिसाब से 4.7 प्रतिशत लोग ईसाइयत में कन्वर्ट हो चुके हैं। अब ईसाई मिशनरियां 95.3 प्रतिशत यानी 136 करोड़ लोगों तक पहुंच बनाने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं।
चौंकाने वाली बात यह है कि इस कन्वर्जन की रफ्तार कल्पना से भी अधिक है। हिंदुओं को प्रति वर्ष 3.9 प्रतिशत की दर से ईसाई बनाया जा रहा है, जबकि कन्वर्जन की वैश्विक दर 2.6 प्रतिशत ही है। इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 100 में से 4 हिंदू ईसाई बन रहे हैं। यह स्थिति तब है, जब देश के कई राज्यों में कन्वर्जन विरोधी कानून हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और ओडिशा शामिल हैं। बीते वर्ष महाराष्ट्र ने भी कन्वर्जन विरोधी कानून लाने की घोषणा की थी।
जोशुआ प्रोजेक्ट की वेबसाइट के अनुसार, कन्वर्जन के लिए देश में 2,272 जातियों का एक समूह बनाया गया है, जिसमें हर वर्ग के समुदाय के लिए एक एजेंट नियुक्त किया गया है। यह ‘गिरोह’ पूरे देश में फैला हुआ है। वेबसाइट पर यह भी बताया गया है कि किस जाति की आबादी कितनी है। उदाहरण के लिए, इस वेबसाइट के अनुसार देश में 79,000 अघोरी हैं, लेकिन चर्च के एजेंट अभी तक इन तक पहुंच नहीं बना सके हैं।
वेबसाइट के अनुसार, संथाल, कुई खोंड, उरांव, शबर, बोडो, अरिएंग, टिपेरा, बधिर, मुंडा, वानियान, गामित और खरिया जातियां भी मिशनरियों की ‘न्यूनतम पहुंच’ में हैं। वहीं, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की मूल निवासी आदि-आंध्र जाति, जिसकी कुल आबादी 3.45 लाख है, 0.85 प्रतिशत कन्वर्ट हो चुकी है। बता दें कि भारत सरकार ने इसे अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया है। आदि-आंध्र जाति को जिन इलाकों में पूरी तरह कन्वर्ट किया जा चुका है, उसका नाम बदल कर ‘आदि-आंध्र क्रिश्चियन’ कर दिया गया है। आदि द्रविड़ या आदि द्रविड़र जिन्हें (पेरियार भी कहा जाता है) तमिलनाडु के मूल निवासी हैं और सनातन धर्म को मानते हैं।
मिशनरियों ने 7.39 लाख आदि द्रविड़ को ईसाई बनाने के बाद उन्हें ‘आदि द्रविड़ क्रिश्चियन’ नाम दिया है। इसी तरह, आदि पासी जिनकी आबादी देश में मात्र 3,400 है, उनमें से लगभग 20 प्रतिशत और असम की अहोम जनजाति में से 3.34 प्रतिशत को कन्वर्ट किया जा चुका है। मिशनरियों ने जनजातीय समाज में पहुंच बनाने के लिए उनकी परंपराओं की तर्ज पर प्रार्थनाएं भी गढ़ ली हैं। कन्वर्जन की गतिविधियां जनजातीय समाज की सांस्कृतिक अस्मिता और परंपराओं को खत्म कर रही हैं। वेबसाइट के अनुसार, ये मिशनरियां 2,272 जातियों में से अभी तक 31 के बीच पहुंच बना चुकी हैं।
विडंबना तो यह कि चर्च मिशनरियां हिंदुओं का कन्वर्जन ही नहीं कर रही, बल्कि उनकी परंपरा और पहचान को भी मिटा रही हैं। इसके अलावा, उत्तर भारत में कार्यरत सभी चर्चों को एक बैनर के तले लाने का प्रयास किया जा रहा है। हाल ही में मिजोरम के मुख्यमंत्री पी.यू. लालदुहोमा द्वारा अमेरिका में दिए गए एक बयान से इसकी पुष्टि होती है। उन्होंंने इंडियानापोलिस में आयोजित ईसाइयों के एक कार्यक्रम में कहा था कि उत्तर भारत के चर्चों को चर्च आफ नॉर्थ इंडिया के बैनर तले लाने का प्रयास किया गया, जो सफल नहीं हुआ। हालांकि, दक्षिण भारत में विभिन्न चर्चों ने मिल कर चर्च आफ साउथ इंडिया का गठन किया है, जबकि पूर्वोत्तर में पहले से ही बैपटिस्ट और लैटिन कैथोलिक ईसाईयों के चर्चों का संगठन है। इसी वर्ष अक्तूबर में ‘विश्वव्यापी ईसाई एकता आंदोलन’ के तहत 8 विभिन्न चर्चों ने मिल कर मिजोरम काउंसिल आफ चर्चेज की स्थापना की है।
ऐसे कर रहे कन्वर्जन
ईसाई मिशनरियां लोगों की आर्थिक परेशानी और बीमारी को दूर करने का लालच देकर उन्हें कन्वर्ट कर रही हैं। इसके लिए पादरी गांव-गांव जाकर प्रचार करते हैं और ग्रामीणों को अपने जाल में फंसाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रत्येक गांव में एक व्यक्ति को ‘प्रचारक’ बनाया जाता है और उसे प्रार्थना के लिए घंटी, सील-मोहर उपलब्ध कराई जाती है। इस ‘प्रचारक’ का काम लोगों को चर्च ले जाना तथा ईसाइयत अपनाने के लिए प्रेरित करना होता है। यदि उसके माध्यम से कोई कन्वर्ट होता है तो उसे 2,000 रुपये और वह किसी की ईसाई से शादी कराता है, तो 1500 रुपये मिलते हैं। कन्वर्जन कराने वाले एजेंट का काम बीमार-परेशान लोगों का पता लगा कर उन्हें प्रार्थना सभा तक लाना होता है, जहां जादू-टोने से कथित तौर पर लोगों को ठीक करने के दावे किए जाते हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार, अकेले छत्तीसगढ़ में बीते एक दशक में 50,000 लोगों को ईसाई बनाया जा चुका है, जबकि झारखंड में प्रधानमंत्री आवास दिलाने का लालच देकर लोगों को बरगलाया जा रहा है। इस वर्ष फरवरी में झारखंड के हजारीबाग जिले में हर माह 15,000 रुपये देकर कन्वर्जन कराने वाले गिरोह का खुलासा हुआ था। जिले के मंडई गांव के रंजीत कुमार सोनी को ईसाई बनने के लिए प्रति माह 15,000 रुपये, परिवार के सदस्यों को मुफ्त इलाज और शिक्षा का लालच दिया गया था। साथ ही, उससे कहा गया था कि यदि वह हर महीने दो हिंदू परिवारों को कन्वर्ट कराता है तो अलग से 10,000 रुपये दिए जाएंगे। जब रंजीत ने अपना धर्म छोड़ने से इनकार किया तो उसके साथ मारपीट की गई। इस मामले में 8 आरोपियों की गिरफ्तारी हुई थी।
इससे पहले मार्च 2022 में झारखंड में ही 5,000 रुपये और मुफ्त इलाज का प्रलोभन देकर ईसाई बनाने का मामला सामने आया था। ईसाई पादरी रवि और विश्वजीत सिंह पर आदिवासियों के साथ सिखों को भी कन्वर्ट करने के आरोप में हिरासत में ले लिया गया था। लेकिन बाद में पुलिस ने उन्हेंछोड़ दिया। आलम यह है कि झारखंड के छोटे शहरों व गांवों में सक्रिय मिशनरियां गरीब व कमजोर लोगों, विशेषकर जनजातीय लोगों को उनकी बात न मानने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी देती हैं। इसलिए डर के मारे ईसाई बन रहे हैं।
सितंबर 2021 में एक दलित महिला ने एक ईसाई के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। उसका कहना था कि उसे और उसके परिवार को कन्वर्ट होने के लिए प्रताड़ित किया जा रहा है। यहां तक कि उनकी नाबालिग बच्ची का यौन उत्पीड़न भी किया जा रहा था, जिसके कारण बच्ची सदमे में थी। यह मामला गुमला जिले के जमडीह गांव का था।
मिशनरियों के हमदर्द
उधर मिशनरियों को देश में स्थानीय स्तर पर सरकारी सहूलियतें और सहयोग भी मिल रहा है। इसमें ओडिशा की पूर्ववर्ती बीजद सरकार और झारखंड की झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार आगे रही हैं। ओडिशा में सरकारी पैसे से चर्च बनाए गए। तत्कालीन बीजद सरकार ने 2022-23 में सुंदरगढ़ के बालशंकरा में एक चर्च के नवीनीकरण के लिए 4 लाख रुपये दिए थे। यह राशि मुख्यमंत्री विशेष सहायता योजना के तहत दी गई। इससे पहले, मिशनरीज आफ चैरिटी के एफसीआरए पंजीकरण को नवीनीकृत करने और इसके विदेशी वित्तपोषण में प्रभावी कटौती को लेकर 2022 में केंद्र सरकार के फैसले के कुछ दिन बाद ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने मिशनरीज आफ चैरिटी द्वारा संचालित संस्थाओं को मुख्यमंत्री राहत कोष से 78.76 लाख रुपये देना मंजूर किया था।
इससे भी पहले जून 2015 में जनजातीय मामलों के तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ओरांव ने बीजद सरकार पर वनवासियों के कल्याण कार्यक्रमों के लिए केंद्र से मिलने वाले अनुदान को खर्च न करने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि 2014-15 के दौरान केंद्र सरकार ने वनवासियों के विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों के लिए 421 करोड़ रुपये का अनुदान दिया था, लेकिन राज्य सरकार आधी धनराशि भी खर्च नहीं कर सकी। इससे पता चलता है कि राज्य सरकार को जनजातीय समाज की कितनी चिंता थी!
दरअसल, मिशनरियां अपनी हमदर्द सरकारों से मिलने वाले पैसे से मुफ्त स्वास्थ्य शिविर लगाकर गांवों में बीमार लोगों का पता लगाती हैं और फिर इलाज के बहाने उन्हें कन्वर्ट करती हैं। झारखंड की बात करें तो यह एक तरह से ईसाई मिशनरियों की प्रयोगशाला है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) शुरू से ईसाइयों की समर्थक रहा है। इसलिए उसके शासन काल में मिशनरियों को भरपूर खाद-पानी मिला, जिसका परिणाम कन्वर्जन में बेतहाशा वृद्धि के रूप में सामने आया है।
ऐसे ढेरों मामले हैं, जिनसे पता चलता है कि 2005 से 2024 के बीच राज्य में हेमंत सोरेन और शिबू सोरेन के कार्यकाल में न केवल ईसाइयत को बढ़ावा दिया गया, बल्कि मिशनरियों को आर्थिक सहायता देकर कन्वर्जन के लिए प्रोत्साहित किया गया। हेमंत सोरेन, उनके दिवंगत भाई दुर्गा सोरेन व बसंत सोरेन ने दुमका के एक मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा समय-समय पर दिए गए बयानों से यह पुष्टि होती है कि ईसाइयों के प्रति उनका रुख कैसा है।
8 नवंबर, 2022 को रांची में इंटरनेशनल पेंटाकोस्टल होलीनेस चर्च (आईपीएचसी) के शताब्दी समारोह में उन्होंने कहा था, ‘‘मिशनरी संस्थाएं राज्य के सुदूर ग्रामीण इलाकों में कठिन जीवन बिता रहे लोगों का मार्गदर्शन कर उन्हें आगे बढ़ने की ताकत दे रही हैं। मुझे कई जगह मिशनरी संस्थाओं के साथ काम करने तथा विकास योजनाओं पर चर्चा करने का अवसर मिला है। राज्य के आदिवासियों व मूलवासियों में जो शैक्षणिक व बौद्धिक विकास हुआ है, उसमें कहीं न कहीं मिशन संस्थानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। सुदूर क्षेत्रों में जहां मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा की कमी है, वहां मिशन संस्थाओं ने सकारात्मक कार्य कर मील का पत्थर स्थापित किया है।’’
हेमंत सोरेन हर वर्ष क्रिसमस से पहले या तो चर्च जाते हैं या पादरियों के घर शुभकामना देने जाते हैं। हर बार की तरह पिछले साल 23 दिसंबर को भी वे रांची स्थित आर्चबिशप हाउस गए और पादरियों को शुभकामनाएं दीं। इसके बाद उन्होंने कहा, ‘‘क्रिसमस लोगों के बीच प्रेम और खुशी फैलाने का अवसर है। आइए, हम एक साथ यीशु के जन्म का जश्न मनाएं।’’ इस वर्ष झारखंड सरकार ने विभिन्न जिलों के 70 ईसाई मतावलंबियों को सरकारी खर्च पर ‘तीर्थ यात्रा’ पर गोवा भेजा था। इसके लिए बाकायदा संबंधित विभाग से आवेदन मांगे गए थे। इसके बाद झारखंड टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड ने पूर्वी सिंहभूम जिले के ईसाइयों को गोवा भेजा था। इससे पूर्व सितंबर 2023 के पहले सप्ताह में भी हेमंत सोरेन सरकार ने 81 ईसाइयों को सरकारी खर्चे पर गोवा की यात्रा कराई थी।
सोरेन सरकार में ईसाइयों का कितना दखल है, इसे आर्चबिशप द्वारा जेएमएम सरकार में एक ईसाई को मंत्री बनाने के लिए दबाव बनाने से भी समझा जा सकता है। रांची के आर्चबिशप फेलिक्स टोप्पो ने दिसंबर 2020 में बतौर ‘क्रिश्चियन गिफ्ट’ के रूप में यह ‘मांग’ की थी। बिशप का कहना था कि एक ईसाई मंत्री ही ईसाइयों की भावनाओं को बेहतर ढंग से समझ सकता है। इसके बाद हेमंत सोरेन सरकार ने बाकायदा एक ईसाई को मंत्री बनाया और उसे अल्पसंख्यक मामलों का प्रभार सौंपा।
हेमंत सोरेन ही नहीं, उनके पिता शिबू सोरेन भी ईसाइयों के हमदर्द थे। उन्होंने अपने शासन काल में मिशनरियों के लिए क्या-क्या किया था, यह भी देखिए। 2010 में जब शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने कैथोलिक चर्च के बिशपों को पूरा समर्थन देने की बात कही थी। 5 जनवरी, 2010 को उन्होंने कहा था, ‘‘मैं उनके (बिशपों के) नेतृत्व में झारखंड में चर्च द्वारा किए जा रहे कार्यों की सराहना करता हूं। मुझे उनकी प्रार्थनाओं और समर्थन की जरूरत है।’’ शिबू सोरेन ने बिशपों के एक प्रतिनिधिमंडल से कहा था कि सरकार चर्च को राज्य में एक मेडिकल कॉलेज और 500 बिस्तरों वाले अस्पताल के लिए भूमि अधिग्रहण में मदद करेगी। इससे पूर्व 2005 में भी उन्होंने चर्च की प्रशंसा करते हुए कहा था कि पूर्वी भारत के आदिवासी बहुल राज्य में चर्च बेहतर व्यवहार के हकदार हैं। 6 मार्च, 2005 को उन्होंने लगभग 40,000 लोगों की एक सभा को संबोधित किया था, जिसमें अधिकतर ईसाई थे। शिबू सोरेन ने इसमें कहा था, ‘‘लगभग 160 साल पहले इस क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों के आने से पहले स्थानीय आदिवासी लोग जानवरों की तरह रहते थे, ‘मिशनरियों से आदिवासियों को नया जीवन मिला।’’
ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। 2018 से अभी तक झारखंड में मिशनरियों द्वारा कन्वर्जन के दर्जनों मामले सामने आए हैं। लेकिन हेमंत सोरेन यह नहीं चाहते कि राज्य में मिशनरियों के कन्वर्जन कारोबार में कोई बाधा आए। इसलिए उन्होंने 26 दिसंबर, 2019 को भाजपा सरकार द्वारा सितंबर 2017 में पारित कन्वर्जन विरोधी कानून की समीक्षा करने की बात कही थी। भाजपा सरकार द्वारा पारित कानून में कपटपूर्ण तरीके से या जबरन कन्वर्जन को गैर-जमानती अपराध बताने के साथ 3 वर्ष की कैद और 50,000 रुपये जुर्माने का भी प्रावधान किया गया था। इसी तरह, हेमंत सोरेन नक्सलियों के प्रति भी सहानुभूति रखते हैं। उन्होंने 15 जुलाई, 2021 को अर्बन नक्सली स्टेन लॉर्डुस्वामी को श्रद्धांजलि दी थी।
स्टेन एक पादरी था, जो लंबे समय से अराजक गतिविधियों में लिप्त था। वह न केवल नक्सलियों का समर्थक था, बल्कि यलगार परिषद से जुड़ा था और भीमा कोरेगांव हिंसा का आरोपी भी था। लेकिन हेमंत सोरेन ने उसे श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि ‘‘समाज के लिए उनके ‘बलिदान’ और ‘अमूल्य योगदान’ को हमेशा याद किया जाएगा।’’ यही नहीं, उन्होंने स्टेन की तुलना भगवान बिरसा मुंडा से की थी। उन्होंने कहा था, ‘‘झारखंड बलिदान देने में कभी पीछे नहीं रहा, चाहे वह बिरसा मुंडा हों या फादर स्टेन स्वामी।’’ बता दें कि अक्तूबर 2020 में जब भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने स्टेन को गिरफ्तार किया था, तब भी हेमंत काफी मुखर थे।
दोहरी मलाई को पहला झटका
जनजातीय समाज के बीच कन्वर्जन का मुद्दा नया नहीं है। आर्थिक और अन्य प्रलोभनों की आड़ में देश की विभिन्न जनजातियां लंबे समय से कन्वर्जन का शिकार होती रही हैं। समाज सेवा की आड़ में मिशनरियां अपने एजेंडे पर काम करती हैं। इसमें अब आरक्षण भी एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है। अपनी संस्कृति, रीति-रिवाजों और मान्यताओं को छोड़कर कन्वर्ट होने वाला हर व्यक्ति दोहरी मलाई खाता है। एक ओर वह ‘अल्पसंख्यक’ कोटे का लाभ लेता है वही दूसरी ओर आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुद को एससी, एसटी और ओबीसी भी साबित कर देता है।
हाल ही में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केवल आरक्षण का लाभ लेने के लिए कन्वर्ट होना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। न्यायालय ने साथ ही मद्रास उच्च न्यायालय के उस निर्णय को भी सही ठहराया जिसमें एक महिला को एससी प्रमाण-पत्र देने से इनकार कर दिया गया था। दरअसल, उक्त महिला पुडुचेरी में अपर डिविजन क्लर्क की नौकरी के लिए एससी प्रमाण-पत्र चाहती थी, जबकि वह ईसाई मत में कन्वर्ट हो चुकी थी। लेकिन प्रमाण-पत्र पाने के लिए उसने खुद को हिंदू बताया था।
ईसाई महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि महिला ईसाई मत को मानती है और नियमित रूप से चर्च जाती है। फिर भी नौकरी के लिए खुद को हिंदू और एससी बता रही है। ऐसा दोहरा दावा ठीक नहीं है। जो व्यक्ति ईसाई है, लेकिन आरक्षण के लिए खुद को हिंदू बताता है, उसे एससी का दर्जा देना आरक्षण के उद्देश्य के खिलाफ है। यह संविधान के साथ धोखा है।
कुछ दिन पहले राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने भी कन्वर्जन के बाद आरक्षण का लाभ लेने वालों का विरोध किया था। आयोग के अध्यक्ष किशोर मकवाणा ने कहा था कि ऐसे लोगों की जांच की जा रही है। केंद्र सरकार ने जांच आयोग को एक वर्ष का विस्तार दिया है। संविधान में अनुसूचित जातियों को अनुच्छेद-341 के तहत रखा गया है। इसके तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के अलावा किसी दूसरे मत-मजहब को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति का नहीं माना जा सकता। बता दें कि अक्तूबर 2022 में केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केजी बालकृष्ण के नेतृत्व में एक जांच आयोग का गठन किया था।
खतरे में पूर्वोत्तर राज्य
यहां हमें यह याद रखने की जरूरत है कि पूर्वोत्तर के आठ राज्यों सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय और असम की स्थिति तो सबसे खराब है। ये राज्य पूरी तरह चर्च की चपेट में है। खासतौर से नागालैंड, मिजोरम और मेघालय ईसाई बहुल हो गए हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, नागालैंड में ईसाई आबादी 88.1 प्रतिशत, मिजोरम में 87 प्रतिशत और मेघालय में 75 प्रतिशत है। नगा, कुकी और हमर जनजातियां तो पूरी तरह ईसाई बन चुकी हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की कुल 2.78 करोड़ ईसाई आबादी (कुल जनसंख्या का 2.3 प्रतिशत) में से 78 लाख ईसाई पूर्वोत्तर में रहते हैं। नागालैंड का जुन्हेबोटो का बैपटिस्ट चर्च तो एशिया का सबसे बड़ा चर्च है। इसमें एक साथ 8,500 से अधिक लोग बैठ सकते हैं।
मणिपुर की सीमाएं उत्तर में नागालैंड, दक्षिण में मिजोरम, पूरब में म्यांमार और पश्चिम में असम से लगती हैं। इसी तरह, असम बांग्लादेश और भूटान के अलावा बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम के साथ अपनी सीमाएं साझा करता है। असम का ईसाई बहुल डिमाहासो जिला, जिसे पहले उत्तरी कछार हिल्स के नाम से जाना जाता था, मेघालय से घिरा हुआ है। 2011 में असम में ईसाइयों की आबादी 11.66 लाख थी, जिसमें 4.95 लाख ईसाई अनुसूचित जनजाति से थे। यह असम की कुल आबादी का 42.5 प्रतिशत था। शेष 57.5 प्रतिशत ईसाई दूसरे समुदायों, विशेषकर चाय-बागान समुदाय से थे।
इसी तरह, नागालैंड की 86.47 प्रतिशत, मिजोरम की 94.43 प्रतिशत और मेघालय की 86.14 प्रतिशत जनजातियां ईसाई बन चुकी हैं। मणिपुर में ईसाइयत को मानने वालों की संख्या 40.1 प्रतिशत है, जिनमें अधिकतर कुकी, जो, और नगा समुदाय के लोग हैं। 1961 से 2011 के बीच मणिपुर में हिंदुओं की आबादी 62 प्रतिशत थी, यानी 50 वर्ष में इनकी आबादी 21 प्रतिशत घट गई, जबकि ईसाइयों की आबादी 19 प्रतिशत से बढ़कर 41 प्रतिशत हो गई। कुकी-चिन-मिजो, जो पहले जनजातीय समाज का हिस्सा थे, अब ईसाई बन गए हैं। अब ये संगठित तौर पर खुद को ‘जो’ कहने लगे हैं।
निष्कर्ष यह कि जिस रफ्तार से हिंदुओं को कन्वर्ट किया जा रहा है, वह चिंताजनक है। एक तरफ ईसाई मिशनरियां हैं तो दूसरी तरफ इस्लामी ताकतें। दोनों हिंदुओं पर घात लगाकर बैठी हैं और धीरे-धीरे उन्हें निगल रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे, नहीं तो बांग्लादेश की तरह हिंदू अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे।
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